अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस : कौन लेगा महिलाओं की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी?

घटनाओं के हो जाने के बाद सिर्फ़ मार्च निकालने से घटनाएँ कम नहीं होंगी। हमें ख़ुद महिलाओं के अधिकारों को व्यक्तिगत रूप से लागू करना होगा और एक स्वर में आवाज़ बुलन्द करनी होगी जो महिलाओं के हक़ के लिए हो, उनकी सुरक्षा के लिए हो।

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“महिला” – यह शब्द सुनते ही उसकी स्वतंत्रता, अधिकार, अत्याचार आदि बातें दिमाग़ मे घूमने लगती हैं। महिला जितनी शोषित और पीड़ित प्राचीनकाल में थी, आज उससे कहीं ज़्यादा शोषित और प्रताड़ित महसूस होती है। इस तथाकथित सभ्य समाज के लोग आए दिन ज़ुल्म सहने वाली महिलाओं के लिए कितने आगे आते हैं? प्रशासन ख़ुद अपना काम साधने के लिए इन नन्हीं जानों पर हुए अत्याचारों को सुलझाने के बजाए अत्याचारियों से सुलह के रास्ते निकाल लेता है। सितम की बात तो यह है कि पीड़ित और शोषित महिलाओं को अपनी समस्याओं के हल और ज़ुल्म के ख़िलाफ़ प्रदर्शन का मौक़ा ही बहुत कम हासिल होता है और ग्रामीण क्षेत्र की महिलाओं के पास तो ऐसे मौक़े ना के बराबर रहते हैं।

घरेलू हिंसा के अतिरिक्त उन पर दूसरी तरफ़ भी बहुत ज़ुल्म होता है, जहां पूंजीवादी व्यवस्था ने महिला को सिर्फ़ एक व्यापार चमकाने वाली और बिक्री योग्य वस्तु बना दिया गया है। हाँ! वो बहुत-सी जगह ऊँचे पदों पर है लेकिन सुरक्षा? इससे किसी को कोई वास्ता नहीं।

पिछले कुछ सालों मे कॉल सेंटर्स में काम करने वाली औरतों के साथ बलात्कार और हत्या की घटनाओं ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया था। एक कम्पनी के ऑफ़िस में काम करने वाली ‘तानिया बनर्जी’ का एक कर्मचारी द्वारा बलात्कार और उसकी हत्या, एच. पी. कम्पनी में काम करने वाली ‘प्रतिभा मूर्ति’ की उसकी कार ड्राइवर के द्वारा हत्या और दिल्ली में एक के बाद एक दूसरी घटनाएँ ज़ाहिर करती हैं कि वास्तव मे हालात कितने ख़राब हैं।

आए दिन कोई ना कोई उत्पीड़न की घटना देखने को मिलती है चाहे वह बाहर हो या ख़ुद उन्हीं के घरों में, फिर आख़िर क्यों चुप हैं सब? घटनाओं के हो जाने के बाद सिर्फ़ मार्च निकालने से घटनाएँ कम नहीं होंगी। हमें ख़ुद महिलाओं के अधिकारों को व्यक्तिगत रूप से लागू करना होगा और एक स्वर में आवाज़ बुलन्द करनी होगी जो महिलाओं के हक़ के लिए हो, उनकी सुरक्षा के लिए हो। आज “महिला दिवस” है ना, इस मौक़े पर महिलाओं को बधाईयां और शुभकामना देने वाले बहुत मिलेंगे लेकिन उनकी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी लेने वाले और उनके अत्याचारों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वाले बहुत कम।

– ख़ान शाहीन

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