नफ़रत के ख़िलाफ़ असहयोग आंदोलन

मीडिया की एजेंडा सेट करने की ताक़त की वजह से समाज में मीडिया की भूमिका बहुत अहम है। तब ऐसे में से नफ़रत की फ़सल बोने वाली मीडिया के साथ असहयोग करना मीडिया की स्वतंत्रता पर हमला तो क़तई नहीं है। आख़िरकार यह भी जनता के बीच से उठी आवाज़ है।

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नफ़रत के ख़िलाफ़ असहयोग आंदोलन

मोहित कुमार पांडेय

हाल ही में‌ ‘इंडिया’ गठबंधन ने मीडिया चैनलों के कुछ एंकरों की एक लिस्ट जारी करते हुए कहा कि वे अमुक एंकरों के कार्यक्रमों में हिस्सा नहीं लेंगे। हालांकि ‘इंडिया’ गठबंधन द्वारा जारी वक्तव्य में उनका मंतव्य बहुत स्पष्ट नहीं था, लेकिन बाद में उनकी तरफ़ से आए बयानों से यह साफ़ हुआ कि ‘इंडिया’ गठबंधन की पार्टियों के प्रवक्ता इन एंकरों द्वारा चलाई जा रही नफ़रती बहसों का हिस्सा नहीं बनेंगे। ग़ौर करने वाली बात यह है कि ‘इंडिया’ गठबंधन के वक्तव्य में न तो चैनलों के बहिष्कार की बात थी और न ही उनके कार्यक्रमों पर रोक लगाए जाने की बात। ‘इंडिया’ गठबंधन ने नफ़रती टीवी कार्यक्रमों के साथ असहयोग करने की उस बात को अपने वक्तव्य में शामिल किया, जिसे जनता, बुद्धिजीवियों व पत्रकारों का एक हिस्सा काफ़ी दिनों से कह रहा है। यह पहली दफ़ा नहीं है कि नफ़रत फैलाने वाले टीवी कार्यक्रमों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठी है। हम ज़मीन से आने वाली मीडिया बाइट्स, ढेर सारे आंकड़ों में यह बात देखते रहते हैं कि नफ़रत के कंटेंट से ऊबकर व जनता के मूल मुद्दे नदारद होने के चलते कई लोगों ने कहा है कि उन्होंने टीवी देखना छोड़ दिया है।

ध्यान देने वाली बात यह है कि जब हम मीडिया को लोकतंत्र का चौथा खंभा कहते हैं, तो बाक़ी खम्भों की तरह उसे भी परखने व उसकी ग़लतियों को उजागर करने की ज़िम्मेदारी जनता से जुड़ी संस्थाओं व स्वयं जनता की होती है। चैनलों के न्यूज़रूम में होने वाली बहसों, बहसों को फ़्रेम करने के तरीक़ों, बहसों के ग्राफ़िक्स व बहसों के दौरान होने वाली जूतम-पैजार से असहमति दिखाने का अधिकार भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार में आता है। समय-समय पर भारत के न्यायालयों ने अपने आदेशों और टिप्पणियों में भी यह कहा है कि अगर आप किसी कंटेंट से सहमत नहीं हैं तो आप उसे मत देखिए।

‘इंडिया’ एक राजनीतिक पार्टियों का गठबंधन है, जिसे अंतत: वोट मांगने के लिए जनता के बीच में जाना होता है। अगर कल को इन पार्टियों के नेताओं से जनता की ओर से यह सवाल पूछा गया कि आप उन बहसों का हिस्सा क्यों बनते हैं जिनसे रोज़गार, महंगाई, शिक्षा, स्वास्थ्य के मुद्दे ग़ायब हैं और जिनमें केवल नफ़रत को परोसा जाता है, तो इन नेताओं को जनता के बीच जवाब तो देना पड़ेगा।

इस मुद्दे पर कई पत्रकारों, इन 14 एंकरों व कई अन्य लोगों की तरफ़ से बहस छेड़ी गई कि यह प्रेस की स्वतंत्रता पर हमला है। सत्ताधारी दल भाजपा ने तो इसकी तुलना आपातकाल से तक कर डाली। लेकिन किसी ने यह तर्क नहीं दिया कि ‘इंडिया’ गठबंधन का यह फ़ैसला क्या किसी पत्रकार की आवाज़ दबा रहा है? क्या इस फ़ैसले ने इन पत्रकारों की आवाज़ को नियंत्रित करने का प्रयास किया है? ‘इंडिया’ गठबंधन ने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के एक मज़बूत हथियार ‘असहयोग’ को अपनाते हुए जनता की भावना को अपने प्लेटफ़ॉर्म से रखा है और कहा है कि वे अब नफ़रत के तले आम जनता के मुद्दों को दबाने वाले संचार मॉडल का हिस्सा नहीं बनेंगे।

नफ़रत का संचार मॉडल वैश्विक पटल पर एक स्थापित मॉडल है। ‘रवांडा रेडियो’ जैसे संचार मॉडलों के उदाहरणों से पता चलता है कि कैसे मीडिया की ऑडियो-विजुअल तकनीक का प्रयोग कर समाज में व्यापक स्तर पर नफ़रत के बीज बोए जाते हैं। न्यूज़लॉन्ड्री की एक रिपोर्ट ने पिछले साल इन 14 एंकरों में से कुछ एंकरों के कार्यक्रमों का अध्ययन किया। इस लिस्ट में मौजूद पूर्व में ‘डीएनए’ नाम से कार्यक्रम करने वाले एक एंकर ने कुल 73 में से 28 बहसें सांप्रदायिक मुद्दों पर कीं, जबकि महंगाई पर मात्र 2 व रोज़गार के मुद्दे पर 0 बहसें की। इसी तरह से एक अन्य एंकर ने ‘सवाल पब्लिक का’ नाम से आने वाले कार्यक्रम में 68 में से सांप्रदायिक मुद्दों पर 29 बहसें कीं और रोज़गार व महंगाई के मुद्दे पर 0 बहसें कीं। एक अन्य एंकर, जिन्होंने ‘इंडिया’ समूह के इस एक्शन को प्रेस पर हमला बताया, उन्होंने ‘आर-पार’ के नाम से आने वाले अपने कार्यक्रम में 68 बहसों में से 43 बहसें सांप्रदायिक मुद्दों पर कीं और रोज़गार व महंगाई के मुद्दे पर 0 बहसें कीं।

ये आंकड़े टीवी मीडिया में लहलहाती हुई नफ़रत की फ़सल के तले आम जनता के मुद्दों को रौंदने की हक़ीक़त को दर्शाते हैं। मीडिया की एजेंडा सेट करने की ताक़त की वजह से समाज में मीडिया की भूमिका बहुत अहम है। तब ऐसे में से नफ़रत की फ़सल बोने वाली मीडिया के साथ असहयोग करना मीडिया की स्वतंत्रता पर हमला तो क़तई नहीं है। आख़िरकार यह भी जनता के बीच से उठी आवाज़ है। विपक्षी दलों ने जनता की आवाज़ का सम्मान करते हुए नफ़रत को पोषण देने वाले कार्यक्रमों से असहयोग का क़दम उठाया है। ग़ौरतलब है कि ठीक इसके उलट सरकार की तरफ़ से कई बार टीवी कार्यक्रमों को हटवाया गया है, ख़बरों को डिलीट करवाया गया है और सरकार के ख़िलाफ़ रिपोर्ट करने वाले पत्रकारों को चिन्हित करने जैसे क़दम उठाए गए हैं।

अपने इस फ़ैसले से विपक्षी गठबंधन ने सत्ता के निरंकुश बल का इस्तेमाल नहीं किया है, बल्कि अपने नैतिक बल का इस्तेमाल करते हुए कहा है कि ‘हम आपकी नफ़रत की मशीनरी का हिस्सा नहीं बनना चाहते।’ शायद ये मीडिया के नैतिक मूल्यों को वापस पाने की क़वायद में एक बड़ा क़दम साबित हो। मीडिया संस्थाओं को इस क़दम को एक आईने की तरह लेना चाहिए और दिखाना चाहिए कि जनता के मुद्दे अभी भी उसके केंद्र में हैं। मीडिया की नफ़रती मशीनरी के ख़िलाफ़ नैतिकता से भरा यह असहयोग आंदोलन शायद फिर से जनता के मुद्दों को मीडिया बहसों के केंद्र में लाए।

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