अल्लामा इक़बाल की प्रासंगिकता बरक़रार है

दरअसल सत्ता के नशे में चूर हुक्मरानों का यह सोचना है कि उन्होंने इक़बाल को पाठ्यक्रम से बाहर निकाल कर उन्हें दफ़्न कर दिया है लेकिन अल्लामा इक़बाल कोई टिमटिमाता हुआ दिया नहीं हैं जो उनकी फूंकों से बुझ जाएंगे। दुनिया में बहुत कम शायर ऐसे हुए हैं जिनकी शायरी को देशों की सीमाओं से परे, अवाम ने इतना पसंद किया हो।

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अल्लामा इक़बाल की प्रासंगिकता बरक़रार है

अभय कुमार

कुछ दिन पहले अख़बारों में यह ख़बर आई कि दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम से अल्लामा इक़बाल को बाहर कर दिया गया है। वहां की अकादमिक काउंसिल ने बीते शुक्रवार को यह सुझाव पारित किया कि बी० ए० पॉलिटिकल साइंस के पांचवें सेमेस्टर के ‘भारतीय राजनीतिक विचार’ पेपर में अब अल्लामा इक़बाल के लिए कोई जगह नहीं है। पहले मनु, कौटिल्य, वेदव्यास, ज़ियाउद्दीन बरनी, अबुल फ़ज़ल, कबीर, राजा राम मोहन राय, पंडिता रमाबाई, स्वामी विवेकानंद, गांधी, अंबेडकर, सावरकर, नेहरू, डॉ० लोहिया के साथ-साथ सर अल्लामा मुहम्मद इक़बाल को भी पढ़ाया जाता था। यह देश का दुर्भाग्य है कि जिस शायर ने ‘तराना-ए-हिंदी’ लिखकर करोड़ों हिन्दुस्तानियों में देशप्रेम की भावना जागृत की, आज उसी को कट्टर कहा जा रहा है।

‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्ता हमारा’ को हर ज़ुबान तक पहुंचाने वाला महान् शायर अपने ही देश से बाहर कर दिया गया है। ‘लब पे आती है दुआ बन के तमन्ना मेरी’ को गुनगुनाते हुए हिन्दुस्तान का हर बच्चा बड़ा होता है। इस दुआ के ज़रिए इक़बाल से वह सीखता है कि शिक्षा का असल उद्देश्य ग़रीबों की हिमायत करना और दर्दमंदों और कमज़ोरों से मुहब्बत करना है। मगर आज उसी इक़बाल को ज़लील किया जा रहा है। जिस शायर को पूरी दुनिया पढ़ती-पढ़ाती है, जिस के विचारों पर तमाम विश्वविद्यालयों में अनेक पीएचडी लिखी गई हैं, जिसकी पहचान एक हिन्दुस्तानी की है, जिसके विचारों में परम्परागत और आधुनिकता दोनों की अच्छी बातों का संगम है, उस शायर को एक विशेष धर्म में पैदा होने पर निशाना बनाया जा रहा है।

जिस वक़्त इक़बाल को पाठ्यक्रम से बाहर किया जा रहा था, उसी वक़्त कमज़ोरों के मसीहा बाबा साहब भीमराव अंबेडकर से संबंधित दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कोर्स में भी छेड़छाड़ की जा रही थी। ख़बर आई कि हिंदुत्व विचारक विनायक दामोदर सावरकर पर एक पूरा पेपर शुरू होने वाला है। ऐसा नहीं है कि सावरकर को पहले नहीं पढ़ाया जाता था लेकिन नया यह है कि उनके ऊपर एक पूरा कोर्स लाया जा रहा है और उनको गांधी और अंबेडकर पर प्राथमिकता दी जा रही है।

हालिया दिनों में एनसीईआरटी की पाठ्य-पुस्तकों से भगवा संगठनों के विचारों से मेल न खाने वाली चीज़ों को भी हटाने का सिलसिला शुरू हुआ है। महान् स्वतंत्रता सेनानी और देश के पहले शिक्षामंत्री मौलाना अबुल कलाम आज़ाद का नाम भी बिना किसी वजह के ग्यारहवीं कक्षा की पॉलिटिकल साइंस की किताब से हटा दिया गया। यह शिक्षा का भगवाकरण नहीं तो और क्या है?

इक़बाल को पाठ्यक्रम से हटाए जाने के बाद आरएसएस के छात्र संगठन एबीवीपी ने एक बयान जारी किया और अल्लामा इक़बाल के बारे में अपनी कुंठा व्यक्त की। उनको कट्टर धार्मिक विचारक कहा गया। यह भी आरोप लगाया गया कि अल्लामा इक़बाल ने मुहम्मद अली जिन्ना को आगे करके देश का विभाजन कराया। दरअसल सत्ता के नशे में चूर हुक्मरानों का यह सोचना है कि उन्होंने इक़बाल को पाठ्यक्रम से बाहर निकाल कर उन्हें दफ़्न कर दिया है लेकिन अल्लामा इक़बाल कोई टिमटिमाता हुआ दिया नहीं हैं जो उनकी फूंकों से बुझ जाएंगे। दुनिया में बहुत कम शायर ऐसे हुए हैं जिनकी शायरी को देशों की सीमाओं से परे, अवाम ने इतना पसंद किया हो।

अल्लामा इक़बाल उर्दू, अरबी, फ़ारसी के बड़े विद्वान थे। इस्लाम के बारे में उनका अध्ययन बहुत विस्तृत था। वह दर्शन के भी माहिर थे। पूरब और पश्चिम, दोनों के बड़े दार्शनिकों को पढ़ चुके थे। क़ानून के साथ-साथ अन्य आधुनिक ज्ञान के क्षेत्रों के बड़े जानकर थे। उन्होंने दुनिया देखी थी और अपने ज़माने की बेहतरीन शिक्षा हासिल की थी। उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए वह कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय और जर्मनी के म्यूनिख विश्विद्यालय गये, जहां सन् 1908 में ‘ईरान में तत्त्वमीमांसा का विकास’ शीर्षक पर पीएचडी पूरी की। धर्म, इतिहास और राजनीति के क्षेत्र में भी उन्हें महारत हासिल थी। इक़बाल रूढ़िवादी नहीं थे लेकिन आधुनिकता और पूंजीवादी व्यवस्था के जादू से प्रभावित भी नहीं थे। वह धर्म में स्थिरता के आलोचक थे, वहीं इंसान की आज़ादी के समर्थक भी थे, लेकिन उनको धर्म से बेज़ारी क़ुबूल नहीं थी।

अल्लामा इक़बाल को पाकिस्तान के विचार का जनक कहना भी ऐतिहासिक दृष्टिकोण से उचित नहीं है। ऐसा इसलिए क्योंकि अल्लामा इक़बाल का निधन 21 अप्रैल 1938 को लाहौर में हुआ, जबकि देश का विभाजन उनके निधन के 9 साल बाद हुआ। भारत की राजनीति ने 1940 की दहाई में बहुत-सारी करवटें लीं थीं, क्या उन सब के पीछे अल्लामा इक़बाल के विचार काम कर रहे थे? यह अक्सर याद नहीं रखा जाता है कि हर दौर में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक कारण मज़बूत से मज़बूत व्यक्ति को मुड़ने पर मजबूर कर देते हैं। कैसे इक़बाल, महज़ एक इंसान, मुल्क को दो हिस्सों में बांट सकते थे? इक़बाल पर तो बात होती है लेकिन उन लोगों पर बात क्यों नहीं होती जो अल्पसंख्यकों को उनके जायज़ अधिकार देने से घबरा रहे थे? सत्ता को केंद्रित रखने के बड़े समर्थक कौन-से राजनेता थे?‌ बात 1946 तक नहीं बिगड़ी थी जब ब्रिटिश कैबिनेट मिशन के तहत कांग्रेस और मुस्लिम लीग बातचीत में हिस्सा ले रहे थे। कांग्रेस अध्यक्ष मौलाना आज़ाद भी पुरउम्मीद थे कि बीच का कोई रास्ता निकल जाएगा। सामूहिक कोशिशें भी जारी थीं कि अल्पसंख्यकों को उनके सुरक्षित अधिकार दिए जाएं, केंद्र और राज्यों के अधिकारों को बांट दिया जाए ताकि शक्ति के केंद्रीकृत होने का ख़तरा न रहे, कमज़ोर तबक़ों को यह विश्वास दिलाया जाए कि आज़ाद हिन्दुस्तान में उनके अधिकार सुरक्षित रहेंगे। बात तो लगभग बन गई थी, फिर किसने आख़िरी समय में सारे मंसूबे पर पानी फेर दिया? उस वक़्त तो इक़बाल अपनी क़ब्र में लेटे हुए थे। क्या कोई भी निष्पक्ष इतिहासकार इन सारी बातचीतों की नाकामी का ज़िम्मेदार अल्लामा इक़बाल को ठहरा सकता है?

यहां इक़बाल का बचाव नहीं किया जा रहा है और न ही यह कहा जा रहा है कि उनकी तमाम बातें शत-प्रतिशत सही थीं। इक़बाल के ही समकालीन शेख़-उल-हिंद हुसैन अहमद मदनी को क़ौम, मिल्लत, और उम्मत के सवाल पर इक़बाल से बहुत-सारे मतभेद थे। क़ौमिय्यत के सवाल पर तो मौलाना की उनसे अवामी बहस भी हुई। मौलाना का कहना था कि क़ुरआन में क़ौम का लफ़्ज़ तमाम लोगों के लिए इस्तेमाल हुआ है और इसमें मज़हब की क़ैद नहीं है। मतलब यह कि मुसलमान और ग़ैर-मुस्लिम एक क़ौम हैं और अलग-अलग धर्मों को मानने वाले एक ही मुल्क के शहरी हो सकते हैं। दूसरी तरफ़, इक़बाल मुस्लिम पहचान पर ज़ोर दे रहे थे। उनका कहना था कि एक अलग समूह होने के कारण मुसलमानों के अधिकारों को सुरक्षित किया जाए। 1930 के मुस्लिम लीग के इलाहाबाद सम्मेलन में अपने भाषण में इक़बाल ने कहा था कि इस्लाम एक सम्पूर्ण नैतिक व्यवस्था है और धर्म को कभी दुनिया की ज़िंदगी से अलग नहीं किया जा सकता। उन्होंने यूरोप के आज़ादी पसंद विचारकों की आलोचना की और कहा कि धर्म हमारी सामाजिक व्यवस्था से जुड़ा हुआ है और धर्म को हमारी अवामी ज़िंदगी से अलग नहीं किया जा सकता। हालांकि बहुत-से लोगों को अल्लामा इक़बाल के इन‌ विचारों से मतभेद था और आज भी है लेकिन इक़बाल की जो बात आज भी प्रासंगिक है वो यह कि लिबरल लोकतंत्र में समुदायों के अधिकारों को हर हाल में सुरक्षित किया जाना चाहिए। दूसरी तरह से इसे यूं कहा जा सकता है कि लोकतांत्रिक और सामुदायिक अधिकारों में कोई विरोधाभास न हो।

इसी भाषण में जहां इक़बाल ने इस्लामी पहचान पर ज़ोर दिया, वहीं उन्होंने यह भी कहा कि एक क़ौम की बात करने का मतलब यह हरगिज़ नहीं है कि हम किसी दूसरी क़ौम से नफ़रत करते हैं। अपने भाषण में इक़बाल ने क़ौमों के बीच सद्भावना पर भी ज़ोर दिया और भारत के अंदर ही मुसलमानों के विशेषाधिकारों को सुरक्षित करने की बात कही। कहीं भी उन्होंने पाकिस्तान नाम का कोई अलग देश बनाने की बात नहीं की और न ही ग़ैर-मुस्लिमों के ख़िलाफ़ कुछ बोला। उन्होंने यह भी कहा कि क़ुरआन हमें शिक्षा देता है कि ग़ैर-मुस्लिमों के मज़हब, उनकी मान्यताओं, सामाजिक व्यवस्था, रस्म-ओ-रिवाज और धार्मिक स्थलों का आदर करना चाहिए। क्या उसी अल्लामा इक़बाल को आज कट्टर कहना अपनी ही विरासत को पैरों तले रौंदना नहीं है?

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