मुस्लिम राजनीतिक पार्टी या मुस्लिम राजनीतिक ताक़त

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उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव का बिगुल बजने से लेकर अब तक हमने संयम से काम लिया है, और सोशल मीडिया पर किसी भी पार्टी के बारे में अपने कोई विचार व्यक्त नहीं किए हैं। वैसे भी जब चुनाव ज़ोरों पर हो, एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का ज़माना हो, तो किसी को कोई गंभीर बात सुनने का मौक़ा ही नहीं मिलता!

लेकिन अब जब माहौल शांत हो गया है और राजनीति के सभी पहलवान थक कर सुस्ता रहे हैं, तो अपनी बात साफ़ तौर पर रखना ज़रूरी लगता है। हो सकता है कि यह लोगों की स्मृति में दर्ज हो जाये और भविष्य में कभी काम आए।

अब जो लोग चुनाव परिणामों का इस तरह विश्लेषण कर रहे हैं कि ऑल इंडिया मजलिस इत्तेहाद-उल-मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) को हर जगह बहुत कम वोट मिले हैं, इसीलिए उन्हें बीजेपी की जीत के लिए ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जाना चाहिए, वे सतही विश्लेषण कर रहे हैं। एमआईएम की ग़लती यह नहीं है कि उन्होंने कुछ मुस्लिम वोट काट लिए हैं, बल्कि एमआईएम की ग़लती यह है कि उसने हिंदू-मुस्लिम राजनीति की लपटों को भड़काने में बीजेपी के क़दम से क़दम मिलाकर बड़ी संख्या में हिंदू वोटों को बीजेपी के पक्ष में मोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। चाहे वे पांच साल से सताए गए दलित हों या अन्य वर्ग हों।

हम एमआईएम या चुनाव में भाग लेने वाली किसी अन्य मुस्लिम पार्टी के ख़िलाफ़ नहीं हैं, न ही हम वोट काटने के तर्क से सहमत हैं। चुनाव में सभी को भाग लेना चाहिए, तभी विकल्प के रूप में नई पार्टियां और व्यक्ति सामने आएंगे। जिस वास्तविक ख़राबी से हमें पूरी तरह असहमति है, वह यह है कि मुस्लिम पार्टी चुनाव अभियान में ऐसी भाषा शैली और ऐसा रवैया अपनाए जिससे भाजपा को अपना वोट बैंक बढ़ाने में मदद मिले।

एमआईएम के भाजपा की बी पार्टी होने का आरोप मेरे नज़दीक बहुत ही ग़लत आरोप है। असल ख़राबी यह है कि एमआईएम मुस्लिम आबादी में पैर जमाने के लिए जिस भाषा का इस्तेमाल करती है, उससे बीजेपी को हिंदू जनता के बीच अपना प्रभाव बढ़ाने में मदद मिलती है।

हाल ही में मुझे असम जाने का अवसर मिला। इस दौरान बड़े-बड़े व्यवसायियों, संस्थाओं और संगठनों के प्रमुखों और विद्वानों से चर्चा हुई! AIUDF (ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ़्रंट) वहां के मुसलमानों का प्रतिनिधि दल है। वह 2006 से चुनाव लड़ रहा है। 2021 में उसे 16 सीटें मिली थीं। वह असम की तीसरी बड़ी राजनीतिक पार्टी है। इसकी उपस्थिति ने मुसलमानों को आश्वस्त किया कि यह उनकी अपनी पार्टी है, जो उनके लिए एक राजनीतिक लड़ाई लड़ेगी। लेकिन हुआ ये कि एक तरफ़ एआईयूडीएफ़ का उदय हुआ तो दूसरी तरफ़ बीजेपी ने पैर जमा लिए और साथ ही कांग्रेस का भी पतन हो गया। 2016 में असम में पहली बार भाजपा सरकार बनी।

हिंदू-मुस्लिम राजनीति का माहौल बीजेपी को सूट करता है, एआईयूडीएफ़ के गठन ने इस माहौल को मुहैया करवाया। आप कहेंगे कि इससे क्या फ़र्क पड़ता है कि सरकार कांग्रेस की है या भाजपा की? कांग्रेस ने मुसलमानों के लिए क्या किया है? लेकिन हक़ीक़त यह है कि इससे फ़र्क पड़ता है। असम में भाजपा की सरकार बनने के बाद से मुसलमान आर्थिक रूप से कमज़ोर हुए हैं। मुसलमानों के बड़े कारोबारों को नुक़सान हुआ है। सेक्युलर सरकार में कुछ भी न मिले तो भी बाधाएं कम मिलती है। साम्प्रदायिक सरकारें तो बड़ी-बड़ी रुकावटें खड़ी करके जीना दुश्वार कर देती हैं।

मुझे लगता है कि यदि असम में मुसलमानों की आर्थिक स्थिति का नियमित सर्वेक्षण किया जाए तो बहुत ही भयावह स्थिति सामने आएगी। विडंबना यह है कि एआईयूडीएफ़ के गठन के बाद असम के मुसलमान राजनीतिक रूप से अलग-थलग और असहाय हो गए हैं। अब उनके पास एक राजनीतिक दल तो है लेकिन कोई राजनीतिक शक्ति नहीं है। किसी भी अल्पसंख्यक वर्ग के लिए सबसे ख़तरनाक स्थिति यह होती है कि उसे राजनीतिक रूप से अलग-थलग कर दिया जाए और उसे राजनीतिक रूप से अछूत बना दिया जाए। उसका एक राजनीतिक दल भी हो, राजनीतिक प्रतिनिधि भी हो, लेकिन वह किसी भी राजनीतिक मांग को उठाने और राजनीतिक विशेषाधिकारों को हासिल करने से वंचित रहे। एक पार्टी और कुछ प्रतिनिधियों की सूरत में घेराबंदी में क़ैद के बाद बहुसंख्यक वोटों से सत्ता में आने बाली सत्ताधारी पार्टी को अल्पसंख्यक वोटों की न ज़रूरत है और न ही उसके ग़ुस्से और विरोध की परवाह है। असम में मुसलमानों की स्थिति उसी दिशा में जा रही है।

केरल में मुसलमानों की अपनी पार्टी इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग है। लेकिन वह मुस्लिम राजनीति की घेराबंदी में क़ैद नहीं है, क्योंकि वह केवल उस क्षेत्र में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करती है जहां मुस्लिम बहुसंख्यक हैं, राज्य के बाक़ी हिस्सों में मुस्लिम अल्पसंख्यक अन्य राजनीतिक दलों के साथ हैं। दूसरी बात यह है कि वह शुरू से कांग्रेस-मित्र और यूडीएफ़ का हिस्सा रही है। दूसरे शब्दों में वह कांग्रेस की अघोषित मुस्लिम शाखा है।

खुद एमआईएम तेलंगाना के सेक्युलर दलों की प्रतिद्वंद्वी नहीं, बल्कि हमेशा किसी न किसी सेक्युलर दल की सहयोगी रही है। एमआईएम तेलंगाना राज्य के मुसलमानों का प्रतिनिधित्व नहीं करती बल्कि हैदराबाद के मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करती है। तेलंगाना में एमआईएम का राजनीतिक रवैया अपनी घेराबंदी में क़ैद हो जाने का नहीं है बल्कि सेक्युलर पार्टियों के साथ गठबंधन में बने रहने की प्रक्रिया का है।

तेलंगाना में एमआईएम ने, केरल में मुस्लिम लीग के समान ही राजनीतिक रुख़ अपनाया है, लेकिन यूपी में एमआईएम ने वो भाषा और रवैया अपनाया जो असम में एआईयूडीएफ़ ने अपनाया है।

यूपी के मुसलमानों ने पोलिंग बूथों पर एमआईएम को ख़ारिज कर दिया, ये भविष्य के लिए एक अच्छा पहलू है। लेकिन मुसलमानों ने एमआईएम की रैलियों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया, जिससे सामान्य स्थिति भाजपा के पक्ष में हो गयी। भाजपा की जन विरोधी नीतियों और खुली विफलताओं के बावजूद, बड़ी संख्या में हिंदू वोट भाजपा के पक्ष में गिरे। कई अन्य कारकों के अलावा, निम्नलिखित दो कारक भी इसमें विशेष रूप से महत्वपूर्ण थे।

एक तरफ़ एमआईएम की बड़ी रैलियां, भावनात्मक भाषण और वो बयान जो ये आभास करा रहे थे कि मुस्लिम वोट एमआईएम के पक्ष में जा रहा है, दूसरी तरफ़ बीजेपी का यह प्रोपेगंडा कि मुस्लिम वोट हिंदुओं के ख़िलाफ़ है, इसीलिए हिंदुओं का वोट सिर्फ़ और सिर्फ़ हिन्दू पार्टी को मिलना चाहिए जो हिन्दू हित की बात करे। उत्तर प्रदेश के चुनावों में बीस और अस्सी का नारा इसी मानसिकता को बनाने के लिए दिया गया था।

यह देखकर हैरानी होती है कि जो पार्टियां मुसलमानों के वोट पर राजनीति कर रही हैं, उनका मुक़ाबला उन पार्टियों से नहीं है जो हिंदुओं के वोटों पर राजनीति कर रही हैं। बल्कि दोनों का मुक़ाबला खुद को तटस्थ कहने वाली सेक्युलर पार्टियों से होता है। ग़ौर से देखें तो हैरानी की बात नहीं है। ज़ाहिर है, शुद्ध मुस्लिम पार्टी का वोट बैंक और शुद्ध हिंदू पार्टी का वोट बैंक बिल्कुल अलग-अलग होता है। यदि दोनों का वोट बैंक बढ़ाया जा सकता है, तो उन वोटों को रिझाने से जो सेक्युलर पार्टियों को जाता है, चाहे वो मुसलमानों का हो या हिंदुओं का! यही वजह है कि ये दोनों पार्टियां एक-दूसरे को टारगेट करने से ज़्यादा सेक्युलर पार्टियों को टारगेट करती हैं। योगी आदित्यनाथ के इस कथन पर विचार करें कि समाजवादी सरकार में हिंदू त्योहारों के दौरान बिजली काट दी जाती थी और मुस्लिम त्योहारों के दौरान पूरे दिन बिजली दी जाती थी। दूसरी ओर, एमआईएम का यह कहना कि समाजवादी पार्टी और भाजपा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

आप पूछ सकते हैं कि गोवा, मणिपुर और उत्तराखंड में बीजेपी की जीत के पीछे किन कारकों का हाथ रहा? आप यह भी कह सकते हैं कि 2017 में यूपी चुनाव में एमआईएम सक्रिय नहीं थी तो बीजेपी को बड़ी जीत कैसे मिली? लेकिन सच्चाई यह है कि इन उदाहरणों का हवाला देने के बजाय हाल के यूपी चुनावों का गंभीरता से विश्लेषण किया जाना चाहिए और यह देखना चाहिए कि किन कारकों ने भाजपा को यह विशेष चुनाव जीतने में मदद की।

हिंदू-मुस्लिम की राजनीति मुस्लिम पार्टियों के साथ-साथ हिंदू पार्टियों की भी ज़रूरत है। दोनों को जीवित रहने के लिए पौष्टिक भोजन बल्कि ऑक्सीजन वहीं से मिलती है। बहुमत के वोट को प्रभावित करने की अपनी क्षमता के कारण हिंदू पार्टी बहुत ताक़तवर हो जाती है, मुस्लिम पार्टी को आमतौर पर मुस्लिम अल्पसंख्यक का वोट नहीं मिलता है, इसलिए वह कमज़ोर रहती है। यदि उसे भी उतनी संख्या में वोट मिलते हैं, तो वह निश्चित रूप से थोड़ी मज़बूत हो जाती है, लेकिन इस सूरत में भी मुस्लिम आबादी का कुछ भी भला नहीं होता, क्योंकि एक राजनीतिक दल एक राजनीतिक ताक़त नहीं बन सकता है।

सबसे बड़ी कमी जो हिंदू-मुस्लिम राजनीति के इस खेल में खलती है, वह धर्मनिरपेक्ष दलों का रवैया है। वे ख़ुद को निष्पक्ष और न्यायप्रिय साबित करने की हर परीक्षा में नाकाम रहते हैं। उनसे सीधे लाभ की उम्मीद करना व्यर्थ है, लेकिन इस बात पर ग़ौर किया जाना चाहिए कि उनकी सरकार में मुसलमानों को अपनी समस्याओं को ख़ुद हल करने और अपनी विकास योजनाओं को ख़ुद बनाने और अंजाम देने के अवसर किस हद तक मिलते हैं।

हम मुसलमानों को अपना राजनीतिक भाग्य धर्मनिरपेक्ष दलों को सौंपने के पक्ष में नहीं हैं। हमारा मानना यह है कि मुसलमानों को इतनी मज़बूत राजनीतिक स्थिति और स्मार्ट राजनीतिक रवैया अपनाना चाहिए कि वे अल्पमत में होते हुए भी राजनीतिक कमज़ोरी और राजनीतिक शोषण का शिकार न हों। चाहे उनके पास कोई राजनीतिक दल हो या न हो, लेकिन उनके पास राजनीतिक ताक़त ज़रूर हो, जो हक़ पसंद और न्याय की अलंबरदार हो।

हम पहले ही ‘ज़िला राजनीतिक पार्टी का विचार’ शीर्षक से एक प्रस्ताव रख चुके हैं, जो फ़ेसबुक पर उपलब्ध है। उम्मीद है कि विद्वान इसे चर्चा का विषय बनाएंगे। अभी इस तरफ़ भी ध्यान देते चलें की तेलंगाना के हैदराबाद में एमआईएम और केरल के मालाबार में मुस्लिम लीग इसीलिए सफल हैं क्योंकि दोनों अपनी-अपनी जगह स्थानीय हैं और दोनों का राज्य की बड़ी पार्टी के साथ गठबंधन है। अपने-अपने क्षेत्र में उनका राजनीतिक रवैया युद्ध का नहीं शांति का है।

एक लोकतांत्रिक देश में अच्छी बात यह है कि चुनाव की संभावना बार-बार आती है। दूसरे शब्दों में, ग़लतियों से सीखने और बेहतर रवैया अपनाने के लिए बार-बार अवसर मिलते इसलिए चर्चा जारी रखें, हो सकता है कि कोई बेहतर तरीक़ा निकल आए।

– डॉ. मुहीयुद्दीन ग़ाज़ी

(ये लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं।)

अनुवाद: मुहम्मद सादिक़

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