कर्नाटक में कांग्रेस की जीत के मायने

यह जीत कांग्रेस के लिए ख़ास है। 1985 के बाद कर्नाटक में कांग्रेस की यह सबसे बड़ी जीत है। इस जीत से कांग्रेस को ख़ुद सीखने की ज़रूरत है। कर्नाटक और हिमाचल दोनों राज्यों ने साफ़ संदेश दिया है कि जनहित के मुद्दों से, स्थानीय मुद्दों पर केंद्रित रह कर भी नफ़रत की राजनीति को परास्त किया जा सकता है। लेकिन इसके लिए ज़रूरी है कि संगठन की आंतरिक गुटबंदियों से निपटते हुए यह लड़ाई‌ सामूहिकता के साथ लड़ी जाए।

0
413

कर्नाटक में कांग्रेस की जीत के मायने

अब्दुल रक़ीब नोमानी

13 मई 2023 को कर्नाटक विधानसभा चुनाव के परिणाम घोषित हुए, जहां पर बीजेपी की नफ़रत की राजनीति को परास्त करते हुए कांग्रेस ने राज्य की 224 विधानसभा सीटों में से 135 सीटों पर जीत के साथ सरकार बना ली है। बीजेपी ने 66 और जेडीएस ने 19 सीटों पर जीत दर्ज की। बीते शनिवार कांग्रेस नेता सिद्धारमैया ने कर्नाटक के नए मुख्यमंत्री और डीके शिवकुमार ने उपमुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली।

पिछले छः महीनों में कांग्रेस ने केंद्र में बैठी बीजेपी से दो राज्यों की सत्ता को अपनी मज़बूत लड़ाई से छीना है। जिस तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में बीजेपी ने कर्नाटक में ज़ोरदार चुनाव प्रचार किया और उसके बाद भी कांग्रेस ने कर्नाटक में बड़ी जीत हासिल की, इसने एक तरह से कांग्रेस कार्यकर्ताओं में नई जान फूंकने का काम किया है।

बीजेपी की तरफ़ से मुस्लिम आरक्षण को ख़त्म करने, बजरंग बली, द केरला स्टोरी, हिजाब, यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड और ना जाने क्या-क्या मुद्दे उछाले गए ताकि नफ़रत की राजनीति करके कर्नाटक जीत सके, लेकिन दाद देनी होगी कांग्रेस नेतृत्व की जो स्थानीय मुद्दों के साथ राज्य में व्याप्त भ्रष्टाचार के मुद्दों पर डटी रही। यह जीत कांग्रेस के लिए ख़ास है। 1985 के बाद कर्नाटक में कांग्रेस की यह सबसे बड़ी जीत है। इस जीत से कांग्रेस को ख़ुद सीखने की ज़रूरत है। कर्नाटक और हिमाचल दोनों राज्यों ने साफ़ संदेश दिया है कि जनहित के मुद्दों से, स्थानीय विषयों पर केंद्रित रह कर भी नफ़रत की राजनीति को परास्त किया जा सकता है। लेकिन इसके लिए ज़रूरी है कि लड़ाई‌ सामूहिकता के साथ लड़ी जाए, जिसको कांग्रेस ने कर्नाटक में करके दिखाया है। जो बीजेपी जो कल तक कांग्रेस मुक्त भारत की बात कर रही थी उसके हाथों से धीरे-धीरे राज्यों की सत्ता निकलती जा रही है।

अभी राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने हैं जिसमें मौजूदा वक़्त में छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस की ही सरकार है। 2018 में जब इन तीनों राज्यों में चुनाव हुए थे तो कांग्रेस ने तीनों जगह जीत हासिल की थी। लेकिन कुछ दिनों के बाद बीजेपी ने मध्य प्रदेश में जोड़-तोड़ की राजनीति करके कांग्रेस के हाथों से मध्य प्रदेश को हथिया लिया था। वहां दोबारा सत्ता में वापसी कांग्रेस के लिए बड़ी चुनौती साबित होगी।

इसके अलावा जिस तरह से राजस्थान में कांग्रेस पार्टी के भीतर गुटबाज़ी हो रही है, ये किसी भी तरह से कांग्रेस के लिए ठीक नहीं है। आए दिन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और पार्टी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट के गुटों के बीच आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला जारी है। जबकि कांग्रेस आलाकमान की तरफ़ से बार-बार कहा गया है कि पार्टी के लिए गहलोत और पायलट दोनों ज़रूरी हैं, लेकिन अब कांग्रेस नेतृत्व को सोचना होगा कि सिर्फ़ यह कहने भर से काम नहीं चलने वाला है। बीच का कोई रास्ता निकालना ही होगा ताकि राज्य के भीतर फल-फूल रही गुटबाज़ी को रोका जा सके। क्योंकि बीजेपी के ख़िलाफ़ लड़ाई को सामूहिकता से लड़ने के लिए आंतरिक गुटबाज़ी ख़त्म करना ज़रूरी है। वरना आने वाले समय में पार्टी के लिए यह बहुत ही नुक़सानदायक साबित होने वाला है। आजकल सचिन पायलट ख़ुद अपनी ही पार्टी की सरकार के ख़िलाफ़ जन संघर्ष यात्रा पर निकले हुए हैं जिनका कहना है कि हमारी सरकार जिस भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ आई थी, जिन चीज़ों को हमने चुनाव के भीतर मुद्दा बनाया था, मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की सरकार उन पर कार्रवाई नहीं कर रही है। कांग्रेस आलाकमान को जल्द ही दोनों को बिठाकर इसका हल निकालना होगा। वरना यह गुटबाज़ी ख़ुद कांग्रेस को हरा देगी, बीजेपी को उनसे लड़ने की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी।

ऐसा भी नहीं है कि कांग्रेस के भीतर सिर्फ़ राजस्थान में गुटबाज़ी है। छत्तीसगढ़ में भी कुछ दिनों पहले तक वहां के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और सरकार में मंत्री टी एस सिंह देव के‌ बीच गुटबाज़ी देखने को मिल रही थी। क्योंकि टी एस सिंह देव का कहना था कि कांग्रेस आलाकमान ने वादा किया था कि ढाई-ढाई साल दोनों नेता छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रहेंगे। लेकिन भूपेश बघेल ने इस मौक़े को अच्छे से भुनाया और विकास कार्यों को करते रहे, जिसके बाद वे आलाकमान के बेहद पसंदीदा हो गए। अब मुख्यमंत्री बदलने की बात बहुत दूर छूट गई है। लेकिन छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के लिए राहत भरी बात यह है कि राजस्थान की तरह यहां अपने में ही विपक्षी के तरह दिखती गुटबाज़ी छत्तीसगढ़ में स्थानीय नेताओं के बीच देखने को नहीं मिल रही है। कांग्रेस ने भी साफ़ भी कर दिया है कि भूपेश बघेल के चेहरे के साथ ही पार्टी विधानसभा चुनाव में जायेगी। लेकिन कांग्रेस आलाकमान को टी एस सिंह देव को भी अपने भरोसे में रखना होगा, क्योंकि छत्तीसगढ़ के मामले में टी एस देव को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता।

आज के वक़्त में नफ़रतों से मुक़ाबला आंतरिक गुटबाज़ी को ख़त्म किए बग़ैर नहीं किया जा सकता है। वहीं अगर मध्य प्रदेश की बात करें तो वहां पर तस्वीर साफ़ है कि कांग्रेस प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ के चेहरे के साथ चुनाव में उतरेगी, जो लगातार प्रदेश की राजनीति में मज़बूती के साथ सक्रिय रहे हैं। कमलनाथ जोड़-तोड़ की राजनीति से सत्ता छीने जाने के बाद से ही बड़ी मजबूती के साथ प्रदेश में मेहनत कर रहे हैं। उन्हें पार्टी के दिग्गज नेता व पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह का भी साथ मिल रहा है।

आगामी चुनावों को मद्देनज़र‌ रखते हुए कांग्रेस आलाकमान को सबसे पहले बैठकर इन राज्यों में संगठन की आंतरिक कलह को ख़त्म करना होगा, कर्नाटक से सीखते हुए चुनाव प्रचार के दौरान इन राज्यों में ज़मीनी मुद्दों को उठाना होगा और स्थानीय नेतृत्व को सामूहिक रूप से साथ लेकर चलना होगा। कर्नाटक की राजनीति में भी कांग्रेस के भीतर दो गुट सामने थे। एक पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया का और दूसरा प्रदेश अध्यक्ष डीके शिवकुमार का। लेकिन दोनों गुटों को जिस तरह से कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने हैंडल किया, ये अपने आप में बहुत बड़ी बात है। इसका श्रेय वहां के प्रभारी और राज्यसभा सदस्य रणदीप सुरजेवाला को भी जाता है जो पार्टी शीर्ष नेतृत्व और प्रदेश के दोनों दिग्गज नेताओं के बीच लगातार समन्वय बनाते रहे। गुटबाज़ी का असर जनता पर न पड़े, इसके लिए सुरजेवाला डेढ़ महीने से कर्नाटक में डेरा डाले हुए थे, जिसका फ़ायदा कर्नाटक के चुनाव परिणाम में देखने को भी मिला।

कर्नाटक विधानसभा चुनाव की सबसे बड़ी बात यह रही कि कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व भी चुनाव को लेकर पहले से ही पूरी तरह सक्रिय था। यहां तक कि टिकट बंटवारे को लेकर कांग्रेस ने दिल्ली हेडक्वार्टर्स में भी कई बैठकें कीं ताकि ज़्यादा से ज़्यादा जीतने वाले उम्मीदवारों को टिकट दिया जा सके। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की सक्रियता देखकर लग रहा था कि कांग्रेस कर्नाटक चुनाव को लेकर कितनी गंभीर है। आज इसी का फ़ायदा परिणाम में भी दिख रहा है। इसी तरह चुनावी प्रचार में भी कांग्रेस ने पूरी तरह से जान झोंक दी थी। पार्टी के प्रदेश स्तर के नेताओं के साथ राष्ट्रीय स्तर के नेता सभी जनहित के मुद्दों के साथ मैदान में थे। आगे भी कांग्रेस को इसी तरह मज़बूती के साथ गुटबाज़ी ख़त्म कर के लड़ना होगा तभी जाकर बीजेपी की नफ़रत पर आधारित राजनीति को परास्त किया जा सकता है।

(लेखक पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी, हैदराबाद के छात्र हैं।)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here