कैसे कोविड-19 संकट ने पूंजीवाद के सबसे दुष्टतम पहलू को उजागर किया

पूंजीवाद, मानवों से अधिक अपने फायदे को महत्व देता है, निसंदेह इसे मानव जीवन की कोई परवाह नहीं है। इसके स्वाभाव में शोषण है जिससे यह श्रमिक वर्ग को अमानवीय बनाता है।

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-मोहम्मद आरिफउद्दीन

कोविड-19 महामारी ने दुनिया को वैश्विक तबाही की ओर धकेलने के साथ पूंजीवाद के सबसे दुष्टतम पहलू को भी उजागर किया है। इसने अत्यधिक असमानता, भुखमरी, दौलतमंदों को ज़मानत देने में जल्दबाज़ी, बड़े पैमाने पर बेरोज़गारी और गंभीर स्वास्थ्य संकट को भी प्रदर्शित किया है। दर असल, पूंजीवाद की वास्तविकता यही है कि वो ताक़त और धन की असमानताओं पर खुद को स्थापित करता है। तालाबंदी को विलंभ से लागू करने का कारण भी यही था कि पूंजीवादी व्यवसाय को न तो कोई नुकसान पहुंचे और न ही उनका “वैश्विक मॉडल” किसी प्रकार बाधित हो। इसने अनावश्यक रूप से कर्मचारियों और संविदा श्रमिकों को संक्रमण के ख़तरे के बीच रखा ताकि उनका व्यापार सामान्य रूप से चलता रहे। इस व्यवस्था की त्रुटिपूर्ण कार्यस्थल नीतियों के चलते यह अपनी इच्छा अनुसार या तो उन्हें काम से निकाल देता है या फिर अवैतनिक अवकाश पर भेज देता है। यह अपने कर्मचारियों और श्रमिकों के प्रति लापरवाही के चलते उनके स्वास्थ्य की चिंता तो क्या, स्वास्थ्य बीमा को भी ख़त्म कर देता है। यह नैगमिक सामाजिक उत्तरदायित्व (CSR) का अभिमान तो करता है लेकिन जीवन बचाने के लिए वेंटीलेटर और अन्य सुरक्षात्मक सामग्री प्रदान नहीं कर सकता। इसी व्यवस्था के चलते एक संपन्न वर्ग के व्यक्ति को बिना किसी लक्षण के परीक्षण कराना तो आसान होता है जबकि निर्धन व्यक्ति को एक “निर्धारित प्रक्रिया” से गुज़रना पड़ता है।

हर जगह लगभग ऐसी ही कहानी है। स्वास्थ्य बीमा की कमी के कारण लोगों को तत्काल सहायता और उपचार से वंचित किए जाने के कई मामले देखने को मिल रहे हैं। केवल अमेरिका में ही 4.7 करोड़ लोगों के पास स्वास्थ्य बीमा न होने के कारण लगभग 18,000 लोगों की प्रतिवर्ष मृत्यु हो जाती है। भारत और अन्य दक्षिण एशियाई राष्ट्र जैसे विकासशील देशों में स्वास्थ्य सेवा की समुचित व्यवस्था ही नहीं है जिसके कारण प्रतिवर्ष 60 लाख लोगों की मौत हो जाती है। यह सभी राष्ट्र, रक्षा और सेना पर तो अरबों डॉलर खर्च करते हैं लेकिन स्वास्थ्य सेवा में बहुत कम निवेश करते हैं।

कोविड-19 महामारी ने दुनिया भर में सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रबंधन की लचर स्थिति को अच्छी तरह से उजागर किया है। स्वास्थ्य सेवा कोई विलास का साधन नहीं बल्कि मूल मानवाधिकार है जो ‘सर्वराष्ट्रीय मानव अधिकार घोषणापत्र’ में निहित है। हालांकि, स्वास्थ्य सेवा के बाज़ारीकरण और निजीकरण तथा इसको निजी बीमा बाज़ार के हवाले करने से मूल मानव अधिकारों का उल्लंघन होता है जिसके परिणामस्वरूप स्वास्थ्य सेवा में असमानताएं उत्पन्न होती हैं।

पूंजीवाद के “अत्याधुनिक स्वास्थ्य सेवा” के वादों के बावजूद, यह पूर्ण रूप से कोरोनावायरस के लिए टीका तैयार करने में असफल रहा। और हों भी क्यों न, दवा कंपनियां अनुसंधान से अधिक विज्ञापनों और विपणन पर जो खर्च करती हैं। इसके अलावा, अस्पताल के बुनियादी ढांचे एवं उपकरणों जैसे वेंटीलेटर्स और सुरक्षात्मक सामग्री की कमी हमारे स्वास्थ्य सेवा तंत्र की कमज़ोरियों को दर्शाती हैं। इसके गंभीर प्रभाव न केवल रोगियों पर बल्कि स्वास्थ्य कर्मियों पर भी पड़ते हैं। अकेले स्पेन में 27,000 से अधिक स्वास्थ्य सेवा कर्मी कई हफ़्तों तक सुरक्षात्मक सामग्री और बहतर योजना की अपील करते करते इस वायरस से संक्रमित हो गए। भारत और पकिस्तान जैसे विकासशील देशों में तो और बुरे हाल हैं जहाँ स्वास्थ्य कर्मियों को जबरन रेनकोट या फिर बिन बैग का उपयोग करना पड़ रहा है। ऐसे में वो अपनी जान को और अधिक जोखिम में डाल रहे हैं। और तो और, आईपीआर( बौद्धिक संपदा अधिकार) ने, विशेष रूप से विकासशील देशों के लिए, जीवन-रक्षक दवाओं और उपकरणों को वहन करना और मुश्किल बना दिया है।

कोविड-19 संकट ने स्वास्थ्य सेवाओं में सामाजिक विषमताओं को भी उजागर किया है। गौरतलब है कि विश्व की लगभग 80 प्रतिशत आबादी में व्यापक सामाजिक सुरक्षा का अभाव है। सामाजिक-आर्थिक रूप से सुविधावंचित लोगों के विरुद्ध सामाजिक भेदभाव के संस्थागत स्वरुप देखे जा रहे हैं। एनएचएस (नेशनल हेल्थ सर्विस) की रिपोर्ट के अनुसार, यूके में कोविड-19 से ग्रसित एक तिहाई आबादी में ब्लैक और जातीय अल्पसंख्यक समुदायों के लोग हैं।

क्योंकि पूंजीवाद, मानवों से अधिक अपने फायदे को महत्व देता है, निसंदेह इसे मानव जीवन की कोई परवाह नहीं है। इसके स्वाभाव में शोषण है जिससे यह श्रमिक वर्ग को अमानवीय बनाता है। यह मानव जीवन की कीमत पर महामारी के बीच “स्वादिष्ट अवसरों” को तलाश करता है। आज, दुनिया भर के लाखों कर्मचारी न तो अस्वस्थता अवकाश ले सकते हैं और न अपने काम से अनुपस्थित रहने का जोखिम उठा सकते हैं। ऐसे में वो वायरस के प्रति असुरक्षित हैं। तालाबंदी के लिए मजबूर, पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाएं दोबारा से काम शुरू करने के लिए व्याकुल हो रही हैं।

यह तो पता नहीं कि इस महामारी का अंत कब होगा लेकिन पूंजीवाद की प्रासंगिकता और उपयोगिता पर सवाल उठाने का यही सही समय है। साथ ही दान की जाने वाली कोई भी राशि इनके दोषों को छिपा नहीं सकती। हालांकि, हमें अति-सरलीकृत “पूंजीवाद बनाम समाजवाद” की बहस से आगे बढ़कर, पूंजीवादी तथा समाजवादी दुनिया, दोनों के अनुभवों से सीख लेना चाहिए और अधिक मानवीय, न्यायपूर्ण और लोकतांत्रिक विश्व व्यवस्था के लिए संघर्ष करना चाहिए।

 

 

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