हिंदी में परोसी जा रही नफ़रत का सामना हिंदी में ही संभव है

अगर नफ़रत संगठित रूप से किसी भाषा के कंधे पर सवार होकर पांव फैला रही है तो प्रेम और सौहार्द की बातें करने वालों को और अधिक संगठित होकर उसी भाषा में मेल-मिलाप की बातें करनी होंगी।

0
448

हिंदी में परोसी जा रही नफ़रत का सामना हिंदी में ही संभव है

मसीहुज़्ज़मा अंसारी

भाषा संवाद का माध्यम होती है। अपने विचारों को हम भाषा के माध्यम से ही अभिव्यक्त करते हैं। उत्तर भारत में मुख्य रूप से हिंदी को संवाद की प्रमुख भाषा होने का गौरव प्राप्त है। इस हिन्दी पट्टी में बड़े-बड़े कवि और उपन्यासकारों ने जन्म लिया और हिंदी भाषा को समृद्ध किया। स्वतंत्रता के बाद से ही हिन्दी भाषी राज्य, भारत में राजनीति के मुख्य केंद्र रहे हैं। यहां के घटनाक्रम देश की राजनीति को प्रभावित करते रहे हैं। शायद इसलिए हिंदी भाषी राज्यों में घटित होने वाली घटनाओं पर देश की निगाहें टिकी रहती हैं।

हिंदी भाषी राज्यों में आबादी का घनत्व बहुत अधिक है। यहां धार्मिक महत्व के स्थान, मथुरा, काशी, अयोध्या, अजमेर, आदि भी स्थित हैं। इसलिए धर्म की राजनीति करने वालों के लिए यह इलाक़ा हमेशा से उपजाऊ रहा है। हिंदी पट्टी में कुछ वैचारिक संगठनों के द्वारा नफ़रत और बंटवारे के बीज बोए गए और उसके राजनीतिक फल भी उन संगठनों को प्राप्त हुए।

हिंदी नफ़रत फैलाने की भाषा बन चुकी है

पिछले कुछ दशकों में हिंदी भाषा में नफ़रत सबसे अधिक परोसी गई। इसके लिए झूठ और तथ्यहीन पाठ्य-पुस्तकों से लेकर कहानी और उपन्यासों का सहारा लिया गया। हिंदी भाषी क्षेत्रों में नफ़रत फैलाने के लिए जी तोड़ मेहनत की गई। हिंदी मीडिया ने भी इसमें अपना भरपूर योगदान दिया। हिंदी अख़बारों, पत्र-पत्रिकाओं और नई तकनीकी उपकरणों के माध्यम से हिंदी समाज में ख़ूब ज़हर घोला गया। स्वघोषित ‘राष्ट्रवादी’ सरकार ने हिंदी पट्टी को व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी के रूप में नफ़रत और झूठ का नया हथियार दिया। इस प्रकार नई सरकार, नए युग और नए भारत में हिंदी पट्टी और हिंदी भाषी राज्य भाषा और संवाद के माध्यम से घोर सांप्रदायिक हो गए।

हिंदी भाषा में नफ़रत का मुक़ाबला कैसे हो?

आज हिंदी भाषा प्रेम और सौहार्द की भाषा न रहकर हिंसा, नफ़रत, लिंचिग और सांप्रदायिकता की भाषा बन चुकी है। हिंदी में परोसी जा रही इस नफ़रत से लड़ने वाले लोग बहुत कम नज़र आते हैं। जो लोग हिंदी पट्टी में प्रेम और सौहार्द के लिए काम कर रहे हैं, वो या तो अभिजात वर्ग से हैं या फिर बहुत ही सीमित दायरे में कार्यरत हैं। कुछ ऐसे हैं जिनका हिंदी में संवाद करने का अनुभव नहीं है और न ही हिंदी भाषा पर पकड़ है, इसलिए वे अपनी बात सहजता से नहीं कह पाते, गांव के लोगों तक संवाद नहीं कर पाते। दूसरी तरफ नफ़रत का गिरोह संगठित रूप से काम कर रहा है, गांव-गांव में जड़ें जमाए हुए है।

हिंदी में परोसी जा रही नफ़रत का उर्दू/अंग्रेज़ी में मुकाबला करते संगठन

कुछ संगठन यक़ीनन निःस्वार्थ भाव से समाज में प्रेम और भाईचारे के लिए हिंदी पट्टी में काम कर रहे हैं। इन संगठनों की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वे हिंदी में परोसी जा रही नफ़रत का उर्दू या अंग्रेज़ी में मुक़ाबला करना चाहते हैं। उनकी मंशा तो प्रशंसनीय है लेकिन केवल मंशा से समाज में कोई परिवर्तन नहीं होता जब तक कि धरातल पर सही रणनीति के साथ काम न किया जाए। अंग्रेज़ी-हिंदी मिश्रित भाषा में या उर्दू में प्रेम और सौहार्द की बातें होती हैं, लेकिन सवाल ये है कि उन्हें समझता कौन है? जिस हिंदी भाषा में नफ़रत परोसी जा रही है, उस हिंदी भाषा में प्रेम व सौहार्द के लिए काम न के बराबर हो रहा‌ है।

क्या हल है?

अगर नफ़रत संगठित रूप से किसी भाषा के कंधे पर सवार होकर पांव फैला रही है तो प्रेम और सौहार्द की बातें करने वालों को और अधिक संगठित होकर उसी भाषा में मेल-मिलाप की बातें करनी होंगी। इसके लिए हिंदी पट्टी और यहां की भाषा पर मज़बूत पकड़ आवश्यक है। कुछ लोगों को सरल और सामान्य हिंदी में पारंगत होना होगा जो हिंदी पट्टी में गांव-देहात में बोली समझी जाती है। हिंदी के कंधों पर बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी है इस देश को और ख़ासकर कि हिंदी पट्टी को नफ़रत और अफ़वाहों से बचाने के लिए। हिंदी भाषी पत्रकारों, बुद्धजीवियों, युवाओं और शिक्षकों को यह ज़िम्मेदारी उठानी होगी। हिंदी, हिन्दू और हिंदुस्तान को नफ़रत की आग से बचाने के लिए हिंदी भाषा में नफ़रत को फैलने से रोकना होगा। हिंदी दिवस पर यही मेरी कामना है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here