कुछ मरने के लिए जिंदा छोड़ दिए गए
ज़्यादा तर मार दिए गए
तशद्दुद के बाद
कुछ भून दिए गए
आतिशी हथयारों के साथ
और फेंक दिए गए इज्तेमाई क़ब्रों में
कुछ की आँखों पर
सियाह पट्टियां बंधी हुई थी
वो मरते हुए ख़ुद को भी न देख सके
कुछ सरहदें पार करते हुए
मुहाफिज़ों के गोलियों का निशाना बन गए
कुछ खुले समंदरों में डूब गए
कुछ कैम्पों में मर्ग आम के नज़र हो गए
उन में बच्चे भी थे
बूढ़े और जवान मर्द भी
लड़कियाँ और औरतें भी
किसी के हांथों में फूल थे
किसी के होंठों पर दुआ
किसी के आँखों में ख़ाब
किसी के सीने में उम्मीद
मौत किसी के दिल में नहीं थी
लेकिन मारे गए
जो बच गए
वो मरने के लिए जिंदा छोड़ दिए गए
पता नहीं उन्हें कब, कहाँ और कैसी मौत आएगी।
✍️ नसीर अहमद “नासिर”