उन्होंने वेंटिलेटर का नाम ज़रूर सुना था , पर उसकी कार्यविधि से अनभिज्ञ थे। उनके अनुसार यह एक ऐसी मशीन होती है , जो साँस लेने में अक्षम मरीज़ों को साँस लेने में मदद करती है। वर्तमान कोविड-19 पैंडेमिक पर चर्चा के दौरान हम-दोनों फेफड़ों पर होने वाले इस रोग के गम्भीर दुष्प्रभाव से वेंटिलेटर पर बात करने लगते हैं।
हम पिछले लेख में यह जान चुके हैं कि सार्स-सीओवी 2 जैसे विषाणु किस तरह से फेफड़ों को क्षतिग्रस्त करते हैं , जिससे व्यक्ति को साँस लेने में मुश्किल होने लगती है। यह जानकारी आवश्यक है कि ऐसी दुःस्थिति अधिकांश रोगियों में नहीं उत्पन्न होती। 80 % फीसदी तक कोविड-संक्रमण मामूली अथवा मध्यम होते हैं। लगभग 15 % में गम्भीर लक्षण पैदा हो सकते हैं और 5 % में रोगी क्रिटिकल स्थिति में पहुँच सकते हैं। ज़ाहिर है कि वेंटिलेटर का प्रयोग इन 5 % में ही डॉक्टरों द्वारा सर्वाधिक होता है।
मेकैनिकल अर्थात् यान्त्रिक वेंटिलेटर एक मशीन है। एक ऐसा यन्त्र जिसके द्वारा रोगी के फेफड़ों में वायु का आवागमन सुनिश्चित किया जाता है। इसका प्रयोग डॉक्टर उन रोगियों में करते हैं , जो स्वयं साँस ले पाने में अक्षम हो रहे होते हैं। ऐसी परिस्थति में एक खोखली नली ( ट्यूब ) को रोगी की श्वासनली ( ट्रेकिया ) में मुँह द्वारा पहुँचाया और स्थित किया जाता है। फिर इस ट्यूब से वेंटिलेटर मशीन को जोड़ दिया जाता है। यह मशीन सुनिश्चित कराती है कि रोगी के फेफड़ों में ऑक्सीजन सुचारु रूप से पहुँचे और कार्बन डायऑक्साइड को वहाँ से निकाला जा सके।
सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि मेकैनिकल वेंटिलेशन करता क्या है ? मेकैनिकल वेंटिलेटर पर किसी रोगी को डॉक्टर क्यों डालते हैं ? ऑक्सीजन पहुँचाने व कार्बन डायऑक्साइड हटाने के लिए इस मशीन की ज़रूरत बीमार फेफड़ों को क्यों पड़ती है ? वेंटिलेटर का सबके महत्त्वपूर्ण प्रभाव रोगी का श्वसन-कार्य घटाना है। जी हाँ , श्वसन भी एक कार्य है। उसमें भी श्रम लगता है।
हम-आप साँस लेते हैं , लेकिन साँस लेने में की गयी मेहनत को महसूस नहीं करते। क्यों ? क्योंकि हम स्वस्थ हैं और साँस लेने में हमें कोई मेहनत महसूस नहीं होती। लेकिन जिन्हें एआरडीएस ( एक्यूट रेस्पिरेटरी डिस्ट्रेस सिंड्रोम ) होता है , उन्हें यह मेहनत महसूस होती है। साँस का असहज ढंग से महसूस न होना स्वास्थ्य का लक्षण है। यह सामान्य बात है। पर साँस लेते समय असहज होना और साँस आराम से न ले पाना रोग का लक्षण हो सकता है। इस लक्षण को डॉक्टर मेडिकल-भाषा में डिस्निया कहते हैं। तेज़ साँस लेने को टैकिप्निया कहा जाता है।
एक्यूट रेस्पिरेटरी डिस्ट्रेस सिण्ड्रोम ( एआरडीएस ) अनेक रोगों के दुष्प्रभाव के कारण फेफड़ों की कार्यक्षमता को घटा सकता है। यह किसी एक रोग का नाम नहीं है , यह अनेक गम्भीर रोगों के कारण बीमार पड़े फेफड़ों की अन्तिम स्थिति है। एआरडीएस गम्भीर न्यूमोनिया के कारण भी हो सकता है , रक्त व शरीर में व्यापक संक्रमण ( सेप्सिस ) के बाद भी। अत्यधिक जल जाने के कारण भी एआरडीएस की स्थिति पैदा हो सकती है , अनेक दवाओं के घातक दुष्प्रभाव भी इसे उत्पन्न कर सकते यहीं। साँस ले पाने में अक्षमता ( डिस्निया ) , तेज़ी से साँस लेना ( टैकिप्निया ) , तेज़ हृदय-गति ( टैकीकार्डिया ) , चक्कर आना ( डिज़ीनेस ) एआरडीएस के महत्त्वपूर्ण लक्षण होते हैं। कई बार खाँसी और सीने में दर्द भी पैदा हो सकते हैं।
एआरडीएस की सबसे ख़ास बात इसका तेज़ी से विकसित होना है। इसे पैदा करने वाली बीमारी कोई भी हो , अड़तालीस घण्टों में यह उत्पन्न हो सकता है और फिर रोगी की स्थिति गम्भीर से गम्भीरतर होती जाती है। फेफड़ों के भीतर एल्वियोलाई और रक्तवाहिनियों की दीवारों के नष्ट होने से और वहाँ द्रव द्रव भरने से रोगी को साँस लेने पर भी ऑक्सीजन ठीक से नहीं मिल पाती। वह थकने लगता है और थकने पर और कम साँस ले पाता है। कम साँस लेने से उसके ख़ून में ऑक्सीजन की मात्रा और घटने लगती है। ऑक्सीजन की मात्रा घटने की इस स्थिति को हाइपॉक्सीमिया कहा जाता है।
एआरडीएस के कारण साँस ढंग से न ले पाना। इसके कारण ख़ून में गिरता ऑक्सीजन-स्तर। अंगों को ऑक्सीजन कम मिलना। कम ऑक्सीजन के कारण श्वसन-मांसपेशियों का शिथिल पड़ना। इससे साँस और क्षीण पड़ना। इसके कारण ख़ून में ऑक्सीजन का स्तर और अधिक गिर जाना। अगर यह चक्र चलता गया , तब आगे क्या होगा ? ज़ाहिर है रोगी प्राणों से हाथ धो बैठेगा।
यहीं मेकैनिकल वेंटिलेशन का महत्त्व है। यहीं यान्त्रिक वेंटिलेटर अपनी रक्षक भूमिका निभाता है। उसके द्वारा थक रहे व थक चुके फेफड़ों को आराम मिलता है। साँस फेफड़ों में पहुँचाने का काम यह मशीन करती है। रोगी को थकान से मुक्ति मिल जाती है , किन्तु रोग से नहीं। वेंटिलेटर लगाने से उसका एआरडीएस ठीक नहीं होता। न ठीक होती है वह बीमारी जिसके कारण उसे एआरडीएस हुआ था। उनके लिए डॉक्टरों को दवाओं द्वारा अलग से इलाज करना पड़ता है।
अब सार्स-सीओवी 2 के संक्रमण कोविड-19 में वेंटिलेटर के प्रयोग-महत्त्व को समझिए। किसी रोगी को इस विषाणु का गम्भीर संक्रमण हुआ। वह क्रिटिकल हो गया। उसे विषाणु-जन्य न्यूमोनिया हुआ और उस न्यूमोनिया के कारण वह एआरडीएस में एक या दो दिन में पहुँच गया। अब इस व्यक्ति की जान बचाने के लिए डॉक्टर उसे वेंटिलेटर पर डालते हैं ताकि श्वसन-श्रम से उसे बचा सकें। साथ में कुछ जीवन-रक्षक व सहायक दवाओं का प्रयोग करते हैं। वेंटिलेटर की ट्यूब व रोगी के मुँह-गले में जमा हो रहे बलगम को सक्शन-विधि से खींच कर हटाते हैं। कोई विशिष्ट शोधसम्मत एंटीवायरल अब-तक उनके पास है नहीं। पर फिर भी जितनी भी उन्हें जानकारी प्राप्त है , उसके अनुसार वे कोविड-19-रोगी के प्राण बचाने में जुट जाते हैं।
मेकैनिकल वेंटिलेशन की अपनी समस्याएँ भी हैं। इसके कारण भी फेफड़े चोटिल हो सकते हैं। लम्बे समय तक वेंटिलेटर पर रहने के कारण ख़ुद इस मशीन के कारण भी न्यूमोनिया हो सकता है। इस स्थिति को वेंटिलेटर-एसोशियेटेड-न्यूमोनिया ( वीएपी ) कहते हैं। डॉक्टरों के लिए इन सबसे भी जूझना होता है। मशीन से मनुष्य के प्राण बचाने हैं , मशीन से भी मनुष्य को यथासम्भव बचाना है।
वेंटिलेटर से रोगी के बीमार फेफड़े ठीक नहीं होते। वेंटिलेटर बीमार फेफड़ों को ठीक होने की मोहलत देता है। ठीक उन्हें दवाएँ करती हैं या फिर शरीर स्वयं। पर इस स्वास्थ्य-लाभ के लिए भी तो समय चाहिए न ! वह समय वेंटिलेटर थके बीमार फेफड़ों को उपलब्ध कराता है। वह फेफड़ों का काम करता है , उनके श्रम में हिस्सेदारी करता है।
मशीन हाँफते मनुष्य के साथ हिस्सेदारी करे , इसके उदाहरण आपको दुनिया में कम मिलेंगे। वेंटिलेटर उन श्वासदायी मशीनों में अग्रणी है। धन्यवाद दीजिए उन श्रमशील मशीन-निर्माताओं और विवेकवान् मशीन-प्रयोक्ताओं का , जिन्होंने अपना ख़ून-पसीना एक करके न जाने कितनी ही जानें बचायी हैं।