बिहार का यह चुनाव मुस्लिम मतदाताओं के लिए एक ‘लिटमस टेस्ट’ की तरह था. नतीजों ने यह साबित कर दिया है कि मुस्लिम मतदाताओं ने भी चुनाव की दिशा तय की है.
बिहार के राजनीतिक मामलों के जानकार व अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के एसोसिएट प्रो. मो. सज्जाद बताते हैं, ‘इस बार का बिहार चुनाव पहले के चुनावों से काफी अलग था. बिहार के इतिहास में यह पहला चुनाव था, जिसमें भाजपा ने नफ़रत की सियासत की. ख़ौफ़ की सियासत की. इस ख़ौफ़ व नफ़रत के माहौल में मुसलमानों ने ख़ामोशी अख़्तियार की और यह ख़ामोशी महागठबंधन के लिए अच्छी मसलहत साबित हुई.’
सज्जाद बताते हैं, ‘मुसलमानों ने अपने किसी भी सवाल को अहम नहीं माना. अपने किसी भी मुद्दे पर बात नहीं की. अपने तमाम सवालात व परेशानियों को भूल गए. यहां तक मीडिया के लोगों के सामने भी वे नहीं खुले. असल में बिहार के मुस्लिम नफ़रत की सियासत के खिलाफ लामबंद होते रहे. उनकी यह कवायद सफल साबित हुई.’
मुस्लिम भले ही सत्ता के केन्द्र में न रहा हो, लेकिन एक सच यह भी है कि सियासत के केन्द्र में हमेशा मुसलमान ही रहा है. इस बार भी आरंभ में सभी दलों में होड़ मची रही कि मुसलमानों के चक्रव्यूह को कौन भेद पाएगा. खुद को मुस्लिमों का रहनुमा साबित करने वाली ऑल इण्डिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लीमीन यानी ‘एमआईएम’ ने भी बिहार में घुसपैठ करने की कोशिश की. सभी पार्टियां मुस्लिम वोटरों में पैठ बनाने की भरपूर कोशिश करती नज़र आईं. यहां तक कि भाजपा व उनके घटक दल भी. कभी ‘शहीद अब्दुल हमीद के शहादत दिवस’ के बहाने तो कभी गुजराती मुसलमानों के तरक़्क़ी के बहाने. कभी भागलपुर दंगोंके बहाने तो कभी मुस्लिम मुख्यमंत्री के बहाने.
इन सबके बावजूद इस बार के नतीजों की खासियत यह रही कि मुस्लिम वोट न बंटे न भटके, बल्कि एकजुट होकर एक जगह पड़े और नतीजे में महागठबंधन को अप्रत्याशित सफलता मिली. हालांकि एक सचाई यह भी है कि राज्य में मुसलमानों की आबादी के प्रतिशत के लिहाज़ से उनकी भागीदारी बेहद कम है.
जीते हुए मुस्लिम उम्मीदवारों की संख्या इस बार बेहतर ज़रूर हुई है, मगर चुनावी समीकरण बदलने में उनका जो योगदान है, उस लिहाज़ से यह भागीदारी फिर भी कम है. आंकड़ों की बात करें तो 2011 की जनगणना के मुताबिक़ बिहार में मुसलमानों की जनसंख्या 16.87 फ़ीसद है. आंकड़े बताते हैं कि बिहार में मुसलमानों की जनसंख्या बढ़ रही है, उसके विपरित सत्ता में भागीदारी लगातार घट रही है. 2001 से 2011 के बीच मुसलमानों की आबादी 28 फीसदी बढ़ी है. (हिन्दुओं की भी 24 फीसदी बढ़ी है) यानी बिहार में मुसलमानों की आबादी 1.32 करोड़ से बढ़कर 1.76 करोड़ पहुंच गई है. इस तरह से 10 सालों में 38 लाख मुस्लिम बढ़े हैं. लेकिन सत्ता में भागीदारी घटी है. साल 2000 के विधानसभा चुनाव में 20 मुस्लिम नेता विधायक बने थे. फरवरी 2005 में यह संख्या बढ़कर 24 हो गई, लेकिन नवंबर 2005 में घटकर 16 पर आ गया. 2010 में थोड़ी बढ़ोत्तरी हुई है. 19 मुसलमान चुनाव जीत कर विधायक बने थे. हालांकि 30 सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवार दूसरे स्थान पर रहे थे.
इस बार की बात करें तो 2015 बिहार चुनाव में महागठबंधन ने कुल 33 मुस्लिम उम्मीदवार मैदान में उतारे थे, जिनमें से 23 ने शानदार जीत हासिल की है. यानी महागठबंधन के 70 फीसदी मुस्लिम उम्मीदवार इस चुनाव में कामयाब हुए. वहीं कटिहार के बलरामुर सीट पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मर्क्सिस्ट-लेनिनिस्ट) लिबरेशन के महबूब आलम ने जीत दर्ज कर संख्या में एक का इज़ाफ़ा कर दिया है. ऐसे में इस बार कुल 24 मुस्लिम उम्मीदवार विधायक बने हैं.
जीतने वाले 24 उम्मीदवारों के अलावा दूसरे पर रहने वाले मुस्लिम उम्मीदवारों की संख्या अच्छी-खासी है. इस बार 15 मुस्लिम उम्मीदवार दूसरे स्थान पर हैं. कुछ सीटों पर तो काफी कम वोटों के अंतर से हार हुई है. इतना ही नहीं, बिहार में अगर सबसे अधिक वोटों से जीतने वाले उम्मीदवारों की बात की जाए तो ‘टॉप फाईव’ में दो मुस्लिम उम्मीदवार शामिल हैं. जोकीहाट विधानसभा सीट से जदयू उम्मीदवार सरफ़राज़ निर्दलीय प्रत्याशी रंजीत यादव को 53980 वोटों से हराकर इस बिहार विधानसभा चुनाव में सबसे अधिक वोटों से जीतने वाले उम्मीदवारों की सूची में दूसरे नम्बर पर हैं. तो वहीं पांचवे स्थान पर कांग्रेस के अब्दुल जलील मस्तान का नाम आता है. अब्दुल जलील ने अमौर सीट पर भाजपा के सबा ज़फ़र को 51997 वोटों से पटखनी दी है.
एक बात यहां और ग़ौर करने की है. बिहार में कुल 38 सीटें एससी/एसटी के लिए आरक्षित हैं. लेकिन जब वहां मुस्लिमों की आबादी पर ग़ौर करते हैं तो कई सीटों पर मुस्लिमों का आबादी अधिक दिखाई पड़ता है. कटिहार के मनिहारी विधानसभा सीट पर मुस्लिम मतदाताओं की जनसंख्या तक़रीबन 42 फ़ीसद है. लेकिन यह सीट एसटी उम्मीदवार के लिए आरक्षित है, जबकि आदिवासी वोटरों की संख्या 12 फ़ीसद के आस-पास है. वहीं दलित वोटर 8 फ़ीसदी हैं.
कुछ ऐसी ही कहानी कोढ़ा विधानसभा सीट की भी है. य तक़रीबन 34 फ़ीसद मुस्लिम मतदाता हैं. लेकिन यह सीट एससी उम्मीदवार के लिए आरक्षित है. जबकि यहां दलित वोटरों की संख्या 13.5 फ़ीसद के आस-पास है. आदिवासी मतदाताओं की संख्या लगभग 8 फ़ीसदी है. अररिया के रानीगंज में भी मुस्लिम मतदाता 28 फीसद हैं. उसी तरह से पश्चिम चम्पारण के रामनगर सीट पर 21 फ़ीसद मुसलमान हैं और पूर्वी चम्पारण के हरसिद्धी सीट पर लगभग 20 फ़ीसदी आबादी है, लेकिन यह तमाम सीटें आरक्षित हैं.
बहरहाल, इस बार चुनाव में ध्रुवीकरण की तमाम कोशिशें हुईं लेकिन एनडीए की ओर से वोटों के ध्रुवीकरण के तमाम साज़िशों को दरकिनार करते हुए मुस्लिमों ने इस चुनाव के ज़रिए पूरे देश भर के अल्पसंख्यकों को एक स्पष्ट संदेश दे दिया है. संदेश साफ़ है कि एकजुट हो जाओ और अपने हक़ और इंसाफ़ की बात करने वाली ताक़तों पर दांव लगाओ. लेकिन एक बात यह भी ध्यान में रखने की है कि बिहार के मुसलमानों ने कभी अपने मुस्लिम के हैसियत से वोट नहीं किया, बल्कि देश का जैसा माहौल रहा, वो उसी के साथ गए.
बकौल प्रो. सज्जाद, ‘1977 लोकसभा चुनाव में जब लोग कांग्रेस के ख़िलाफ़ हुए तो मुसलमान भी कांग्रेस के ख़िलाफ़ गया. बोफोर्स कांड या भ्रष्टाचार जैसे मसलों से मुसलमान भी नाराज़ होता है. ऐसे में यह कहना है कि मुसलमानों का वोटिंग पैटर्न औरों से अलग है तो यह ग़लत है. 1967, 1990, 1995 के बिहार चुनाव में भी मुसलमान बिहार के बहुंसख्यक वोटरों के साथ ही गया. जब नीतीश कुमार भाजपा के साथ थे, तब भी मुसलमानों ने नीतीश की पार्टी को वोट दिया है.’
दरअसल, बिहार के इस चुनाव में मुस्लिम वोटरों की एकजुटता ने भाजपा के साथ-साथ ओवैसी के खेमे की नींदे उड़ा दीं. नतीजे में भाजपा ने भी जमकर ध्रुवीकरण करने की कोशिश की. गौ-हत्या से लेकर मुसलमानों के आरक्षण तक तमाम मुद्दों के ज़रिए भाजपा ने मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिन्दुओं को बहकाने का करारा दांव खेला लेकिन इस दांव में करारी मात मिली.
वैसे यहां यह भी स्पष्ट रहना चाहिए कि बिहार में यह बात भी सामने आई कि यहां के अधिकतर मुसलमानों ने कभी इस बात पर वोट नहीं किया कि फलां उम्मीदवार अपने मज़हब का है. मुसलमान है. बल्कि इस बात पर किया कि कौन उसकी आवाज़ को उठा रहा है. कौन उन्हें सुरक्षा मुहैया करा रहा है. जिसने भी यह काम किया, मुसलमानों ने उन्हें ही अपना लीडर मान लिया. हालांकि कई बार ठगे भी जाते रहे हैं. दिलचस्प बात तो यह है कि यहां ज़्यादातर मुस्लिम विधायक भी जीतने के बाद सबसे पहले मुसलमानों को ही भूलते हैं और दूसरे समुदाय के लोगों को खुश करने में लग जाते हैं. वैसे यह भी सही है कि उसे सिर्फ़ मुसलमानों का नेता नहीं होना चाहिए, उसे सबको लेकर चलना चाहिए.
ऐसे में मुस्लिम वोटरों की सबसे बड़ी शिकायत यही रही है कि उनको सिर्फ़ चुनाव के समय ही सिर्फ़ वोटबैंक की तरह इस्तेमाल किया जाता है.सरकार चुनने में उनके वोटों की अहम हिस्सेदारी होती है. लेकिन सरकार बनने के बाद उनके हक़ व हक़ूक़ की बात करने वाला कोई नहीं रहता. नीतीश कुमार के साथ-साथ वामदलों पर भी यह नज़र है कि मुस्लिम मतदाताओं के योगदान को वह भविष्य में किस ओर ले जाते हैं?
उम्मीद है कि बिहार के इस चुनाव में उनके इस योगदान को पार्टियां नहीं भूलेंगी. चुनाव के बाद भी उनकी दिक़्क़तों, उनकी प्राथमिकताओं और उनकी ज़रूरतों का बुनियादी तौर पर पूरा ख़्याल रखा जाएगा. ऐसा न हुआ तो आने वाले दूसरे प्रदेशों में भी चुनाव है. वहां मुस्लिम मतदाता एक बार फिर से अपने मुस्तक़बिल के हिसाब से पलट भी सकता है.