साम्प्रदायिकता परोसने का साधन बनती पाठ्यपुस्तकें

विभिन्न राज्यों की पाठ्य-पुस्तकों व पाठ्यक्रम में इस्लाम/मुस्लिम विरोधी सामग्री के लगातार शामिल होते रहने को शिक्षा के साम्प्रदायिकीकरण एवं युवा विचारों के विषकरण की सुनियोजित कोशिश मान रहे हैं युवा पत्रकार अहमद क़ासिम ।

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जिस दौर में हम आपसी सद्भाव की अनथक कोशिशों के बीच विफल साबित होते दिख रहे हैं और साम्प्रदायिकता की जड़ें मज़बूत होती दिख रही हैं, उस दौर में हमारे लिए साम्प्रदायिकता के विभिन्न रूपों को समझना बेहद ज़रूरी हो जाता है। यूं तो साम्प्रदायिकता का हर रूप ख़तरनाक है लेकिन सबसे ज़्यादा चिंता का विषय साम्प्रदायिकता का शिक्षा के ज़रिए लोगों तक पहुंचना है। हमेशा से यह माना जाता रहा है कि शिक्षा इंसान को असल रूप में इंसान बनाती है। शिक्षा के ज़रिए इंसान सही और ग़लत का अर्थ समझता है। शिक्षा इंसान को इंसान के प्रति सम्मान सिखाती है। जब भी समाज ग़लत रुख़ पर बढ़ता है तो शिक्षा का बैरिकेड उसे रोकता है और सही दिशा से परिचित कराता है। ऐसे में शिक्षा हासिल करने वाले हर व्यक्ति से यह उम्मीद की जाती है कि वह वैचारिक तौर पर बहुत मज़बूत साबित होगा, उसके विचार आपसी प्रेम, सद्भाव, भाईचारे को बढ़ावा देने वाले होंगे। लेकिन इन विचारों का विषकरण करने के प्रयास किए जाएं या यूं समझें कि इन विचारों में साम्प्रदायिकता का ज़हर घोलने का प्रयास किया जाए तो आपकी क्या प्रतिक्रिया होगी?

अगर आप इसे गंभीर विषय नहीं समझते हैं तो आप ग़लत हैं। इसे गंभीर विषय क्यों समझा जाना चाहिए इसी पर मैं आपका ध्यान केंद्रित कराना चाहता हूं। राजस्थान में बीते दिनों राज्य पाठ्यपुस्तक मंडल द्वारा जारी की गई बाहरवीं कक्षा की राजनीति विज्ञान की पुस्तक काफ़ी चर्चा में रही। राजस्थान पाठ्यपुस्तक मंडल की ओर से जारी की गई इस किताब के एक अध्याय में एक सवाल किया गया था।  सवाल था कि आप “इस्लामी आतंकवाद से क्या समझते हैं?” इसी प्रश्न को “संजीव प्रकाशन” नामक एक प्रकाशन ने अपनी गाइड बुक में शामिल किया। गाइड बुक में सवाल एकदम ठीक वही था जो राज्य पाठ्यपुस्तक मंडल की किताब में था लेकिन यहां इसका जवाब इस सवाल से भी ज़्यादा ख़तरनाक था। आप सवाल और जवाब को एक बार ठीक से पढ़िए और ग़ौर करिये कि शिक्षा के ज़रिए छात्रों को क्या परोसा जा रहा है –

प्रश्न: इस्लामी आतंकवाद से आप क्या समझते हैं?

उत्तर: इस्लामी आतंकवाद इस्लाम का ही एक रूप है, यह विगत 20-30 वर्षों में अत्यधिक शक्तिशाली बन गया है। आतंकवादियों में किसी एक गुट विशेष के प्रति समर्पण का भाव नहीं होकर एक समुदाय विशेष के प्रति समर्पण भाव होता है। समुदाय के प्रति प्रतिबद्धता इस्लामी आतंकवाद की मुख्य प्रवृत्ति है। पंथ या अल्लाह के नाम पर आत्मबलिदान और असीमित बर्बरता, ब्लैकमेल, जबरन धन वसूली और निर्मम व नृशंस हत्याएं ऐसे आतंकवाद की विशेषता बन गई हैं। जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद पूर्णतः धार्मिक व पृथकतावादी श्रेणी में आता है।

जब यह मामला सोशल मीडिया के ज़रिए तूल पकड़ने लगा और संजीव प्रकाशन के विरुद्ध धर्म विशेष के प्रति नफ़रत परोसने के मामले में कार्रवाई की मांग तूल पकड़ने लगी तब संजीव प्रकाशन ने लिखित माफ़ीनामा पेश करते हुए मार्केट में पहुंच चुकी गाइड बुक को वापस लेने की बात कही। अब सवाल यह उठता है कि क्या संजीव प्रकाशन के किताबों को वापस मंगा लेने भर से यह मामला ख़त्म हो जाएगा? बताया जा रहा है कि राजस्थान राज्य पाठ्यपुस्तक मंडल की जिस किताब से यह मामला शुरू हुआ था वह किताब 2017 में भाजपा सरकार द्वारा तैयार करवाई गई थी। लेकिन राज्य में कांग्रेस सरकार ने 2020 के आख़िर में इस किताब से कुछ अध्याय हटाए थे और कुछ नए अध्याय के साथ किताब को कांग्रेस सरकार ने पाठ्यक्रम में शामिल किया था। अब सवाल यह है कि राजस्थान की कांग्रेस सरकार द्वारा किताबों के कंटेट को निर्धारित करने वाली लेखक समिति ने इस विवादित सवाल को क्यों बरक़रार रखा?

जब आप इस सवाल और जवाब को ग़ौर से पढ़ेंगे तो अच्छे से समझ पाएंगे कि लेखक ने इस्लाम धर्म को सीधे तौर पर आतंकवाद से जोड़ कर दिखाया है। ऐसे सवालों और जवाबों के ज़रिए एक धर्म के प्रति नफ़रत का माहौल तैयार करने का प्रयास किया जा रहा है। दुखद स्थिति यह है कि इस तरह का कंटेट विषय को पढ़ाने वाले टीचर्स की नज़र से क्यों नहीं गुज़रता?

शिक्षा के माध्यम से इस्लाम के प्रति इस तरह की घृणा का संदेश कई रूपों में पहुंचाया जाता रहा है जिसके कई उदाहरण हमारे सामने हैं। लगातार इतिहास की किताबों में मुग़ल शासकों को क्रूर और निरंकुश दिखाते हुए इसे इस्लाम से जोड़कर प्रस्तुत किया जाता रहा है।  हाल ही में ठीक एक और ऐसा ही मामला एमबीबीएस की किताब में कोरोना को तब्लीग़ी जमाअत से जोड़कर दिखाने का सामना आया, हालांकि विरोध के बाद इसे हटाए जाने की बात कही गई।

अब आप अंदाज़ा लगाइये कि इस तरह के कंटेट का एक छात्र की मनःस्थिति पर क्या प्रभाव पड़ता होगा? जब उसकी किताब उसे यह बताए कि उसके बग़ल में बैठे किसी साथी का धर्म आतंकवाद की शिक्षा देता है तो उसका रवैया अपने साथी के प्रति कैसा होगा? होना यह चाहिए था कि समाज में उत्पन्न हो रही इस तरह की सोच के ख़िलाफ़ ये किताबें लड़ने का काम करतीं लेकिन अफ़सोस कि इन किताबों को भी नफ़रत के माहौल को बढ़ावा देने के लिए तैयार कर दिया गया है। इन किताबों में इस तरह के कंटेट के ज़रिए छात्रों के ज़हन तक साम्प्रदायिक सोच को पहुंचाने का प्रयास किया जा रहा है।

2018 में सेंटर फ़ॉर एजुकेशनल रिसर्च एंड ट्रेनिंग (सीईआरटी) ने मध्यप्रदेश, हरियाणा, राजस्थान एंव अन्य कुछ राज्यों के पाठ्यक्रमों का एक समीक्षात्मक अध्ययन किया था, जिसे “युवा विचारों का विषकरण” नामक किताब की शक्ल में लाया गया। इस किताब में विभिन्न पाठ्यक्रमों और पाठ्य-पुस्तकों से बहुत बड़े स्तर पर इस तरह का कंटेट निकाला गया जो बहुत हद तक संवैधानिक मूल्यों एवं नेशनल करीकुलम फ़्रेमवर्क (NCF) के नियमों के विरुद्ध था।

संविधान ने सभी धर्मों को समान अधिकार देते हुए सभी धर्मों के प्रति सम्मान की दृष्टि का संदेश दिया है लेकिन एक वैचारिक धड़े की ज़हनी उपज ने संविधान के संदेशों को ताक पर रखते हुए शिक्षा का साम्प्रदायिकीकरण करने का लगातार प्रयास किया है जो सीधे तौर पर संवैधानिक मूल्यों का हनन है।

शिक्षा के माध्यम से सांप्रदायिकता परोसने की प्रयोगशाला बनता राजस्थान

राजस्थान पाठ्यपुस्तकों के माध्यम से इस तरह का कंटेट प्रसारित करने के मामले में हमेशा चर्चित राज्य रहा है। इसका अहम कारण हर पांच साल में सत्ता परिवर्तन को भी माना जाता है। हर राजनीतिक दल की एक वैचारिक समझ होती है और जैसा कि लेख की शुरुआत में बताया गया कि अपने विचारों को दूसरों के दिमाग़ तक पहुंचाने में बहुत बड़ी भूमिका पाठ्य-पुस्तकों की होती है। इसीलिए जब भाजपा सत्ता में होती है तो वह अपने विचारों को प्रमुखता देती है और कांग्रेस अपने समय में अपने विचारों को प्राथिमकता देती है। लेकिन पाठ्य-पुस्तकों में इस्लाम का ग़लत प्रचार दोनों समय में बराबरी से देखा जाता रहा है। भाजपा कार्यकाल के दौरान धार्मिक ग्रन्थ को पाठ्यक्रम में शामिल किया गया था जिसका उस समय काफ़ी विरोध किया गया। भारत का सविंधान जहां धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार देता है वहीं सभी धर्मों को समान नज़रिए से देखने की बात भी करता है। लेकिन अल्पसंख्यक वर्ग के साथ हमेशा इस सतह पर भेदभाव किया जाता रहा है। हिन्दू धर्म की मान्यताओं को भारतीय संस्कृति और देशप्रेम के नज़रिए से प्रदर्शित किया जाता है और बच्चों को इसे भारत के निर्माण और भारतीय धर्म के आधार पर समझाया जाता है। इसका उदहारण बीते कुछ वर्षों में योग की शिक्षा के माध्यम से समझा जा सकता है। राजस्थान अध्ययन की किताबों में सूर्य नमस्कार को एक सामाजिक ज़रूरत बनाकर पेश किया गया जबकि यह एक धार्मिक कार्यविधि है। हालांकि इसका भी बड़े स्तर पर विरोध हुआ था।

हाल ही में गुज़रे इन दोनों मामलों पर मुसलमानों की प्रतिक्रिया को देखकर महसूस होता है की मुसलमान इस रवैये से अवगत हो रहे हैं लेकिन शिक्षा के ज़रिये युवा सोच और विचार के साथ हो रहे इस खिलवाड़ का मुकाबला एक योजना के तहत किया जाना आवश्यक है। जो बच्चे इन किताबों को पढ़ रहे हैं उन्हें इस स्थिति से अवगत कराया जाना बहुत ज़रूरी है।

सरकारें पाठ्य-पुस्तकों के माध्यम से अपनी छवि को सुधारने और महिमामंडन का भरपूर प्रयास करती हैं। इतिहास को तोड़-मरोड़ कर पेश करने का प्रयास होता है ताकि बच्चों के ज़हन में उनके विचार स्थापित हो जाएं, लेकिन यह स्थिति हमारे समाज के लिए बहुत हानिकारक है। यदि हम बच्चों को इस तरह तैयार किए जाने से नहीं बचा पाएंगे तो इन विचारों का प्रभाव आने वाला समाज भुगतेगा जहां एक दूसरे के प्रति नफ़रत के सिवा और कुछ नहीं होगा।

सरकार से सवाल किया जाना बहुत ज़रूरी है कि कैसे सरेआम संविधान के मूल्यों की धज्जियां उड़ाई जा सकती हैं? यदि हम शिक्षा के साथ हो रहे इस खिलवाड़ को लेकर सचेत नहीं हैं तो यह हमारे भविष्य के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती हो सकती है। किताबें समाज के हर हिस्से में पहुंचती हैं। गांव-देहात के बच्चों तक भी पहुंचती हैं तो शहर का बच्चा भी इन किताबों से गुज़रता है। अगर हम इस तरह के सवालों के ज़रिए शिक्षा देने की कोशिश के ख़िलाफ़ चुप रहे तो यह एक ख़तरनाक मोड़ की तरह एक खुला इशारा है।

– अहमद क़ासिम (स्वतंत्र पत्रकार)

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