स्वतंत्रता आंदोलन और मौलाना आज़ाद का अल-हिलाल

आज की पत्रकारिता को मौलाना के विचारों के अनुसार ख़ुद का आंकलन करने की ज़रूरत है जोकि सत्ताधारी और पूंजीवादियों की ग़ुलामी में अपना सब कुछ ख़त्म करने में लगे हैं। मौलाना पत्रकारिता और पत्रकार को बहुत इज़्ज़त की नज़रों से देखते थे। उनका मानना था कि अख़बार और पत्रकार किसी भी समाज या देश का सच्चा तर्जुमान होते हैं और उसी की तर्जुमानी का हक़ अदा करते हैं।

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स्वतंत्रता आंदोलन और मौलाना आज़ाद का अल-हिलाल

अजमल अली ख़ान

मानव जीवन पर जिन लोगों के व्यक्तिव ने गहरी छाप छोड़ी है, उनमें मौलाना अबुल कलाम आज़ाद का नाम बहुत अहम है। महान व्यक्तित्वों के जीवन को पढ़ने से इस बात का पता चलता है कि अधिकतर का बचपन उनके भविष्य को ज़ाहिर करता है। मशहूर लोकोक्ति ‘होनहार बिरवान के होत चीकने पात’ की तरह मौलाना आज़ाद का बचपन भी उनके व्यक्तिव को बताता है।

मौलाना आज़ाद का जन्म 11 नवम्बर 1888 के दिन सऊदी अरब के पवित्र शहर मक्का में हुआ था। उनकी माता एक अरबी महिला थीं जबकि पिता ख़ैरुद्दीन भारत के शहर दिल्ली से थे। घर का माहौल अरबी था, इसलिये अरबी उनकी मातृभाषा थी। कानों में अज़ान के बाद जो लोरी सुनी, वह भी अरबी में थी। जब आयु 5 वर्ष की हुई तो रस्म-ए-बिस्मिल्लाह (मुस्लिम समुदाय में बच्चों को शिक्षा के लिये प्रवेश दिलाने पर अदा की जाने वाली रस्म) पर ख़ुद मौलाना आज़ाद बताते हैं कि “मुझे वह दिन अच्छी तरह से याद है जब हरम-ए-शरीफ़ (काबा शरीफ़) में बिस्मिल्लाह का उत्सव कराया गया। उस समय मेरी आयु 5 वर्ष थी। असर यानि 4 बजे का समय था और स्वर्गीय शेख़ अब्दुल्लाह से पिता जी ने ये रस्म कराई थी।” मौलाना की इस बात से ख़ुद उनकी याददाश्त का भी पता चलता है कि 5 वर्ष की आयु में जो कुछ उन्होंने देखा, सुना, और पढ़ा उनको याद रहा।

1895 में मौलाना का जीवन भारत के इतिहास में इसलिये भी महत्वपूर्ण है क्योंकि उस वर्ष मौलाना के पिता ख़ैरुद्दीन की पैर की हड्डी किसी दुर्घटना में टूट गई थी और उनको उपचार के लिए भारत के शहर कोलकाता आना पड़ा। उस यात्रा में उनके साथ उनका पूरा परिवार कोलकाता आ गया। उनके पिता के प्रशंसकों ने उनको कोलकाता से जाने नहीं दिया। कोलकाता में ही मौलाना की शिक्षा उनके घर पर ही प्रारंभ हुई। जो भी शिक्षा मिल रही थी, वो केवल धार्मिक थी क्योंकि मौलाना के पिता धार्मिक व्यक्ति होने साथ-साथ अंग्रेज़ी शिक्षा के विरुद्ध भी थे। उनका मानना था कि अंग्रेज़ी शिक्षा धार्मिक रीति-रिवाज को बिगाड़ देगी। जैसा कि ख़ुद मौलाना लिखते हैं, “मेरे पिता जीवन के सरल स्वभाव के तरीक़े को पसंद करते थे। उन्हें पश्चिमी शिक्षा पर तनिक भी भरोसा नहीं था और उन्होंने कभी सोचा भी नहीं कि मुझे नई प्रकार की शिक्षा की ओर अग्रसर करें। वो समझते थे कि नई शिक्षा रीति-रिवाज और मानव सद्भावना को कमज़ोर कर देगी, इसलिये उन्होंने मेरी शिक्षा की व्यवस्था पुराने नियमों के अनुसार की। उस दौर में भारतीय मुसलमानों में ये रिवाज था कि पहले फ़ारसी और फिर अरबी की शिक्षा दी जाती थी। जब उन्हें भाषा पर किसी हद तक पकड़ हो जाती तब उन्हें दर्शनशास्त्र और गणित आदि की शिक्षा दी जाती थी। इसलिये मेरे पिता मुझे उस समय किसी स्कूल नहीं भेजना चाहते थे और मेरी पूरी शिक्षा घर पर ही हुई।”

उर्दू पत्रकारिता की शुरुआत

भारत में उर्दू पत्रकारिता की शुरुआत हरिहर राय दत्त और सदासुख शुक्ला के “जाम-ए-जहांनुमा” के छपने से 1823 में हुई थी। 1857 की बग़ावत का ज़िम्मेदार उर्दू पत्रकारिता को भी ठहराया गया और दिल्ली उर्दू अख़बार के एडिटर मौलवी मोहम्मद बाक़र की शहादत से पहले शहीद पत्रकार का सेहरा भी उर्दू पत्रकारिता के सर ही बंधता है। लेकिन स्वतंत्रता संग्राम के बाद दिल्ली की पत्रकारिता और ख़ास तौर पर उर्दू पत्रकारिता पर अंग्रेज़ों ने अपना क़हर ढहाया, जिससे उर्दू पत्रकारिता थोड़ा कमज़ोर पड़ी लेकिन 20वीं सदी के प्रारम्भ में इसमें फिर इंक़लाब आया और यह फिर प्रचलित हो गई।

उर्दू पत्रकारिता में मौलाना आज़ाद के आने से अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ बग़ावत ने फिर ज़ोर पकड़ा जिससे उर्दू पत्रकारिता एक बार फिर अपनी पूरी ताक़त के साथ समाज और देश की आज़ादी के लिये लगातार प्रयत्न करने लगी।

आज उर्दू पत्रकारिता समेत सभी भाषाओं की पत्रकारिता किसी-न-किसी राजनैतिक पार्टी से जुड़ी दिखाई देती है और फिर उसी के हिसाब पॉलिसी बनाती है। साथ-ही-साथ पेड न्यूज़ का चलन भी अब पत्रकारिता में आम सी बात हो गई है। मौलाना आज़ाद का जीवन इन सब चीज़ों से ऊपर था। उन्होंने पत्रकारिता को सदैव मिशन की तरह अपनाया, उसे कभी फ़ैशन या कमर्शियल नहीं बनाया। वह पत्रकारिता में पैसों पर लिखने वालों के ख़िलाफ़ थे जिसके बारे में मौलाना ने इन शब्दों में कहा है, “हमारे समझ में जो अख़बार अपनी क़ीमत के सिवाय मनुष्य या गिरोह से कोई माल लेता है तो वह अख़बार नही बल्कि उसके कार्य पर एक धब्बा है। हम अख़बार को बहुत ऊंचे स्थान पर देखना चाहते हैं और एक बे-बाक और सच्चाई लिखने वाला समझते है इसलिये अख़बार तो बस हर तरह के दबाव से आज़ाद होना चाहिए।”

आज की पत्रकारिता को मौलाना के इन शब्दों के अनुसार ख़ुद का हिसाब करने की ज़रूरत है जोकि सत्ताधारी और पूंजीवादियों की ग़ुलामी में अपना सब कुछ ख़त्म करने में लगे हैं। मौलाना पत्रकारिता और पत्रकार को बहुत इज़्ज़त की नज़रों से देखते थे। उनका मानना था कि अख़बार और पत्रकार किसी भी समाज या देश का सच्चा तर्जुमान होते हैं और उसी की तर्जुमानी का हक़ अदा करते हैं।

पत्रकारिता के क्षितिज पर अल-हिलाल

मौलाना आज़ाद ने 1909 में पूरी तरह राजनीति में क़दम रखा और 1911 तक वह इस मैदान को समझते रहे और हालात को पढ़ते रहे। 1905 में बंगाल का विभाजन हुआ जिसने हिन्दू-मुस्लिम समुदाय को एक-दूसरे से अलग करने की राह आसान कर दी। हिंदू बंगाली राजनेता उसके विरुद्ध थे और सम्पूर्ण बंगाल के लिये मेहनत कर रहे थे। मौलाना भी इस तहरीक में शामिल हुये और दूसरे मुसलमानों को भी जुड़ने की अपील की। उनकी यह कोशिश कामयाब रही। 1911 में सरकार ने अपने इस फ़ैसले पर विचार किया और सम्पूर्ण बंगाल फिर से बहाल हुआ। यह अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ हिंदुओं और मुसलमानों के आपसी मेल-जोल की पहली कामयाबी थी। 1911 की इस कामयाबी ने मौलाना को पूरी तरह से राजनीति में उतार दिया।

मौलाना राजनीति में आए तो लेकिन उनका मानना था कि समाज में आपसी भाईचारा हम यहां से बनाए रखने की अपील करेगें। मौलाना कुछ हद तक कामयाब रहे लेकिन ऐसे समय में अपने समाज या मुस्लिम क़ौम के लिए उनके पास कोई ऐसा मंच नही था जहां से वह उन तक अपनी बात पहुंचाते। इसके लिये 1908 में जब मौलाना विदेशी दौरे से लौटे, तब एक अख़बार निकालने की चाह लेकर आये। अब समय था कि मौलाना इसे पिरोते और एक अख़बार जारी करते। इस प्रकार समाज का दर्द पत्रकारिता के तौर पर “अल-हिलाल” की शक्ल में 1912 में लोगों के सामने आया।

साप्ताहिक अल-हिलाल ने उर्दू पत्रकारिता को नई दिशा दी। यह बात भी याद रहे कि उस समय जब अल-हिलाल आया तो मुसलमानों का एक बड़ा गिरोह उर्दू पढ़ना नहीं जनता था। मौलवी हज़रात एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप करने में लगे थे। उस समय जब अंग्रेज़ों के विरुद्ध बोलने वाला, लिखने वाला कोई नहीं था तो अल-हिलाल की एक अकेली आवाज़ थी जिससे मौलाना आज़ाद ने लोगों में बेदारी पैदा की और लोगों को बताया कि किस तरह से साथ मिलकर अंग्रेज़ी सरकार का तख़्तापलट किया जा सकता है। धीरे-धीरे लोग अल-हिलाल से जुड़ते गये और उससे लोगों को ख़बरें आसानी से मिलने लगीं, जिससे लोग अंग्रेज़ों के विरुद्ध खड़े हो गये।

अल-हिलाल पर रोक और प्रेस एक्ट

अल-हिलाल की ज़मानत के लिए पैसा जमा करने की अंतिम तिथि थी। 23 सितम्बर 1913 के अल-हिलाल के सप्ताहिक अख़बार से मौलाना ने एक लेख लिखा और यह साफ़ करने की कोशिश की कि अल-हिलाल राजनैतिक अख़बार नही बल्कि धार्मिक और लोगों को शिक्षित करने वाला अख़बार है और यह भी लिखा कि अल-हिलाल का एडिटर कोई राजनेता नहीं, बल्कि एक पाक-साफ़ ईमानदार व्यक्ति है।

मौलाना आज़ाद प्रेस और पत्रकारों की आज़ादी को लेकर बहुत परेशान थे और उनके लिए कुछ ऐसा करना चाहते थे कि जिससे प्रेस की आज़ादी हमेशा-हमेशा के लिये हो जाये। इसके लिए उन्होंने न केवल उर्दू प्रेस के मालिकाना हक़ अपितु दूसरी भाषाओं के प्रेस के मालिकाना हक़ को लेकर पत्रकारों से इस पर बात की और उन्हें अपना जैसे बनाने की कोशिश की।

अल-हिलाल पर रोक

अल-हिलाल के निबंधों और मौलाना के भाषणों से यह बात पता चलती है कि अल-हिलाल कोई राजनैतिक अख़बार नही था, परंतु यह साप्ताहिक धार्मिक अख़बार था जिसका महत्वपूर्ण लक्ष्य भारतीय नागरिकों और ख़ास तौर पर मुसलमानों में सामाजिक और दीनी चाल-चलन पैदा करना था। चूँकि यह अख़बार जिसे अरबी अख़बार के तौर पर निकाला गया, इसलिये इसमें धार्मिक और शिक्षा के मुद्दों पर ज़्यादा निबंध लिखे जाते थे लेकिन जिस समय अख़बार निकल रहा था वह समय प्रथम विश्व युद्ध का था, इसीलिए उस समय के हालत को भी कुछ हद तक अल-हिलाल में छापा गया था। मौलाना अल-हिलाल जारी रखना चाहते थे लेकिन 10 हज़ार रुपए की बड़ी रक़म जमा कर पाना उनके लिये बहुत बड़ा कठिन था। अल-हिलाल की कमाई भी इतनी अधिक नहीं थी कि वह उसे जारी रखने के लिये पैसा भर पाते, इसलिये मौलाना ने इसे बंद करने और नये प्रकार से दूसरा अख़बार निकालने की कोशिश शुरू कर दी।

(लेखक मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी, हैदराबाद के डिपार्टमेंट ऑफ़ मास कम्युनिकेशन एंड जर्नलिज़्म में शोधार्थी हैं।)

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