उन्होंने नहीं देखा है अभी
बस्तियों को उजड़ते हुए
लोगों को कराहते हुए
गिद्धों को लाशें नोचते हुए
और शहरों को श्मशान बनते हुए
उन्होंने नहीं सुना है अभी
किसी यतीम का रूदन
किसी विधवा का शोक गीत
किसी मां का ख़ामोश कोलाहल
और युद्ध के बाद छायी मुर्दा शांति का स्वर
वे अनभिज्ञ हैं अभी इस बात से
कि दरअसल ‘युद्ध’ किसे कहते हैं?
उन्होंने समझ रखा है युद्ध को
फ़ेसबुक पर टिप्पणी करने जितना आसान!
बस,
वे अब नहीं चाहते शांति वार्ताएं
उनके नज़दीक ज़रूरी है युद्ध –
भले ही फूंक दिए जाएं दो मुल्क,
मार दिए जाएं दोनों जानिब सीमा पर खड़े सैकड़ों जवान,
उजाड़ दिए जाएं सुहाग,
ढहा दिए जाएं विश्वविद्यालय,
राख कर दिए जाएं संविधान,
छीन ली जाएं बच्चों की मुस्कानें,
और अगर फिर भी न पहुंचे कलेजे को ठंडक
तो बिछा दी जाए पूरी ज़मीन पर बारूद
और सुलगाई जाए आग!
लेकिन क्या उनका गुमान है
कि इसके बाद भी बचे रहेंगे वे
और उनका मोबाइल फ़ोन,
फ़ेसबुक पर स्टेटस अपडेट करने के लिए?
शांति की कामना करने वालों को गालियां देने के लिए?
अगर ऐसा हो
कि बचे रहें वे लोग
और उनके मोबाइल फ़ोन
और उनकी आंखें
तो हां, ‘युद्ध’ ज़रूरी है
एक पूरी पीढ़ी को
शांति का मतलब समझाने के लिए।
– तल्हा मन्नान
(लेखक अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के शिक्षाशास्त्र विभाग में स्नातक के छात्र हैं।)