देश की वर्तमान स्थिति: हम क्या करें ?

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देश की वर्तमान स्थिति पर बहुत खुले ज़ेहन से सोचने की ज़रूरत है, और मौजूदा माहोल में यही ‘खुलापन’ बहुत मुश्किल है | वास्तव में हम ‘संक्रमण काल’ से गुज़र रहे हैं,खुले मिज़ाज व दिल वाले भी संक्रमित हो रहे हैं| एक ऐसा माहौल जहां ख़ुशगवार मूड में हम अपने मन की बात साझा कर सकें, ख़त्म होता जारहा है | इस क़दर घुटन बढ़ती जा रही है कि ठंडे मन से कुछ सोचना-बोलना भी मुश्किल हो रहा है | ख़बरिया चैनल्स और सोशल मीडिया ने इस घुटन में इज़ाफ़ा किया है | न्युज़ रूपी प्रोडक्ट बेचने के लिए एंकर्स की भड़काउ बाज़ारी-इश्तिहारी ज़बान और फेसबुक रूपी शेयर-बाज़ार में उछाल के लिए सस्ते-जज़्बाती पोस्ट ! हां,दावा और नारा दोनों तरफ ‘जागरुकता’ का है| नतीजा जागरुक लोग भी ‘संक्रमित’ होकर बीमार पड़ रहे हैं | ऐसे में वाक़इ खुले ज़ेहन व दिल से सोचना बहुत मुश्किल है | अब वतन नहीं संप्रदाय सब से बड़ा ख़ुदा है | सलेक्टिव ख़ामोशी और सलेक्टिव चीख़-व-पुकार…कुछ तो करना होगा,क्या करना होगा,इस पर सोच की लहरें भी ठिठुर जाती हैं…सब से आसान है इंस्टैंट विरोध-प्रतिशोध का हंगामा खड़ा करना | यदि mob lynching की घटनाएं अचानक फूटे गुस्से का नतीजा होतीं तो फिर इंस्टैंट विरोध द्वारा हम अपना ग़म व गुस्सा ज़ाहिर कर के क्रिमिनल्स को पकड़ने और सज़ा देने का सरकार से मुतालबा करते, इसके लिए प्रोटेस्ट की सिरीज़ चलाते..मगर ये कोइ अचानक से फूटा गुस्सा नहीं है…ये सभी सुनियोजित-प्रायोजित घटनाएं हैं…एक ‘नफरती विचारधारा’ ने वर्षों नफरत की खेती की है,अब वो सामाजिक-राजनीतिक तौर पर देश की बड़ी सच्चाइ है….वो डीप रूटेड है…इसे समझना होगा…हम ग़फलत में सोते रहे और इस नफ़रती विचारधारा के लोग योजनाबद्ध एंव सुसंगठित तरीक़े से काम करते रहे…उन्होंने अपनी विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए ढेरों एनजीओज़ एंव आउटफिट्स स्थापित किए…लाखों स्कूल्स एंव संस्थान खोले…पत्र-पत्रिकाएं जारी कीं..साहित्य एंव कला के मैदानों का भरपूर इस्तेमाल किया गया…सूचना प्रौद्योगिकी की ताक़त झोंकी गइ…बच्चों के टेक्स्टबुक डिज़ाइन किए गए…नइ नस्ल की ज़ेहनी तब्दीली के लिए पूरा पैकेज बनाया,उसे पूरी कार्यकुशलता के साथ लागू किया…पढ़े-लिखे औसत ज़ेहन को ज़हर-आलूद करने के लिए शाखाएं एंव कार्यशालाएं चलाइं….मज़हब को उसकी रूह से काट कर मज़हबी अफीम का पुड़िया तैय्यार करके जज़्बाती लोगों को ये पुड़िया चटाया और फिर इन बदमस्त लोगों को राजनीतिक स्वार्थ के लिए भरपूर प्रयोग किया गया…संस्कृति और संप्रदाय को ‘ख़ुदा’ बना दिया गया…संस्कृति और संप्रदाय के कुछ सिम्बल गढ़े गए,इस पर जीने-मरने की क़सम खिलवाइ…दीर्घ कालीन राजनीतिक हित के लिए दुश्मन गढ़े गए और फिर ‘सब मिल कर भीतरी दुश्मन को कुचलो’ का चैलेंज पेश किया गया..जर्मनी,चाइना,रूस आदि देशों का अपने भीतरी दुश्मन को कुचल कर विकास यात्रा आगे बढ़ाने की कहानियां बनाइ एंव प्रचारित की गइं…क्या क्या ना किया गया…और इसके मुक़ाबले के लिए अधिकतर विधवा-विलाप, खाए-पिए-अघाए शहरी लिबरल लोगों का बड़े शहरों के एक मख़सूस स्थान पर विरोध प्रदर्शन, मेमोरंडम,काली पट्टी और नारेबाज़ी….अब एक और इज़ाफा सोशल मीडिया पर…

करना क्या है…? इस संबंध में मेरे विचार…

1.मुस्लिम युवाओं को अच्छे ढंग से समझाया जाए कि ये घटनाएं सुनियोजित-प्रायोजित हैं…इसका उद्देश्य मुसलमानों को ख़त्म करना नहीं है,ये जिनोसाइड नहीं है..इस तरह मुस्लिम समुदाय को नेस्त-नाबूद नहीं किया जा सकता या किसी भी सकारात्मक विचारधारा और एक जीवन दर्शन रखने वाले समूह को इस तरह कभी समाप्त नहीं किया जा सकता….इस प्रकार का कायराना कुकृत्य वास्तव में मुसलमानों के अंदर ख़ौफ की फिज़ा पैदा करने के लिए किया जाता है ताकि हमारी सकारात्मकता डिस्टर्ब हो और हम सही डायरेक्शन में आगे ना बढ़ पाएं,सारी ऊर्जा इसी चिल्ला-पौं में ख़र्च हो…ऐसी हालत में जो मुस्लिम युवा सोशल मीडिया पर डर बेच रहे हैं,वे जाने-अनजाने फासीवादियों के हित में काम कर रहे हैं…कोइ घटना शेयर करते हुए या कहीं कुछ कमेंट करते हुए होश में रहना बहुत ज़रूरी है कि इससे फायदा किसको होगा…इसके लिए मज़हबी-सामाजिक संगठनों को कैम्पेन चला कर काम करना चाहिए..और मुस्लिम संगठनों का इंतिज़ार क्यों? प्रबुद्ध धार्मिक-सामाजिक लोगों को मुस्लिम युवाओं के बीच सतत् जनसंपर्क अभियान चलाना चाहिए..बहुत देर हो चुकी,तब्दीलियों का मौसम-ए-बहार रमज़ान हमने यूं ही गुज़ार दिया..मुस्लिम युवा जज़्बाती हो रहे हैं,कुछ प्रोफेश्नल सामाजिक कार्यकर्ता और कुछ मिल्ली-जज़्बाती शायरी के बल पर अपनी दुकान चमकाने वाले लोग रात-दिन अपने फायदे के लिए जज़्बात का सौदा कर रहे हैं,दर्द बांटने के नाम पर युवाओं को मरीज़ बना रहे हैं,और ये इन्फेक्शन फैल रहा है….साज़िश रचने वाले अट्टहास कर रहे होंगे कि वे कामयाब होते जा रहे हैं..
2) फ़ासीवाद का भारतीय संस्करण बहुत पुख़्ता, क्लीष्ट और डीप रूटेड है…इसलिए भारतीय फासीवाद, एक वैचारिक-बौद्धिक चैलेंज भी है..इसने मज़हब का आवरण ओढ़ रखा है..मज़हब को उसकी रूह ‘ख़ुदापरस्ती और इंसान-दोस्ती’ से काट कर बड़ी दानिशमंदी (बुद्दिमता) के साथ संस्कृति और मातृभूमि को ‘मज़हब’ से जोड़ दिया गया है…इसलिए फासीवाद का विरोध करते हुए शब्द,वाक्य और नारे ऐसे हों जो मज़हब और मज़हबी जज़्बे पर चोट ना हो…उदाहरणस्वरूप ‘गो रक्षा’ पर कोइ ऐसी बात ना हो जिससे मज़हबी जज़्बा चोटिल हो..चिढ़ की मानसिकता पैदा हो…सोशल मीडिया और वाट्सएप जैसे खुले मंच पर हमारे यूवक ईंट का जवाब पत्थर से देने के लिए रात-दिन दिशाहीन और बुद्धिहीन विरोध-प्रदर्शन में लगे हैं,जिस्से केवल चिढ़ की मानसिकता डेवलप हो रही…ये अप्रोच और रवय्या एंटी-इस्लामिक भी है जिसका कोइ ख़याल ‘मिल्ली वीरों’ को नहीं है!

मौजूदा हालात में कुछ दीर्घकालिक और लघुकालिक काम….

1.नफरती और नाकारात्मक विचारधारा का मुक़ाबला पूरी सकारात्मकता और ख़ैरख़्वाही के साथ किया जाए….यदि वे हिन्दू समुदाय की एक बड़ी आबादी को,मुसलमानों से काट कर उनके ज़ेहनों को ज़हर-आलूद करने की कोशिश कर रहे हैं तो हमारी बड़ी कोशिश सभों को साथ लेकर ‘ख़ुदा-परस्ती पर आधारित,न्यायप्रिय,खुशहाल,पुरअमन लोकतांत्रिक समाज’ की स्थापना होनी चाहिए…देश के बहुलतावादी चरित्र का सम्मान करते हुए सभों को साथ लेकर चलने का जज़्बा और प्लान…हमारी संस्थाओं और संगठनों में सभों की भागीदारी हो…वे अपनी साज़िश के तहत हिन्दू बहूसंख्यक समाज को,मुसलमानों से जितनी दूर करने की कोशिश करें,हम उतना क़रीब होने और हिन्दू समाज को अपने से क़रीब करने का प्लान करें…हमारा जाना-अनजाना अलगाववाद,उनके मंसूबों के लिए बड़ा सहायक सिद्ध होता है…
2)देश के मेन-स्ट्रीम सामाजिक-सांस्कृतिक एंव राजनैतिक हलचल और गतिविधियों में हमारी अच्छी भागिदारी हो…ये हमारा मुल्क और वतन है,इसके विकास और मज़बूती की फिक्र,मुस्लिम संगठनों की फिक्र और चिंता बने,केवल लिप-सर्विस नहीं…
3)गहरी इस्लामी फिक्र के साथ (केवल मिल्ली हमदर्दी नहीं)मुस्लिम चेहरे मेनस्ट्रीम पोलिटिकल एक्टिविज़्म में नज़र आएं,ऐसी मंसूबाबंदी हो….
4)नइ नस्ल में कुरआनिक विस्डम से लैस एक बड़े बौद्धिक वर्ग की तैय्यारी की दीर्घकालिक योजना जो विभिन्न इशूज़ पर सही रहनुमाइ कर सके,बेहद ज़रूरी है,जिससे मिल्ली संगठन आमतौर पर ग़ाफिल हैं…..नइ नस्ल में समुदायिक हमदर्दी में चीख-चिल्ला करने वाले विस्डमलेस जज़्बाती युवाओं की भीड़ बढ़ती जारही है,सोशल मीडिया से इसका सहज अंदाज़ा लगाया जा सकता है…
5)किसी मुद्दे और घटना को महज़ ‘मिल्लू इशू’ ना बनाया जाए,इसे ‘नैश्नल-ह्युमन इशू’ की हैसियत से देखा जाए….किसी मानवीय त्रास्दी पर चाहे वो ‘लिंचिंग’ हो या ‘डिस्क्रिमिनेशन’ सभों को साथ लेकर न्याय की लड़ाइ लड़ी जाए…हमारे दुख-सुख साझा हों…हम केवल पहलू ख़ान और जुनैद के लिए खड़े ना हों बल्कि झारखंड,छत्तीसगढ़,उड़ीसा और देश भर में दलितों,आदिवासियों और कमज़ोरों-मज़लूमों के लिए खड़े हों…
6)केवल प्रतिकात्मक विरोध-प्रदर्शन और प्रतिरोध नहीं,सामाजिक न्याय और लोकतांत्रिक समाज की स्थापना के लिए न्याय की लम्बी लड़ाइ के सिल्सिले में योजना और प्रतिबद्धता की ज़रूरत है…इंसटैंट विरोध प्रदर्शन फिर ख़ामोशी,खीज पैदा करती है…ऐसा लगता है जैसे कुछ लोग प्रोफेश्नल प्रोटेस्टर्स पैदा हो गए हैं,एक घटना पर चिल्लाने के बाद दूसरी घटना का इंतिज़ार किया जारहा है….
7)किसी मानवीय त्रास्दी पर तमाम धार्मिक संगठनों,संस्थानों और बड़ी शख़्सियतों को सामुहिक तौर पर आगे आना चाहिए जैसा कि रामगढ़ की त्रासदी पर पहली बार नज़र आया…
8)खाए-पिए-अघाए लिबरल्स द्वारा बड़े शहरों में मख़्सूस स्थानों पर जमावड़ा और नारेबाज़ी से आगे बढ़ कर स्थानीय स्तर पर जागरुकता और ज़ुल्म के ख़िलाफ युनाइटेड आवाज़,आज की बड़ी ज़रूरत है…
9)ज़ुल्म के विरुद्ध बहुत अहम काम क़ानूनी लड़ाइ है…ज़ालिमों को उसके अंजाम तक पहुंचाने और मज़लूमों की मदद के लिए जुडिश्यल प्रासेस….इसके लिए क़ानूनविदों और एक्टिविस्ट्स की बड़ी टीम तैय्यार की जाए,जो पूरी महारत और प्रतिबद्धता के साथ इस काम में लगी रहे….
10)मुस्लिम युवा,सोशल मीडिया पर होश में रहें…गुस्सा दिलाने पर आपे से बाहर हो जाना क्या बहादुरी है…यही तो षड्यंत्र है….गुस्सा पर कंट्रोल और अतिप्रतिक्रिया से बचना वास्तव में बहादुरी है….ये सही जवाब नहीं है कि यदि तोगड़िया और फ्लाँ-फ्लां ऐसा बोल सकते हैं तो कोइ अकबर और जुम्मन क्यों नहीं…सोचो क्या ये कोइ सकारात्मक,परिपक्व और रचनात्मक जवाब है?क्या ये जवाब इस्लामी दर्शन और विचारधारा के दावेदारों को शोभा देता है…???

SHIBLI ARSALAN ZAKI

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