देश चांद तक पहुंचा और नफ़रत क्लासरूम तक

मीडिया द्वारा फैलाई गई इस नफ़रत का ही नतीजा है जो अब मुज़फ्फरनगर और दिल्ली के स्कूलों में हाल ही में घटित हुई घटनाओं के रूप में सामने आ रहा है। देश तो चांद तक पहुंच गया है लेकिन नफ़रत भी स्कूल के क्लासरूम तक पहुंच गई है

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देश चांद तक पहुंचा और नफ़रत क्लासरूम तक

मोहित कुमार पांडेय

23 अगस्त 2023 को भारत का ‘चंद्रयान-3’ सफलतापूर्वक चंद्रमा की सतह पर पहुंच गया। इस उपलब्धि के साथ भारत चांद पर सॉफ़्ट लैंडिंग करने वाला चौथा देश और चांद के दक्षिणी ध्रुव के पास पहुंचने वाला पहला देश बन गया। चांद पर लैंडिंग के लाइव कवरेज को ISRO के आधिकारिक यूट्यूब चैनल पर 80 लाख से ज़्यादा लोग देख रहे थे। भारत के चांद पर पहुंचने के वीडियो को ISRO के आधिकारिक यूट्यूब चैनल पर 7 करोड़ से ज़्यादा लोग देख चुके हैं। 23 अगस्त 2023 को कुछ ऐसी तस्वीरें हमारे सामने थीं, जिनमें भारतीय विज्ञान जगत की एक उड़ान पर पूरा देश एकजुट था। बसों में, ट्रेनों में, फ़्लाइट में, सड़क पर चलते हुए, स्कूलों में, मंदिर-मस्जिद-गिरिजाघरों में, ऑफ़िस और घरों में लोगों के अंदर चांद की सतह पर पहुंचने का कौतूहल था और चांद पर पहुंचते ही एक स्वर में तालियों की गड़गड़ाहट थी।

चांद पर हम पहुंच चुके हैं। भारत ने अपने अंतरिक्ष मिशन की शुरुआत 1962 में की थी। चंद्रयान-3 मिशन को कामयाबी की मंजिल तक पहुंचाने वाली संस्था ISRO 1969 से भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम को उड़ान दे रही है। इस मिशन में काम करने वाले वैज्ञानिकों ने बड़ी ही विनम्रता से मिशन की सफलता पर मुस्कान के साथ देश का अभिवादन स्वीकार किया।

23 अगस्त 2023 को भारतीय विज्ञान जगत की उड़ान पर एकजुटता वाली भाषा की जिन तस्वीरों को हमने अपने मोबाइल पर देखा, वो तस्वीरें अमूमन अब तस्वीरों से निर्मित होने वाले शिक्षाशास्त्र से ग़ायब हो चुकी हैं। विज्ञान, पर्यावरण व मानव विकास से जुड़े कई अन्य महत्वपूर्ण मुद्दे देश में तस्वीरें प्रसारित करने वाले सबसे बड़े स्तम्भ यानि मीडिया चैनल्स का हिस्सा नहीं रहे हैं। मीडिया चैनल्स में होने वाली तमाशाई व नफ़रत भरी बहसों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि चांद पर पहुंचना उनके लिए ‘एक दिन की चांदनी, फिर नफ़रती बात’ जैसा है।

हाल ही में चलती ट्रेन में रेलवे सुरक्षा बल के एक सिपाही द्वारा‌ तीन मुसलमानों की हत्या की घटना व हत्यारे के वक्तव्य में मीडिया चैनल्स से पैदा की गई नफ़रत की एक बानगी मिली। हालांकि ये बानगी एक घटना तक सीमित नहीं है, बल्कि मीडिया चैनल्स से पैदा हुई नफ़रत की ऑडियो-विजुअल वर्णमाला अब सोशल मीडिया की बहसों, हमारे चारों तरफ़ नफ़रत से भरी परिघटनाओं, ऑफ़िस की बातचीतों, इत्यादि का हिस्सा बन चुकी है। स्टूडियो में बैठकर ऐंकर व उनके साथ चिल्लाने वाले लोग ‘हिंसा’ की जिस शब्दावली को टीवी नामक यंत्र के ज़रिए देश में बड़े पैमाने पर फैलाते हैं, अब इस शब्दावली ने राह चलते लोगों को धर्म के नाम पर क्षति पहुंचाना शुरू कर दिया है।

मीडिया द्वारा फैलाई गई इस नफ़रत का ही नतीजा है जो अब मुज़फ्फरनगर और दिल्ली के स्कूलों में हाल ही में घटित हुई घटनाओं के रूप में सामने आ रहा है। देश तो चांद तक पहुंच गया है लेकिन नफ़रत भी स्कूल के क्लासरूम तक पहुंच गई है। कहां एक वक़्त था जब शिक्षकों पर बच्चों का भविष्य बनाने की ज़िम्मेदारी हुआ करती थी लेकिन आज शिक्षक भी क्लासरूम में खुलेआम नफ़रत परोसते हुए नज़र आ रहे हैं। ये मीडिया और नफ़रती संगठनों द्वारा बहुत सुनियोजित ढंग से किया गया है जिसका नतीजा आज सामने आ रहा है।

हेट स्पीच पर सुनवाई करते हुए भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने नफ़रत से भरे इन प्रसारणों को हेट फैलाने के लिए मुख्य रूप से ज़िम्मेदार बताया। मॉर्निंग कॉन्टेक्स्ट में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक़ देश में न्यूज़ चैनलों की नियामक संस्था एनबीएसए के पास मीडिया चैनल्स के नफ़रती कंटेंट को लेकर आने वाली शिकायतें बढ़ती गईं हैं। देश के नामी गिरामी चैनल्स के प्राइम टाईम कार्यक्रमों पर नफ़रती व समुदाय विशेष को टार्गेट करने वाले कंटेंट को लेकर इस संस्था को जुर्माना लगाना, कंटेंट हटाने, माफ़ी व स्पष्टीकरण चैनल पर चलाने के लिए कहने जैसा एक्शन लेना पड़ा। “कितने पत्थरबाज़, कब परमानेंट इलाज”, किसान आंदोलन के किसानों को “ख़ालिस्तानी” कहना, “थूक जिहाद”, “15% मुसलमान अब हिंदू पर भारी”, “हंगामा है यूं बरपा अल्लाह की मर्ज़ी है”, “असली हिंदू v/s ढोंगी हिंदू” जैसी शब्दावली और समुदाय विशेष के ख़िलाफ़ नफ़रती संदेश के इरादे से बनाए गए ग्राफ़िक्स अब मीडिया चैनल्स के प्रोडक्शन की विभाजक शैली (अब मीडिया चैनल्स में रचनात्मक शैली को विभाजक शैली ने परे कर दिया है) का मुख्य हिस्सा हैं।

1991 में देश-भर में फैले साम्प्रदायिक तनाव के समय कई बड़े कलाकारों के सहयोग से “सुन-सुन मेरे नन्हें सुन…प्यार की गंगा बहे…देश में एका रहे…सारा भारत ये कहे…प्यार की गंगा बहे” जैसा एकता का गीत बना था। उससे पहले भी सिनेमाई जगत से “तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है इंसान बनेगा”, “मुझ में राम, तुझ में राम, जग में समाया” जैसे एकता के गीत देश की चेतना का हिस्सा बने थे। आज एकता की उस चेतना को मीडिया चैनल्स की विभाजनकारी शब्दावली भेदती जा रही है। शब्दों व तस्वीरों से संपन्न जिस मीडिया का काम देश के लिए विज़न तैयार करने का था, वो मीडिया आज देश में डिवीज़न की जमीन तैयार करने का मुख्य यंत्र बनता जा रहा है। मीडिया के शिक्षा शास्त्र में मोनू मनेसर पैदा करने की ऑडियो-विजुअल शब्दवाली तो है, लेकिन मून मिशन की नहीं। वर्षों के कड़े परिश्रम के बाद देश के वैज्ञानिकों की मेहनत तो चांद पर पहुंच चुकी है, लेकिन 21वीं सदी के भारतीय चैनल्स एक दिन की चांदनी के बाद नफ़रत की डाल पर ही लटके मिलते हैं।

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