कार्ल मार्क्स पर शायर ए मशरिक ने क्या कहा..!!

आज कार्ल मार्क्स का 200वां जन्म दिवस है, इस अवसर पर कार्ल मार्क्स को लेकर शायर ए मशरिक अल्लामा इकबाल क्या कहते हैं. अज़हर अंसार बातचीत कर रहे हैं प्रोफ्रेसर खालिद मुबश्शिर (जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली) के साथ. पढ़िए इस बातचीत का खुलासा

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अल्लामा मोहम्मद इकबाल अपने दौर के बड़े फलसफी और विचारक थे. उन्होंने सिर्फ अपने दौर की विचारधारा एवं दार्शनिकों को ही नहीं बल्कि इतिहास का हिस्सा रहे सभी विचारों का गहरा अध्ययन किया था. अपने अध्ययन की इसी श्रंखला में उन्होंने कार्ल मार्क्स को भी पढ़ा और इकबाल ने खुले दिल से साम्यवाद के सकारात्मक मूल्यों की प्रशंसा भी की और जो नकारात्मक विचार थे उनकी आलोचनाएं भी की. इकबाल ने अपने अध्ययन के दौरान विचारों को देखने का जो पैमाना अपनाया वो इस्लाम की शिक्षाएं थी. जो चीजें इस्लामी शिक्षा के अनुसार थी उसे उन्होंने कुबूल किया जबकि जो विपरीत थी उन पर अपने आलोचनात्मक प्रतिक्रिया दी.

साम्यवाद के कई सैद्धांतिक मूल्य उन मानवीय मूल्यों के समान है जो इस्लाम ने सिखाएं हैं. जैसे; पूंजीवादी व्यवस्था एवं उसके द्वारा उपेक्षित समूहों के शोषण के विरुद्ध इस्लाम भी हैं. इसीलिए भारतीय उपमहाद्वीप में जब प्रगतिशील आंदोलन शुरू भी नहीं हुए थे तब इकबाल ने कहा था;

“जिस खेत से दहकां को मयस्सर न हो रोज़ी

उस खेत के हर खोशा ए गन्दुम को जला दो”

 मानो लगता है जैसे यह किसी प्रगतिशील शायर का शेअर हो. मजदूर किसान मेहनतशों को अगर उसका अधिकार न मिल सके तो ऐसी व्यवस्था को आग लगा दो, इकबाल अपने इस शेअर में यही पैगाम देते हैं. ये शेअर उस समय का हैं जब भारत में प्रगतिशील संगठन आए भी नहीं थे और प्रोग्रेसिव मूवमेंट शुरू भी नहीं हुआ था.

कुछ आलोचकों ने जिनमें अली सरदार जाफरी का नाम भी है, इकबाल को सोशलिस्ट कहा है क्योंकि इस तरह की शेअर इकबाल की शायरी में मिल जाते हैं अपनी एक नज़्म में वह मार्क्स के बारे में कहते हैं;

“वो कलीम ए बे तजल्ली वो मसीह ए बे सलीब

नीस्त पैगम्बर व लेकिन दर बगल दारद किताब”

इस प्रकार इकबाल मार्क्स को एक सिद्धांत/किताब रखने वाला ‘नीस्त पैगम्बर’ बताकर बड़ा बना देते हैं अथार्त उसने पैगंबर की तरह समाज में समानता व न्याय की लड़ाई लड़ी.

लेकिन इकबाल न मार्क्स और साम्यवादी पर निर्मम आलोचनाएं भी की है, जैसे वह कहते हैं;

“कब डरा सकते हैं मुझको इश्तराकी कूचा गर्द

ये परेशाने रोजगार, आशुफ्ता मग्ज़, आशुफ्ता मू”

मतलब साम्यवाद के फिक्रो ख्याल कोई सुव्यवस्थित और व्यवहारिक नहीं है. बल्कि जो देखा उसे सीधा सपाट बयान कर दिया है.

1936 में जब प्रगतिशीलों की कॉन्फ्रेंस होने वाली थी तब कुछ लोग जिनमें सज्जाद जहीर भी थे इकबाल से मिले. तब उन्होंने आने से मना कर दिया लेकिन सोशलिज्म और उसके कामों की प्रशंसा की थी. इकबाल की मशहूर किताब ज़र्ब ए कलीम में एक नज़्म जिसका शीर्षक ‘कार्ल मार्क्स की आवाज’ है. उसमें इकबाल ने कार्ल मार्क्स और साम्यवाद पर आलोचना करते हुए कहा कि उनके यहां केवल समानता व न्याय का दिखावा/नुमाइश भर है. न्याय की स्प्रिट और जज्बा नहीं है. आध्यात्मिकता से खाली है वह सिर्फ भौतिकतावादी है.

पढ़िए इकबाल की वो नज़्म;

ये इल्मो हिकमत की मेहरबानी ये बहसो तकरार की नुमाइश

नहीं है दुनिया को अब गवारा पुराने अफकार की नुमाइश

तेरी किताबों में ए हकीम ए मआश रखा ही क्या है

खुतूत ए खमदार की नुमाइश मरीज़ ए कजदार की नुमाइश

जहान ए मगरिब के बुत कदों में, कलीसाओं में मदरसों में

हवस की खूं रेजियां छुपाती है अक्ल ओ अय्यार की नुमाइश

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