पुस्तक समीक्षा: ठिठुरते लैम्प पोस्ट

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अदनान कफ़ील ‘दरवेश’ का ताज़ातरीन और पहला कविता-संग्रह ‘ठिठुरते लैम्प पोस्ट’ पढ़ा। किताब में कुल 97 कविताएँ हैं, जिनमें अच्छी या कम अच्छी जैसी कोई तफ़रीक़ नहीं पाई जाती है, बल्कि सारी कविताएँ अहम हैं और पढ़े जाने से तअ’ल्लुक़ रखती हैं।

दरवेश की कविता भावात्मक एवं विचारात्मक रूप में हमारे सामने कई सवाल खड़े करती है और उत्तर लिए बिना सामने से नहीं हटती। उनकी कविता में संवेदनात्मक स्तर पर एक ईमानदार कोशिश पाई जाती है जो हमें वर्तमान के प्रति जागरूक ही नहीं बनाती वरन् उसका औचित्य समझते हुए उसकी व्याख्या करने की माँग भी करती है।

राजनीतिक विचारधारा, सामाजिक तानाबाना और सांस्कृतिक चेतना के बदलते हुए (बहुधा षडयंत्र से प्रेरित जिसके पीछे पूरा एक गिरोह, एक चलता-फिरता ‘रिमोट कंट्रोल्ड वर्ग’ पूरी मुस्तै’दी से काम कर रहा होता है) ढांचे के प्रति वह असहमति जताते हैं, विरोध करते हैं और चाहते हैं कि अपना मत अपनी आवाज़ में दर्ज करें जिसकी ताक़त उन्हें कविता से मिलती है।

इस तरह की कुछ कविताएँ क्रमशः ‘सन् 1992’, ‘मसखरे की कलाएँ’, ‘गायें’, ‘एक दिन जब सारे मुसलमान’, ‘हत्यारा कवि’, ‘तारीख़ी फ़ैसला’ और ‘देवता’ हैं। चूंकि कविता कभी भी एक फलक का निर्माण नहीं करती, किसी एक आयाम को प्रस्तुत नहीं करती और यदि ऐसा करती है तो वह कमज़ोर और आधारहीन भावुक-विचारोत्तेजक प्रलाप के अतिरिक्त क्या हो सकता है? इन कविताओं में भी असहाय (समाजिक और आर्थिक रूप से—जैसे उनका बॉयकॉट कर दिया गया हो) छोड़ दिए गए आदमी की पीड़ा लक्षित होती है और यह पीड़ा उसकी व्यक्तिगत नहीं रह कर आफ़ाक़ी बन जाती है कि संसार में कहीं भी ना-इंसाफ़ी हो तो उसके साथ ही में घटित हुई मा’लूम होती है।

‘सन् 1992’ में एक मस्जिद जो कि ज़ोर-ज़बरदस्ती के बिना पर ढहा दी गई थी और फिर उसकी ज़मींबोसी एक अल्पसंख्यक समुदाय की तहज़ीबी साइकी से ऐसी संबद्ध हो जाती है कि ख़्वाब में भी पीछा नहीं छोड़ती। और यह क्रम नस्ल-दर-नस्ल यूँही चल रहा है गोया कि एक अहद की तमाम अख़्लाक़ियात, तमाम सियासी और मु’आशरती निज़ाम भरभरा के गिर पड़े हों।

“फिर गाँव के मचान गिरे

शहरों के आसमान गिरे

बम और बारूद गिरे

भाले और तलवारें गिरीं

गाँव का बूढ़ा बरगद गिरा

एक चिड़िया का कच्चा घोंसला गिरा

गाढ़ा-गर्म ख़ून गिरा

गंगा-जमुनी तहज़ीब गिरी

नेता-परेता गिरे

सियासत गिरी”

(कविता: सन् 1992)

प्रेम संबंधी आख्यानक कविताएँ जिनमें मुख्य रूप से बेहद प्रभावित करती हुई क्रमशः ‘तिल’, ‘मेरे ज़ख़्मों पर महुवे की तरह’, ‘विस्मृत प्रेम’, ‘प्रथम मिलन’, ‘तुम’, ‘प्रेम’, ‘वो भूल जाती है’ (इस कविता के संबंध में यह नहीं पता चल पाता है कि नायक चरित्र के लिए नायिका चरित्र किस रूप में अभिव्यक्त हो रहा है? किंतु अभिव्यक्ति शुद्ध प्रेम संबंधी है अतः इसे प्रेम संबंधी आख्यानक कविताओं के क्रम में ही रख रहा हूँ), ‘बहिश्त’, ‘स्मृतियों की गंध’, ‘वहाँ जहाँ कहाँ’, ‘इश्तिहार’, ‘मेरी साँसों को अपने करघे पर बुनने वालीं तुम’, ‘याद का शहर’, ‘शरद की सुब्ह का आ’लम’, ‘भरपेट मौत’ और ‘शेष-अशेष’ आदि।

इन सारी कविताओं में कवि भावुक भी होता है, पीड़ित भी होता है और प्रतीक्षा के बाणों से घायल भी… अर्थात् प्रेम के हर चरण के लिए स्वयं को तैयार कर लेता है। कभी-कभी वह विरह वेदना को अमूर्त से मूर्त रूप देने के लिए भाव-विलोपन की प्रक्रिया में इस तरह शब्द संयोजन प्रस्तुत करता है कि भावोत्तेजक कल्पना एक चित्र उकेरती है—प्रियतमा का सबसे सुंदर और गतिमान चित्र। कवि सर धुनता है और विलाप की पीड़ा से मुक्ति भी नहीं चाहता। यह बिंब को लेकर प्रयोग हैं जो कहीं सफल होते हैं और कहीं अब्स्ट्रैक्ट की नज़्र हो जाते हैं —

“लेकिन दिल है कि रोक लेता है बार-बार

कि इसे जिब्रील अमीन का है इन्तिज़ार

जो इसे एक दिन अपना बुर्राक़ सौंप देंगे

कि इसे ख़ुशफ़हमियाँ बहुत हैं

जिनके हाथों ये कल क़त्ल कर दिया जाएगा

प्यासा और निहत्था

किसी कर्बला में”

(कविता: बहिश्त)

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“आँसुओं की धुंधली शाम में काँपती है तुम्हारी आकृति

मन का घायल लहूलुहान पंछी

करता है एक आख़िरी नाकाम कोशिश

आत्मा का जल

फैल जाता है

रात के निरभ्र आकाश में…”

(कविता: स्मृतियों की गंध)

हक़ीक़ी रिश्ते (मां-बाप, भाई-बहन), गाँव, मौसम, सुब्ह-दोपहर-शाम, मज़दूर, चौकीदार और कई महत्वपूर्ण विषयों पर दरवेश ने कविताएँ लिखी हैं। उनके कथ्य में गाँव एक कवि के द्वारा व्यक्त शब्द-चित्रों में नहीं बल्कि एक किसान, एक अल्हड़ किशोरवय और एक मज़दूर के द्वारा देखे जाने वाले वास्तविक ग्राम्य जीवन के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है। इस जीवन में मां के द्वारा कांधे पर गमछा डाल कर शहर जाते हुए पिता हैं, पिता के बा’द शहर जाते हुए बेटे के कांधे पर वही पिता का गमछा डाल कर ज़िम्मेदारी सौंपती हुई मां है, मां-बाप से बच्चों के जज़्बाती संबंधों का एक भावुकतापूर्ण और स्नेह के मज़बूत धागों से बुना घर की उजली तरबियत का ताक़तवर बयानिया है, मिट्टी से जुड़े और अपनी ज़मीन के तईं एक विशेष प्रकार के अलमस्त लगाव के सुंदर, ब्लैक एंड व्हाइट, यादों के सैंकड़ों एल्बम हैं जिनमें कवि का सारा बचपन साँस ले रहा है। धर्म का वह रूप जो भारतीय संस्कृति में रचे-बसे सेक्युलर कल्चर की ज़मानत है…

“जब मुल्क की हवाओं में

चौतरफ़ा ज़हर घोला जा रहा है

ठीक उसी बीच मेरे गाँव में

अनगिनत ग़ैर-मुस्लिम मांएँ

हर शाम वक़्त-ए-मग़रिब

चली आ रही हैं अपने नौनिहालों के साथ

मस्जिद की सीढ़ियों पर”

(कविता: अपने गाँव को याद करते हुए)

स्त्री विमर्श को केंद्र में न रखकर एक आदमी की अपनी मां के प्रति बिल्कुल फ़ितरी भावनाओं के ज़रिए, औरत की क़द्र-ओ-क़ीमत को समझने की एक कामयाब कोशिश, मां के श्रम और बलिदान को एक सशक्त विषय के रूप में सबके सामने लाना…

“मां के लिए दुनिया में क्यों नहीं लिखा गया

अब तक कोई मर्सिया, कोई नौहा?

मेरी मां का ख़ुदा इतना निर्दयी क्यों है?

मां के श्रम की क़ीमत

कब मिलेगी आख़िर इस दुनिया में?

मेरी मां की उम्र

क्या कोई सरकार, किसी मुल्क का आईन

वापस कर सकता है?

मेरी मां के खोए स्वप्न

क्या कोई उसकी आँख में

ठीक उसी जगह

फिर रख सकता है

जहाँ वे थे?”

(कविता: क़िब्ला)

बचपन और बच्चे, ऐसा लगता है जैसे कवि ने इस विषय पर काफ़ी कुछ ख़र्च किया है। कवि के लिए बच्चे एक नई दुनिया के निर्माता के रूप में अवतरित होते हैं और निराशा के दिनों में भी बच्चों को वह आशा के नए बिंब, नए प्रतीक के रूप में स्थापित कर देना चाहता है।

“एक दिन मेरी दुनिया के तमाम बच्चे

चींटियों, कीटों

नदियों, पहाड़ों, समुद्रों

और तमाम वनस्पतियों के साथ

मिलकर धावा बोलेंगे

और तुम्हारी बनाई हर चीज़ को

खिलौना बना देंगे।”

(कविता: एक दिन मेरी दुनिया के तमाम बच्चे)

अदनान कफ़ील ‘दरवेश’ ने एक अजीब काम किया है कि ग़ज़लों पर बा-क़ाइदा उन्वान (शीर्षक) चस्पा कर दिए हैं। हालांकि ग़ज़ल उन्वान नहीं रखती, उन्वान नज़्मों के होते हैं। अगर उन्वान न भी लगाए गए होते तो भी उन ग़ज़लों की मा’नवियत में कोई कमी-ज़ियादती नहीं होती। कुछ प्यारे शेर हैं —

ऊँचे-ऊँचे साए हैं बस

जिसमें चंदा नाच रहा है

आँख हैं जादू साँस हैं मंतर

ख़ंजर भी इक ज़हर बुझा है

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आँसुओं से धुलेगी आज की रात

तेरी चौखट पे खूँ चढ़ा होगा

मर्ग पर भी कहाँ टला है ये

फिर कोई और सानिहा होगा

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वक़्त-ए-जुदाई आन पड़ी है, उससे आँख चुराता हूँ

जिन आँखों में ख़्वाब सजे थे, भीतर-बाहर जाला है

लौट तो आया हूँ मैं याँ पर, कौन मुझे पहचानेगा

दीवारों पर घास उगी है, दरवाज़े पर ताला है

मैं अदनान कफ़ील ‘दरवेश’ साहब को इस किताब के लिए बहुत-बहुत मुबारकबाद देता हूँ और हर पाठक के लिए इस किताब की वकालत करता हूँ।

– मुमताज़ इक़बाल

(लेखक अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के छात्र हैं।)

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