पुलवामा अटैक के बाद देशवासियों के गुस्से की ज्वाला फूट पड़ी है हर कोई सरकार से कड़े कदम की मांग कर रहा है। हमारे देश के वीर जवान हमारी रक्षा के लिए दिन रात ड्यूटी करते हैं और उन 42 अर्द्धसैनिक बल के जवानों ने शहीद होकर भी हमें एक कर गए। उनकी शहादत पर पूरा देश सारी नफरतों को भुला कर एक साथ खड़ा उन शहीदों के खून का बदला मांग रहा है। लोगों में गुस्सा है, नफरत है, दर्द है, कुछ न कर पाने का मलाल है। इस समय हर कोई एक ही आशा कर रहा है कि काश! उसे एक मौका मिल जाए तो वह दुश्मनों को मज़ा चखा दें।
आपका गुस्सा, नफरत और शहीदों के प्रति श्रद्धा बिलकुल सच्ची और जायज़ है। उनके परिवार के प्रति आपकी संवेदना भी सच्ची है और होनी भी चाहिए। लेकिन कितने दिनों तक आप गुस्से में रहेंगे? कितने दिन आप शहीदों को याद रखेंगे? क्या इससे पहले देश के लिए जवान शहीद नहीं हुए? आप मानें या ना मानें हकीकत हमेशा तल्ख ही होती है।
हमारे देश का यह दुर्भाग्य है जब तक कोई बड़ी घटना नहीं हो जाती तब तक हमारी श्रद्धा और संवेदना सीमित रहती है। जिस कश्मीर में यह दुर्भाग्यपूर्ण आतंकी हमला हुआ है उसी धरती के स्वर्ग में हर रोज़ दो-चार जवान शहीद होते ही रहते हैं। पुलवामा अटैक के पहले भी हुए और बाद में भी हुए। उस पर हमारी नज़र कम ही पड़ी और अगर पड़ी भी तो उसे उतना गंभीर नहीं लिया। ऐसा क्यों होता है? क्यों हम केवल मीडिया द्वारा प्रायोजित की हुई देशभक्ति को ही असली देशभक्ति समझ बैठते हैं?
जिस 14 फरवरी के काले दिन जम्मू के पुलवामा में आंतकी अटैक हुआ उसी दिन जम्मू के करन नगर इलाके में सीआरपीएफ कैम्प में आंतकियों से लोहा लेते शहीद हुए बिहार के भोजपुर जिले के पीरो गांव के मुजाहिद खान के घर केंद्र या राज्य सरकार का कोई मंत्री नहीं पहुंचा। मीडिया में भी इक्का-दुक्का खबर आयी और बाकी ने इसको कवर करना ज़रुरी नहीं समझा। क्या शहीद मुजाहिद खान की शहादत कोई ज़रुरी ख़बर नहीं थी? क्या उनके परिवार वालों को दुख नहीं हुआ? या फिर देश के लिए कुरबान होने वालों को भी धर्म-संप्रदाय से बांट कर देखा जाता है? हमारे देश में देशभक्ति की ऐसी स्वघोषित सीमा बना दी गयी है कि बस उसी सीमा में रहकर आप को देशभक्ति साबित करनी है। अगर आप उस परिधि के अंदर नहीं आते तो आप फिर चाहे कितने बड़े देशभक्त हो जायें आपको समझा नहीं जाएगा।
पीरो गांव निवासी राजमिस्त्री रहे अब्दुल खैर खान के पुत्र मुजाहिद सिंतबर वर्ष 2011 में सीआरपीएफ की 49वीं बटालियन में शामिल हुए थे यह सोचकर कि देश की रक्षा करना और अमन-शांति बरकरार रखना उनका फर्ज़ है। उनके पिता ग़मज़दा लहज़े में बताते हैं कि मुजाहिद को बचपन से देश की रक्षा करने का जुनून सवार था और इसी लिए वह 2011 में सीआरपीएफ में चले गए। क्या मुजाहिद की देश के लिए दी गयी कुरबानी में कोई कमी रह गयी थी जो देशभक्ति के नाम पर सियासत करने वाले नेताओं ने उनकी शहादत पर उनके घर जाना भी ज़रुरी नहीं समझा? परिवार को बेटे के खोने का तो दुख कोई शब्दों में बयां ही नहीं कर सकता लेकिन उस पर और अधिक दुख इन नेताओं का रवैया भी दे गया। परिवार वालों को सबसे ज़्यादा इस बात का दुःख है कि स्थानीय ज़िला अधिकारी एक पांच लाख का चेक लेकर पहुंचे जबकि एक दिन पूर्व बिहार के खगड़िया जिले के मृतक सैनिक के परिवार वालों को ग्यारह लाख का चेक दिया था।
राज्य सरकार का कहना है कि वर्तमान में शहीद सैनिक के परिवार वालों को 11 लाख और अर्ध सैनिक बल के जवान को पांच लाख देने का प्रावधान है। हालांकि ज़िला अधिकारी ने परिवार वालों को भरोसा दिलाया है कि राज्य सरकार उनकी मांगों पर विचार कर रही है। लेकिन सवाल है कि नीतीश सरकार शहीदों के परिवार वालों के साथ भेदभाव वाली नीति में बदलाव कब लाएगी। हालांकि देश पर जान न्योछावर करने वाले मुजाहिद खान के जनाजे में जनसैलाब उमड़ पड़ा। शहीद जवान को अंतिम विदाई देने के लिए उनके गांव के अलावा आसपास के कई गांवों से हजारों लोग पीरो पहुंचे। पीरो के ऐतिहासिक पड़ाव मैदान में शहीद मुजाहिद के जनाजे की नमाज पढ़ी गई, जिसमें हजारों लोगों ने भाग लिया। पीरो के दुकानदारों ने अपनी दुकानों को बंद रखा और शव यात्रा में शामिल हुए। जनाजे में शामिल लोगों ने ‘पाकिस्तान मुर्दाबाद’ के नारे भी लगाए। लेकिन सरकार और मीडिया की तरफ से की गयी अनदेखी उनके परिवार को हमेशा पीड़ा देती रहेगी।
सोचने की आवश्यकता है कि हम केवल चार दिन आक्रोश जताकर खुद को देशभक्त मान लेते हैं लेकिन क्या देश के लिए जान कुरबान करने वालों के प्रति वास्तव में हमारे मन में सच्ची श्रद्धा होती है? और अगर है तो शहादत पर इस प्रकार का दोहरा रवैया क्यों अपनाया जाता है? क्यों हम अपनी देशभक्ति की भावना को जाग्रत करने के लिए किसी बड़ी घटना का इंतज़ार करते हैं?