तबलीग़ी मरकज़ और मीडिया का विनाशकारी चेहरा

तबलीग़ी जमात की कुछ लोगों की गलती की आड़ में पूरी मुस्लिम आबादी को टार्गेट किया जा रहा है। मुस्लिम समुदाय को शामिल कर एक नकारात्मक माहौल तैयार किया जा रहा है। इस पूरे मामले पर दिल्ली पुलिस, दिल्ली सरकार की सभी व्यवस्थाएं चौपट नजर आती हैं। सरकार के पास एमर्जेंसी की सुविधाएं होनी चाहिए।

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क्या है तबलीग़ी जमात? आईए जानें!

-शहीद सुमन

तबलीग़ी जमात विश्व की सतह पर इस्लाम के सुन्नी मत से संबन्धित एक प्रचार आंदोलन है, जो मुसलमानों को मूल इस्लामी पद्धतियों की तरफ़ बुलाता है। जिसमें खास तौर पर धार्मिक तरीके, वेशभूषा, वैयक्तिक गतिविधियां आदि शामिल हैं। माना जाता है कि इस चिंतन वाले लोगों की संख्या 150 मिलियन से भी ज्यादा हैं। जो दुनियाँ के 195 देशों में अब तक अपने कामों का विस्तार कर चुका है।

इस आंदोलन की शुरुआत 1927 में मुहम्मद इलियास कांधलवी(पूरा नाम मौलाना मुहम्मद इलियास इब्न मुहम्मद इस्माइल कांधलवी देहलवी) ने भारत में किया था। यह एक इस्लामिक विद्वान थे, जिन्होंने 1925 में अब हरियाणा के मेवात प्रांत में तबलीग़ी जमात यानि (चलता-फिरता मदरसा) की स्थापना की।

वर्तमान में मेवात का यह क्षेत्र हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में बंटा हुआ है। इनमें मेव मुसलमानों की बड़ी आबादी है। कई इतिहासकार मेव को मीणा ट्राइब से जोड़कर देखतें है जबकि कुछ लोग राजपूतों से जोड़कर देखते है। मुझे ट्राइब वाली बात सच्चाई के ज़्यादा नज़दीक लगती है। लगभग मेव की बड़ी आबादी, अनुमानित 400 गाँव, ने इस्लाम क़ुबूल किया था। इस्लाम क़ुबूल करने के बावजूद बहुत से ऐसे रिवाज़ थे जो मेव समुदाय के अंदर चलन के तौर पर करते थे जो आज भी बदस्तूर आज भी जारी है। उस समय नस्ली एवं जातीय विभेद और छूत-अछूत वाली प्रैक्टिस सर चढ़कर बोल रहा था। बल्कि गौत्र-पाल आज भी प्रैक्टिस किया जा रहा है। मेव समुदाय के कई बुद्धिजीवियों का मानना है कि उस समय मेव में ‘घर वापसी’ भी शुरू हो चुकी थी। चूँकि हिन्दू धर्म को मानने वालों की तरह छूत-अछूत वाली प्रैक्टिस हो रही थी इसलिए इसको ख़त्म करने के लिए एक थाली में पांच-सात लोगों के खाने का रिवाज़ को बढ़ावा दिया गया। खाना खाने का ये रिवाज आज भी मुसलमानों में जारी है।

तबलीग़ी मरकज की बिल्डिंग जो बंगले वाली मस्जिद के नाम से मशहूर है

आज भी भारत में ऐसे हजारों गाँव है जहाँ दो-चार घर ही मुसलमान है। इन गाँवों में लोग हिन्दू रीति-रिवाज को फॉलो करने के लिए विवश है। यह लोग बेहद ग़रीब और दरिद्र क़िस्म के हैं, जिनको बहुत आसानी से घर वापसी का शिकार बनाया जा सकता है। मग़र तब्लीगी जमाअत एक ऐसी जमाअत है जिनकी पहुँच ऐसी आबादी में भी है जिसके जरिये इस्लाम की बेसिक शिक्षा रोज़ा और नमाज़ और दूसरे बुनियादी अनुशाशन से लोगों को जोड़ रखा है।

इस समय इसके अखिल भारतीय अध्यक्ष मौलाना मोहम्मद साद कांधलवी हैं मुहम्मद इलियास कांधलवी के पोते और मौलाना युसुफ कांधलवी के बेटे हैं। मौलाना युसुफ कांधलवी भी तबलीग़ी जमात के पूर्व अमीर रह चुके हैं। इस का मूल उद्देश्य आध्यात्मिक इस्लाम को मुसलमानों तक पहुंचाना और फैलाना था। आईए जमात के मुख्य उद्देश्य “छह उसूल” (कलिमा, सलात, इल्म, इकराम-ए-मुस्लिम, एख्लास-ए-निय्यत, दावत-व-तबलीग) हैं। इन्हीं छह उसूलों की दावत ये मुस्लिम समाज में देते हैं, इस जमात का मानना है कि अगर दुनिया के सभी मुसलमान इन छह बातों को गांठ बांध कर अमल करे तो दुनिया के अलावा आखिरत(इस्लाम के यूनिवर्सल कान्सैप्ट के मुताबिक ईश्वर जब दुनिया जब पूरी तरह से कयामत के जिरये खत्म कर देगा तो दुनिया में किए गए इन्सानों के हर कर्मों का हिसाब-किताब होगा जिसके बाद उसके कर्मो के मुताबिक स्वर्ग या नर्क में डाल दिया जाएगा) में भी कामयाब हो जाएगा। जो कामयाब होगा उसे जन्नत(स्वर्ग) में हमेशा के लिए डाल दिया जाएगा। इसलिए तबलीग़ी जमात का मानना है, कि दुनिया की दौड़-धूप से ज्यादा म्हत्वपूर्ण है मस्जिद के कार्यों से मुसलमानों को जुड़ना चाहिए और ये जितना मस्जिदों से जुड़ेंगे मतलब नमाज(जो मस्जिदों में पाँच वक़्त पढ़ी जाती है), जिक्र(नमाज पढ़ने के अलावा अल्लाह के नाम से जो दुआएं पढ़ी जाती हैं) और रोजा(जो रमजान के महीने में सभी मुसलमान दिन-भर भूखे रहते हैं) रखेंगे, जकात(अपने साल भर की कमाई का 2.50%) देंगे, हज(ज़िंदगी के किसी हिस्से में जब इतना पैसा हो जिसके द्वारा एक मक्का जाकर खाना-ए-काबा(अल्लाह का घर के नाम से मशहूर) का दर्शन करना जरूरी है। इनकी पूरी दौड़-धूप मुस्लिम महल्लों पर केन्द्रित होता है अर्थात ये मुसलमानों के अंदर समाज सुधार का कार्य करते हैं। ये दूसरे गाँव, शहर में मौजूद मस्जिदों का सामूहिक भ्रमण करते हैं, जिसमें एक साथ लगभग 10 से 15 लोगों का समूह होता है, इस दौरान ये लोग मोहल्ले की मस्जिद में ठहर जाते हैं और गाँव व मोहल्ले के मुसलमानों को नमाज पढ़ने के लिए मस्जिदों में बुलाते हैं। इस दौरान हर नमाज के बाद लोगों में मजहबी जागरूकता के लिए मजहबी बात-चित करते हैं। जिसमें कुछ क़ुरआन और हदीस के किस्से कहानी बयान की जाती है। इसी के साथ लोगों से इसी तरह के कामों के लिए उपस्थित लोगों से अपील करते हैं की हमें उनलोगों को भी अल्लाह की बात बताने के लिये कुछ समय का त्याग करना चाहिए जिनके पास अब तक इस्लाम के प्रति कोई जानकारी नहीं है। इन कामों के लिए इस जमात के कार्यकर्ता आम मुसलमानों से अपील करते हैं कि आप को महीने का 3 दिन, साल का 40 दिन के अलावा कम से कम जिंदगी में 120 दिन अर्थात 4 महीने का त्याग अल्लाह के रास्ते में करना होगा तभी आप दुनिया के साथ-साथ आखिरत में कामयाब हो पाएंगे। तबलीग़ी जमात के लोग इन्हीं कामों के लेकर देश-विदेश तक में मस्जिद से मस्जिद और मुसलमानों के मुहल्लों में घूमते रहते हैं। यह मुसलमानों को धार्मिक Symbolic मुसलमान बनाना चाहते हैं। जो कम से कम मुसलमानों को बाहर से दिखाई दे। जैसे अगर कोई मुसलमान हैं तो वो दाढ़ी बड़ी रखे, पांचों वक़्त नमाज की पाबंदी करे, मस्जिद में ज्यादा से ज्यादा समय जिक्र के साथ गुजारे, कुर्ता पैजामा और माथे पर टोपी जरूर लगाए।

इस्लाम धर्म को मानने वालों के दूसरे ग्रुप इस जमात से हमेशा विरोध रहा है। इस विरोध के कई वजह हैं जिसमें खास वजह इनकी रूढ़िवादी स्वभाव को लेकर है। इनपर कई आरोप लगते रहे हैं, दूसरे इस्लामिक ग्रुप्स और उसके इस्लामिक विद्वानों का कहना है कि फजायल-ए-आमाल (तबलीग़ी जमात की एक किताब है, जिनके लेखक मुहम्मद ज़करिया कांधल्वी सूफी हैं) में इस्लाम को लेकर कई विरोधाभाषी चीजें लिखी गईं हैं। जिसका इस्लाम के आखिरी पैगंबर मुहम्मद सल्ल॰ के जिंदगी से या उनके कथन से साबित नहीं होता है। इसके अलावा इस किताब को क़ुरआन व हदीस के मुक़ाबले ज्यादा अहमियत दी जाती है। खैर इस तरह के धार्मिक वाद-विवाद हर धर्म में होता है ये कोई नई बात नहीं है।

तबलीग़ी जमात के बारे में सरकारी पक्ष

पुलिस तबलीग़ी जमात के मरकज पर खास ध्यान रखती है एक उदाहरण के साथ इन्दिरा गांधी के जमाने में इंटेलिजेंस एजेंसी को एक बार तबलीग़ी जमात के बारे में पता लगाने कि ज़िम्मेदारी दी गई, उस समय के इंटेलिजेंस रिपोर्ट के मुताबिक तबलीग़ी जमात से देश को कोई खतरा नहीं है। उस समय के रिपोर्ट के मुताबिक कहा गया कि इसकी कहीं से कोई फंडिंग नहीं होती, ये अपने व्यक्तिगत संषाधन के जरिये अपना काम करते हैं। ये जमीन पर होने वाली कार्यों के बारे में चर्चा भी नहीं करती है, इनके दौरान या तो आसमान के ऊपर की चर्चाएं होती हैं जिसमें अच्छे कर्म करने वाले को खुदा का गिफ्ट जन्नत(स्वर्ग) और बुरे कर्म करने वाले को जहन्नम(नर्क) मिलेगा या फिर जमीन के नीचे की बात करता है जिसमें मरने के बाद कब्रों के अज़ाब की पमुखता से शामिल है। देश के जमीन पर हो रहे सामाजिक व राजनीतिक घटनाक्रम से तबलीग़ी जमात के लोगों का कोई संबंध नहीं है। सरकार का ये पक्ष इन्दिरा गांधी के जमाने का है, जब उन्होने अपने प्रधानमंत्री काल में देश की इंटेलिजेंश ब्यूरो को तबलीग़ी जमात के हर एक एक्टिविटी के जांच के आदेश दिये थे। बिल्कुल यही पक्ष दूसरे इस्लामिक ग्रुप भी इस जमात के बारे में रखते हैं और ये आरोप लागते हैं कि इन्हें मुसलमानों के राजनीतिक और सामाजिक उत्थान कोई मतलब नहीं है जीनके वजह से भारतीय मुसलमान राजनीतिक, सामाजिक और शेक्षणिक तौर पर पिछड़ेपन का शिकार है, जबकि इस्लामिक दृष्टिकोण के पिछड़ेपन के इन कारणों को हल करने का धेय मानता है। मुसलमानों के पिछड़ेपन में इस तरह के रूढ़िवादी मजहबी समूहों का बड़ा योगदान है।

वर्तमान में तबलीग़ी जमात भारतीय मीडिया के ट्रायल पर

भारत लॉक डाउन की स्थिति से गुजर रहा था, जिसकी शुरुआत 25 मार्च से शुरू हो चुकी थी। केंद्र सरकार की गंभीरता इस वायरस से निपटने के लिए सिर्फ भाषण तक ही रहा। मार्च का महिना पूरी दुनिया के देशों में कोरोना वायरस ने ज्यादा तबाही मचाई है। चीन को छोडकर बाकी देशों में इसी महीने में सबसे ज्यादा संक्रामण बढ़ा है। इन सब के बावजूद भारत सरकार और खास तौर पर बीजेपी शासित राज्यों में सबसे ज्यादा अनदेखी की गई है। सरकार इस पूरे मुद्दे में क्न्फ़्युजन की शिकार रही है। केंद्र और राज्यों की सरकारों के बीच सामंजश्य की कमी है। गृह मंत्री खामोश हैं। 13 मार्च को जारी एडवाइजरी के मुताबीक देश में कोई स्वास्थ्य आपातकाल नहीं है।

तबलीग़ी जमात की कुछ लोगों की गलती की आड़ में पूरी मुस्लिम आबादी को टार्गेट किया जा रहा है। मुस्लिम समुदाय को शामिल कर एक नकारात्मक माहौल तैयार किया जा रहा है। इस पूरे मामले पर दिल्ली पुलिस, दिल्ली सरकार की सभी व्यवस्थाएं चौपट नजर आती हैं। सरकार के पास एमर्जेंसी की सुविधाएं होनी चाहिए। एक रिपोर्ट के मुताबिक 22मार्च तक यहाँ चार से पाँच हजार लोग फंसे हुये थे। ज्यादातर लोगों को 22 मार्च की शाम लॉकडाउन खुलने के बाद अपने घरों को भेजा गया था। उसके अलावा 1500 के आस-पास जो दूर-दराज के लोग थे, वो फंसे रह गए जिसमें कुछ विदेशी भी शामिल हैं। जिसको लेकर मरकज के लोग लगातार लोकल प्रसाशन के संपर्क में बने रहे, लोगों को निकालने के अनुमति लेटर प्रशाशनों के टेबलों पर चक्कर काटती रही, लेकिन इस दौरान कोई हल नहीं हो सका। बात मीडिया तक पहुंची और पूरा मामला ही सांप्रदायिक हो गया।

देश वर्तमान मीडिया का साम्प्रदायिक रिपोर्टिंग का उदाहरण

तबलीग़ी मरकज़ और मीडिया का विनाशकारी चेहरा

मीडिया में तबलीग़ी जमात को लेकर जो ब्रेकिंग न्यूज चलाई गई, वो सीधा देश की सबसे बड़ी अल्पसंख्यक आबादी को टार्गेट कर रहा था। इस तरह देश की स्ट्रीम मीडिया ने कोरोना वायरस को मुसलमान साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, और भारत में इसे प्रशाशन की चुप्पी पर कोरोना जिहाद तक बोल दिया। जबकि इसी न्यूज के साथ वेश्नों देवी मंदिर में भी श्रद्धालुओं के फंसे होने की लगातार खबरें आ रही थी। लेकिन यहाँ श्रद्धालुओं के फंसे होने की खबरें चल रही थी और हजरत निज़ामुद्दीन के मरकज में छुपे होने की हेडलाइन चल रही थी। इसके अलावा स्वर्ण टेंपल, सिरडी के साईं मंदिर, उत्तराखंड के अलावा देश के कई तीर्थ स्थलों में हिन्दू तीर्थयात्री लॉकडाउन की वजह से फंसे थे। इन तीर्थ स्थानों में भी सैकड़ों विदेशी सैलानी थे। ऐसा भी नहीं है की मीडिया का इस्लामोफोबिक मानसिकता पहली बार सामने आया है, बल्कि हम ये कहें तो भारतीय मीडिया का लगभग सांप्रदायिकरण मुकम्मल हो चुका है। न्यूज़ नेशन के एंकर पत्रकार दीपक चौरसिया ने अपने 30 मिनट के लाइव शो में तबलीग़ी जमात को दो बार तालिबानी जमात कहा है। इसके बाद इस पैनल डिस्कशन में बैठे पैनेलिस्ट में से एक शोएब जामेई (इंडियन मुस्लिम फेडरेशन के अध्यक्ष) इस शब्द पर पहली आपत्ति दर्ज करते हुये कहा की दीपक भाई आपने तबलीग़ी जमात को तालिबानी जमात कहा, तो दीपक ने इस बात का लाइव इंकार कर दिया, जबकि दौबारा शोएब जमई साहब ने उन्हें कहा की हो सकता आपके जुबान से गलती से निकल गया हो। उसके बाद अगला सवाल वो शाहीन बाग को जोड़ते हुये कहते हैं कि देश के मुख्य धारा के खिलाफ क्यों होते जा रहे हैं मुसलमान? ज़ी न्यूज के एंकर सुधीर चौधरी अपने मशहूर डीएनए प्रोग्राम लगभग 30 मिनट के प्रोग्राम में “धार्मिक आज़ादी का सबसे बड़ा दुरुपयोग का विश्लेषण” के नाम से लाइव शो चलाया, जिसमें ये पूरी स्टोरी सुनाते हुये अपने वीडियो के लगभग बीच में जमात को पाकिस्तान से जोड़ देते हैं और यहीं नहीं रुकते बल्कि ये भी इल्जाम लगाया जाता है कि इन्हें भारत से कोई लेना-देना नहीं है, इससे जुड़े लोग पाकिस्तान परस्त हैं, सुधीर चौधरी आगे ये कहते हैं कि भारत में जो कुछ हो रहा है वो इन्हें पसंद नहीं आता, ये पाकिस्तान से सीखते हैं, प्रभावित होते हैं और भारत में जो कानून है ये उसे मानने से इंकार कर देते हैं, मौलाना साद जैसे लोगों कि सोच पाकिस्तान की सोच से बिलकुल मिलती जुलती है। फिर आगे पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान के कोरोना के वक्तव्य का सिर्फ एक लाइन बोलते हैं की कहते हैं कि पाकिस्तान के पास ईमान कि ताकत है और कोरोना वायरस से ईमान के ताकत के बल पर ही लड़ेगा। इस तरह भारतीय मीडिया का एक सबसे चीर-परिचित नाम रिपब्लिक भारत से जुड़े देश के सबसे महंगे और जाने-माने एंकर अर्णव गोस्वामी नाम भी इसी श्रेणी में आता है। ये भारतीय मीडिया जगत का सबसे खूंखार और चीखता-चिल्लाता नाम है। ये अपने लाइव शो “पूछता है भारत” में “राष्ट्र विरोधी जिद क्यों?” “कोरोना पर धर्म का खेल” हेडलाइन चालाता है, स्टुडियो में बुलाये मेहमान के साथ बदतमीजी के साथ चिल्लाते हुये जमात के प्रवक्ता को धमकी भरे स्वर में कहता है “आवाज कम, चिल्लाओ मत” आदि बेहूदे अंदाज में शब्दों का प्रयोग करता है। न्यूज-18 के तड़कते-भड़कते मशहूर एंकर आमिश देवगन को कौन नहीं जनता है। कई बार इन्हें अपनी नकारात्मक छवि के कारण लाइव शो में बेइज्जती का सामना करना पड़ता है। धर्म के नाम पर फेलाया अधर्म, कोरोना संक्रमित मानव बम, मौत बांटकर कहाँ गायब हो गया मौलाना, कोरोना का खलनायक, कोरोना आतंकवाद, कोरोना जिहाद आदि इस तरह की लाइव खबरों को पढ़कर देश की भोली-भाली जनता को क्या संदेश देना चाहते हैं। आपने तबलीग़ी जमात के सिलसिले में देश की जिम्मेदार पत्रकारिता मानी जानी वाली एनडीटीवी तक ने फेक न्यूज चलाया। थूक फेकने वाली पुरानी वीडियो को तबलीग़ी जमात से जोड़कर दिखाया। उसके अलावा भी कई भ्रामक खबरें जैसे आइसोलेशन वार्ड में नंगे घूमना, नर्स और डॉक्टर के साथ गंदे व्यवहार का आरोप  बिना किसी सत्यता के अपनी स्टुडियो में बैठकर जिम्मेदार एंकर उसको पढ़ते रहे। आखिर ऐसा क्यों हो रहा है जबकि ये सभी जिसका हमने नाम लिया है सभी देश के बड़े मीडिया संशाधन के साथ काम करने वाले चैनल हैं। जिनके पास ग्राउंड रूट से जुड़े हजारों लाखों न्यूज़ रिपोर्टर हैं, जो घटना वाली जगह पर जाकर ग्राउंड रेपोर्टिंग करते हैं। सीधे लाइव तस्वीरें दिखाते हैं। आखिर क्या वजह है जिनके बावजूद भी इनके द्वारा दिखाई गई खबरों की रिपोर्टिंग की सत्यता पर प्रश्न चिन्ह खड़ा हो जाता है?

लेकिन इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता है। इनके अलावा भी कई और भी हैं जिनको आप सरकारी एजेंडों के साथ खबरों को पढ़ते हुये देखते होंगे। यकीनन सरकारी एजेंडों को अवाम तक लाना भी इनकी एक बड़ी ज़िम्मेदारी है।

जिम्मेदार मीडिया का काम

देश की जिम्मेदार मीडिया को उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा ट्वीट के जरिये चेतावनी जारी करते हुए

वैसे लोकतान्त्रिक देशों में मीडिया को लोकतन्त्र का तीसरा स्तम्भ माना जाता है। ताकि ये जनता की आवाज बन सके, सरकार और जनता के बीच संवाद स्थापित कर सके, सरकार द्वारा जनता के लिए लाभान्वित योजनाओं को जनता तक प्रचारित कर सके, इसके अलावा सरकार द्वारा जनता के अहित में लिए गए फैसलों को तर्कसंगत गलत साबित करे। इसके अलावा सरकार के उन फेसलों से जनता को अवगत कराना जो इनके हित में हों। अगर सरकार के अच्छे फैसले होने के बावजूद जनता क्न्फ़ुजन का शिकार हो गई हो तो मीडिया की ज़िम्मेदारी और बढ़ जाती है, वे सरकार के सही फैसलों से जनता को अवगत कराये। वैसे मीडिया का तो काम ही सरकार से ऊंचे स्वर में सवाल पुछना है। लेकिन भारतीय मीडिया का साथ हमेशा उल्टा होता है, ये सरकार कि पॉलिसी के खिलाफ खड़े भुक्तभोगी जनता के सामने हमेशा ही शेर कि भांति सवाल खड़े करता है और विरोध कर रही जनता को ही कटघड़े में खड़ा कर विलेन साबित कर देता है। सरकार के सामने आते ही भीगी बिल्ली की तरह सॉफ्ट लहजा अपना लेता है और सरकार को ही हमेशा हीरो साबित करने में लगा रहता है। इंडिया टुडे के न्यूज एंकर राहुल कवल के उस इंटरव्यू को देंखे जिसमें अमित शाह से सीएए और एनआरसी के मुद्दे पर सवाल पुंछ रहें हैं। आपको साफ-साफ राहुल के चेहरे पर डर का भाव नजर आता है। पिछले दिनों प्रधानमंत्री का सामना कर रहे कई पत्रकार किस तरह से देश समस्या के अलावा उनके जीवन से जुड़ी प्रश्नों के उत्तर ढूंढते नजर आए। इसके लिए सरकार खुद बॉलीवूड एक्टर अक्षय कुमार को चुनते हैं जिनके सामने प्रधानमंत्री बैठकर उनके सवालों के जवाब देते हैं। फिर इन्हें देश के समाचार चैनलों के द्वारा राष्ट्रीय प्रसारण किया जाता है। और सबसे रोचक बात ये रही कि अब देश जिम्मेदार पत्रकारों में भी उतनी हिम्मत नहीं बची कि सरकार का सामना कर सके या सरकार में उतनी हिम्मत नहीं बची की स्वतंत्र पत्रकारों के आज़ाद सवालों के जवाब ठंडे मन मिज़ाज से दिया जा सके।

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