उर्दू के सुप्रसिद्ध साहित्यकार इम्तियाज़ अली ‘ताज’ को यह विशिष्टता प्राप्त है कि उन्होंने विश्व साहित्य को दो अनमिट चरित्र दिये हैं। एक तो अनारकली का काल्पनिक चरित्र जिसने नूर जहां के वास्तविक व्यक्तित्व को धूमिल कर दिया, जैसे आजकल  जाली चैकीदार ने अस्ली चैकीदार को भुला दिया है। चचा छक्कन श्री ‘ताज’ का दूसरा महान चरित्र है। जिस किसी ने उसे पढ़ा है, उसके लिए मुश्किल है कि वह उसे दिमाग़ की उपज समझे। समाज में यह चरित्र बहुधा चलता-फिरता नज़र आ जाता है। बहुत ही सफल नाट्य कृतियों तथा व्यंग्य रचनाओं के अतिरिक्त उन्होंने अनुवाद भी किये, गांधी जी की जीवनी लिखी, जिसका प्राक्कथन पंडित नेहरू ने लिखा। साथ ही बहुत प्रभावकारी ढंग से पत्रकारिता का दायित्व भी निभाया। ताज साहब का 1970 में इन्तिक़ाल हो गया, परन्तु यदि वे जीवित होते तो बहुत संभव है कि उनकी ताज़ा व्यंग्य रचना का शीर्षक ‘भतीजे मक्खन की प्रेस कांफ्रेंस में चचा छप्पन’ होता। इस शीर्षक को पढ़ने के बाद हर ख़ास और आम व्यक्ति समझ सकता है कि यहां किस कांफ्रेंस का उल्लेख हो रहा है।

मनमोहन सिंह के साथ अगर यह ‘दुर्घटना’ घटती और वे प्रेस कांफ्रेंस में सवालों का जवाब देने के बजाय कह देते कि ‘मैं पार्टी का विधिवत सेवक हूं। हमारे लिए पार्टी अध्यक्ष ही सब कुछ हैं’ तो भाजपा के लोग आसमान सिर पर उठा लेते। सारी दुनिया में राष्ट्र की बदनामी का शोर मचाते। मनमोहन सिंह को कठपुतली प्रधानमंत्री और सोनिया गांधी को रिमोट कंट्रोल बताते, लेकिन हाय रे दुर्भाग्य कि यह कारनामा 56 इंच की छाती वाले सम्राट मोदी ने कर दिखाया। जाने-माने पत्रकार और आधुनिक देशभक्त शेखर गुप्ता पर इस प्रेस कांफ्रेंस के बाद यह रहस्योद्घाटन हुआ कि कामराज के बाद अमित शाह सबसे अधिक शक्तिशाली पार्टी अध्यक्ष हैं। उन्हें अगर यह भी मालूम हो जाता कि गुलज़ारी लाल नन्दा से भी कमज़ोर प्रधानमंत्री मोदी हैं तो अच्छा होता।

कहावत मशहूर है ‘जब गीदड़ की मौत आती है तो शहर की तरफ़ भागता है’। अब इसमें संशोधन हो चुका है। अब कहना चाहिए कि ‘जब मोदी की शामत आती है तो प्रेस कांफ्रेंस की ओर दौड़ते हैं’। सारी दुनिया इस सवाल का जवाब ढूंढ़ रही है कि पांच वर्षों के अटूट धैर्य के बाद आख़िर प्रधानमंत्री के धैर्य का पैमाना अचानक किस प्रकार छलक गया? प्रधानमंत्री ने इस सवाल का जवाब अगर अपने आरंभिक भाषण में दे दिया होता, तो कम से कम अटकलों एवं अनुमानों का द्वार तो न खुलता और एक सवाल के कई जवाब अस्तित्व में न आते। लेकिन उन्होंने स्वयं इस बात का मौक़ा दिया। एक जवाब तो यह है जो शेखर गुप्ता ने दिया कि ‘वह उनकी नहीं, बल्कि अमित शाह की प्रेस कांफ्रेंस थी।’ अगर ऐसा था तो मोदी जी वहां गये ही क्यों? इसका पहला जवाब तो यह है कि मोदी जी अगर बिन बुलाए पाकिस्तान जाकर नवाज़ शरीफ़ के साथ बिरयानी खा सकते हैं, तो अपनी पार्टी के कार्यालय में अपने ही अध्यक्ष की प्रेस कांफ्रेंस में क्यों नहीं जा सकते? दूसरा जवाब यह है कि उनके पास कोई काम नहीं था।

प्रतिदिन 20 घण्टे काम करने वाला सुपरमैन प्रधानमंत्री बेकार बैठा हुआ ‘टाइम पास’ के लिए अमित शाह के साथ हो ले, यह बात आसानी से पचने वाली नहीं, परन्तु अगर उसका गहराई से जायज़ा लिया जाए तो आश्चर्य दूर हो जाता है। मोदी जी पिछले छः साल से चुनाव अभियान चला रहे हैं। 2014 में शपथ ग्रहण से पूर्व वे इस काम में जुट गये थे और बाद में भी इसी में व्यस्त रहे। इसलिए वे प्रधान सेवक के साथ प्रचार सेवक भी हैं। अब चुनाव अभियान समाप्त हो चुका है। उनको यह ख़ुशफ़हमी है कि इस बार भाजपा अपने बल पर 300 पार कर जाएगी। ऐसा भारत के इतिहास में तो नहीं, इस सदी में पहली बार होगा। इसलिए आनेवाले पांच वर्षों तक दोबारा इस काम में लगने से पहले बीच में क्यों ने छोटा-सा इंटरव्यू ले लिया जाए।

एक सवाल यह है कि इस अन्तराल में और भी बहुत कुछ किया जा सकता है, प्रेस कांफ्रेंस ही क्यों? भक्तों के पास इसका जवाब यह है कि प्रेस कांफ्रेंस क्यों नहीं? क्या एक स्वतंत्र देश के प्रधानमंत्री को प्रेस कांफ्रेंस के लिए भी चुनाव आयोग से अनुमति लेनी पड़ेगी? जी हां, मोदी जी! यह तर्क आपका अपना है कि क्या कोई फ़ौजी किसी आतंकवादी को मार गिराने के लिए चुनाव आयोग से अनुमति लेगा? इसे कहते हैं ‘मारो घुटना फूटे आंख’, लेकिन अगर मोदी जी प्रेस कांफ्रेंस में दो-चार पत्रकारों को अपने जवाबों के तीरों से मार गिराते तो उनकी बात सच हो जाती। लगभग हर चैनल पर इंटरव्यू देनेवाले हिन्द केसरी प्रधानमंत्री अगर पत्रकारों के दो-चार सवालों का जवाब दे भी देते तो लाज रह जाती। जो लोग यह जानना चाहते हैं कि मोदी से यह क्यों नहीं हो सका, उन्हें मालूम होना चाहिए कि प्रधानमंत्री बिना प्रश्नों की तैयारी और बिना जवाबों के अभ्यास के ऐसा जोखिम मोल नहीं लेते। प्रेस कांफ्रेंस में भाग लेने का फ़ैसला चूंकि अचानक हुआ इसलिए समय नहीं था।

वैसे प्रेस कांफ्रेंस में मोदी से कुल दो सवाल किये गये और वे मुश्किल भी नहीं थे। पहला तो प्रज्ञा के बारे में था, जिसका जवाब वे सुबह के अपने ट्वीट में दे चुके थे, लेकिन वह जवाब तो किसी और ने उनके नाम से लिखकर भेज दिया होगा। प्रधानमंत्री के पास इन बेकार कामों के लिए समय थोड़ी न है, लेकिन मोदी जी उसे दोहरा तो सकते थे। मगर इस उम्र में याद कहां रहता है कि क्या ट्वीट किया था। अगर शाम का जवाब सुबह से अलग हो जाता तो बड़ी जग हंसाई होती। लेकिन वह तो फिर भी हो गयी। दूसरा सवाल भी वह था जिसका ज़िक्र अपने चुनावी भाषणों में कई बार कर चुके थे। उसको तो याद करने की भी ज़रूरत नहीं थी, क्योंकि उनके भाषण को लोग ध्यानपूर्वक सुनते ही कब हैं, जो याद रखें। विपक्ष के गठबंधन पर यह टिप्पणी तो बहुत आसान थी कि न यह दाल गलेगी न खिचड़ी पकेगी। यह पककर तैयार भी हो जाए तो इसे कोई नहीं खाएगा। यह फेंकने में जाएगी। मोदी जी यह सब नहीं कह सके, क्योंकि भाषण लिखे हुए होते हैं, जवाब लिखा हुआ नहीं था।

अब फिर यह सवाल पैदा हो जाता है कि अगर मोदी जी ने जवाब नहीं दिये तो प्रेस कांफ्रेंस में जाकर क्या किया? इस सवाल का उत्तर बहुत आसान है, वही जो हमेशा करते हैं। एक भाषण दे मारा। संसद में प्रधानमंत्री को बहस का जवाब देना होता है, वहां भी वे चुनावी भाषण देते रहे और प्रेस कांफ्रेंस में आकर भी वही दिया। उन्होंने बताया कि पहले चुनाव के समय आई.पी.एल. को देश निकाला दिया जाता था। अब आई.पी.एल. भी हो रहा है। राम नवमी, ईस्टर और रमज़ान के साथ बच्चों की परीक्षाएं भी चल रही हैं। स्वयं अपनी स्तुति में डूबे मोदी जी भूल गये कि चुनाव से पहले पुलवामा की दुर्घटना घट चुकी है। नक्सलियों ने महाराष्ट्र और 36 गढ़ में ज़बरदस्त हमले किये। कश्मीर में कोई दिन ख़ून-ख़राबे के बिना नहीं गुज़रा। कश्मीर से 36 गढ़ तक महिलाओं पर अत्याचार का अन्तहीन सिलसिला चलता रहा। किसानों के अतिरिक्त नवयुवक एवं छात्र आत्महत्या करते रहे, परन्तु प्रधानमंत्री को इसकी चिन्ता नहीं है।

एक सवाल यह है कि क्या मोदी जी को भाषण देने के सिवा और कुछ नहीं आता? अरे भई, कोई और काम सीखने की आवश्यकता ही क्या है? मात्र बोल-बचन से अगर कोई राजनेता 12 वर्ष मुख्यमंत्री रह सकता है और पांच वर्ष के लिए प्रधानमंत्री भी बन जाता है, तो उसे और क्या चाहिए? भाषण दो और ऐश करो, लेकिन फिर भी ख़तरा तो है। कौन जाने ई.वी.एम. से कौन-सा जिन्न निकल आए? अगर कहीं चुनाव हार गये तो कम से कम माथे पर यह कलंक तो नहीं रहेगा कि उन्होंने अपने शासनकाल में कोई प्रेस कांफ्रेंस ही नहीं की। अब कम से कम यह इतिहास में अंकित हो चुका है कि प्रधानमंत्री ने प्रेस कांफ्रेंस में भाग लिया। आगे काम केसरिया इतिहासकारों का है। वे जो चाहें सम्राट मोदी से जोड़ दें। उसे पाठ्य पुस्तकों में शामिल कर दिया जाएगा। स्कूलों में छात्र वही पढ़ेंगे और मोदी नाम जपेंगे।

मोदी भक्त गर्व जताते हैं कि राहुल गांधी को बिना देखे भाषण देना नहीं आता था, लेकिन भाजपा ने सिखा दिया। इसके बदले मोदी जी भी अगर राहुल गांधी से प्रेस कांफ्रेंस करने की कला सीख लेते तो इस तरह किरकिरी न होती। दक्षिणा अच्छे-अच्छों को भक्त बना देती है। राजदीप सरदेसाई ने मोदी जी के पुराने दिनों को याद करके उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की और यह आशा जतायी कि शीघ्र ही प्रधानमंत्री विज्ञान भवन में ज़बरदस्त प्रेस कांफ्रेंस करके पत्रकारों के सारे सवालों के भरपूर जवाब देंगे। इस ख़ुशफ़हमी पर अनायास ही मिर्ज़ा ग़ालिब का (तहरीफ़ शुदा) शेर याद आ गया, मोदी है तो नामुमकिन है नामुमकिन! / कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक’ क्योंकि अव्वल तो मोदी जी का पुनः प्रधानमंत्री बन जाना ही सन्दिग्ध है और उसके बाद प्रेस कांफ्रेंस!

 

  • डॉ.  सलीम ख़ान

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