[स्मृति शेष] प्रोफ़ेसर सिद्दीक़ हसन: एक व्यक्ति, एक युग

इसमें कोई संदेह नहीं है कि वे एक विज़नरी लीडर थे लेकिन जो चीज़ उनको दूसरे लीडरान से अलग करती है वह यह कि वे विज़न के साथ-साथ एक्शन में न सिर्फ़ यक़ीन बल्कि अमल भी करते थे। अल्लामा इक़बाल के शब्दों में कहें तो वह केवल “गुफ़्तार के गा़ज़ी” (शब्दों के नायक) नहीं थे बल्कि “किरदार के गा़ज़ी” (कर्म और व्यवहार के आदमी) थे। वे हमेशा ज़मीन पर काम करने के लिए तैयार रहते थे और न केवल मार्गदर्शन करते थे बल्कि सामान्य सहकर्मियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करते थे।

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प्रोफ़ेसर के. ए. सिद्दीक़ हसन, जिनका बीते मंगलवार कोज़िकोड में निधन हो गया, उन्हें बहुत-सी चीज़ों के लिए सप्रेम याद किया जाएगा। कुछ लोगों के लिए वह जमाअत-ए-इस्लामी हिंद के एक वरिष्ठ लीडर थे, जो केरल के प्रदेश अध्यक्ष और राष्ट्रीय उपाध्यक्ष जैसी अहम ज़िम्मेदारियों पर कार्यरत रहे। कुछ लोगों के लिए वह एक इस्लामी विद्वान थे, जो धर्म और अरबी भाषा की गहरी समझ रखते थे। कुछ अन्य लोगों और समूहों के लिए, वह एक दूरदर्शी मुस्लिम लीडर थे, जिन्होंने कई महत्वपूर्ण परियोजनाओं, जैसे माध्यमम अख़बार, विज़न 2016 (अब 2026) और सेंटर फ़ॉर इन्फ़ॉर्मेशन एंड गाइडेंस इंडिया (CIGI) की संकल्पना की।

हालांकि इन परिचयों में से कोई भी ग़लत नहीं हैं।‌ लेकिन दो साल उनके साथ काम करने के आधार पर मैं यह कहूँगा कि वह उन बेहतरीन व्यक्तियों में से एक थे जिनसे मैं अब तक मिला और जिनके साथ मुझे काम करने का मौक़ा मिला।

सिद्दीक़ हसन साहब ऐसोसिएशन फ़ॉर प्रोटेक्शन ऑफ़ सिविल राइट्स (APCR) के सचिव थे, जब मैंने उनके साथ अगस्त 2008 से जुलाई 2010 के बीच काम किया। हालांकि वह सीधे तौर पर मेरे बॉस नहीं थे, फिर भी मेरी उनके साथ अक्सर बात-मुलाक़ात होती रहती थी। इसकी बुनियादी वजह तो यह थी कि मेरे बॉस और एपीसीआर के निर्देशक डॉ० शकील अहमद अहमदबाद में थे और अक्सर सलाह-मशविरे के लिये मुझे सिद्दीक़ हसन साहब के पास जाना पड़ता था। लेकिन दूसरी और ज़्यादा अहम बात यह थी कि वे नौजवानों से हमेशा जुड़े रहना चाहते थे ताकि उनको पता चलता रहे कि देश-समाज में क्या हो रहा है। साथ ही वह स्वयं नौजवानों के अंदर छुपी सलाहियतों का सही इस्तेमाल कर सकें। इसीलिए यह आश्चर्य की बात नहीं थी कि मरकज़ जमाअत में उनका कमरा अक्सर युवाओं से भरा पाया जाता था, जिनमें मर्द-औरत/लड़के-लड़कियां दोनों शामिल होते थे।

अपनी बेहद व्यस्त दिनचर्या के बावजूद, वह हमेशा लोगों के लिए वक़्त निकाल लेते थे। वह हमेशा ज़रूरतमंद लोगों के लिए, जिसमें परामर्श देना, व्यक्तिगत मार्गदर्शन करना,  वित्तीय सहायता प्रदान करना, यहां तक कि इस्लाम से संबंधित प्रश्नों के उत्तर देना शामिल हैं,  के लिए हमेशा तैयार रहते थे। वह एक गहरे धार्मिक व्यक्ति थे लेकिन बिल्कुल भी हठधर्मी नहीं थे। वह स्वयं सभी इस्लामी कर्तव्यों का पालन ठीक समय पर करते थे लेकिन उन्होंने कभी भी अपने सहकर्मियों को इसके लिए मजबूर नहीं किया।

मुझे लगता है कि उनकी सफलता का एक बड़ा कारण यह था कि वे बख़ूबी जानते थे कि सारा काम उनसे ख़ुद करना संभव नहीं होगा। इसीलिए ख़ुद काम करने के साथ-साथ वह अपने आस-पास सक्षम लोगों को काम सौंपते थे। वह लोगों में उनकी सलाहियतों के हिसाब से अवसर तलाशते रहते, उनसे लगातार बातचीत करते और उनके साथ मिलकर काम करने के लिए एक कॉमन ग्राउंड तैयार करने में लगे रहते थे। जब एक बार उन्होंने महसूस कर लिया कि इस व्यक्ति में कुछ करने की क्षमता है तो वह न केवल उसे ज़िम्मेदारी देते बल्कि उस व्यक्ति को अपने तरीक़े से काम करने की आज़ादी भी देते थे। यह ऐसी चीज़ है जिसे मैं यक़ीन के साथ कह सकता हूं और मुझे यक़ीन है कि उनके साथ काम करने वाले ज़्यादातर लोग मुझसे सहमत होंगे।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि वे एक विज़नरी लीडर थे लेकिन जो चीज़ उनको दूसरे लीडरान से अलग करती है वह यह कि वे विज़न के साथ-साथ एक्शन में न सिर्फ़ यक़ीन बल्कि अमल भी करते थे। अल्लामा इक़बाल के शब्दों में कहें तो वह केवल “गुफ़्तार के गा़ज़ी” (शब्दों के नायक) नहीं थे बल्कि “किरदार के गा़ज़ी” (कर्म और व्यवहार के आदमी) थे। वे हमेशा ज़मीन पर काम करने के लिए तैयार रहते थे और न केवल मार्गदर्शन करते थे बल्कि सामान्य सहकर्मियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करते थे।

मुझे याद आता है कि 2008 में एपीसीआर से जुड़ने के पहले महीने के अंदर ही मैं उनके साथ बिहार के कोसी क्षेत्र की यात्रा पर गया था, जहां उस साल अगस्त के महीने में भीषण बाढ़ आई थी। वहां पहुंचने पर उन्होंने न केवल राहत और बचाव कार्य की निगरानी की बल्कि उन्होंने राहत देने और प्रभावित लोगों से मिलने के लिए सुदूर क्षेत्रों का दौरा करने के अलावा भविष्य की कार्य योजना के लिए भी रूपरेखा तैयार की। शायद यह पहली बार था कि जमाअत का इतना बड़ा लीडर  (उस समय वे जमाअत के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष थे) इस तरह काम करने के लिए पहुंचे थे।

वह बिना थके, लगातार काम करने वाले इंसान थे। मैं अक्सर रात में कम से कम 10 बजे तक उन्हें रात के खाने के बाद काम करते देखता। वास्तव में, हमारी अधिकांश बैठकें, यदि आकस्मिक नहीं होतीं, तो इशा की नमाज़ के बाद होती थीं। लेकिन मैं यह भी बताना चाहता हूं कि यह सही है कि वे खुद घड़ी देखकर काम नहीं करते थे मगर उनकी मांग नहीं होती थी कि उनके सहकर्मी भी वैसा ही करें। वह दृढ़ और लक्ष्य-उन्मुख थे लेकिन लक्ष्य का पीछा करते हुए या एक निर्धारित लक्ष्य को पूरा करते समय इंसानियत और संवेदना का दामन नहीं छोड़ते।

मेरी राय में मरकज़ जमाअत में उनकी उपस्थिति ने वहां की कार्य संस्कृति में काफ़ी बदलाव किया। उनके आगमन और उपस्थिति की वजह से मरकज़ जीवंत, बहु-सांस्कृतिक, बहुभाषी और प्रतिनिधित्व का केंद्र बना। दिल्ली में अपने कार्यकाल के दौरान, उन्होंने सिर्फ़ दफ़्तर में बैठने के बजाय देश के अनेक हिस्सों, विशेष रूप से उत्तरी और पूर्वी भारतीय राज्यों की यात्रा की। उनकी कार्यशैली वैसी ही थी जैसा कि हमें अक्सर पत्रकारिता में “बताने के बजाए दिखाने” के लिए कहा जाता है। वह एक जीवित उदाहरण थे कि एक लीडर को कैसा होना चाहिए।

यह सिद्दीक़ हसन साहब ही थे जिन्होंने जमाअत, उसके सदस्यों और उत्तर और पूर्वी भारत के कार्यकर्ताओं और उनके कामों में विविधता लाने और सामाजिक रूप से अधिक प्रासंगिक बनने में मदद की। उनके प्रयासों के बदौलत, आज (विज़न 2026 के तहत) शिक्षा, महिला सशक्तीकरण, माइक्रो फ़ाइनेंस, मानव अधिकार, क़ानूनी सहायता, आपदा प्रबंधन, कौशल विकास आदि के क्षेत्रों में उत्तरी एवं पूर्वी भारत में कई संगठन काम कर रहे हैं। उन्होंने कल्याणकारी सक्रियता के प्रयासों को एक अधिकार-आधारित दृष्टिकोण के साथ जोड़ दिया, जो हाशिए पर रहने वाले लोगों को पूरी तरह से ग़ैर-सरकारी संगठनों या सरकार की दया दृष्टि पर निर्भर नहीं छोड़ता।

वे अक्सर मुझसे कहते थे कि हमें सरकार और उसकी एजेंसियों को लोगों के लिए काम करने और उन्हें जवाबदेह बनाने के लिए लड़ना जारी रखना चाहिए लेकिन साथ ही हमें तत्काल राहत के संदर्भ में जो भी संभव है वह भी करना चाहिए। उनके बारे में उल्लेखनीय था कि जबकि वह बुद्धिमान थे और उन्हें पता था कि क्या करने की ज़रुरत है, फिर भी वह हमेशा सीखने और नये तजुर्बे करने के लिए तैयार रहते थे।

यह सच है कि वह मुख्य रूप से जमाअत के एक ज़िम्मेदार और लीडर थे लेकिन यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि उनका दिल हमेशा भारत के पूरे मुस्लिम समुदाय की बेहतरी और उन्नति के लिए धड़कता था। यही नहीं वह हमेशा मानवता के कल्याण के लिए चिंतित रहते थे। शायद यही कारण था कि उन्होंने उस संगठन को “ह्यूमन वेलफ़ेयर फ़ाउन्डेशन” का नाम दिया, जिसके तहत वह इन सभी कल्याणकारी गतिविधियों को अंजाम दे रहे थे।

इसमें कोई शक नहीं कि आने वाले वर्षों में सिद्दीक़ हसन साहब और उनके काम को याद किया जाएगा। लेकिन मुझे शक है कि आने वाले समय में हमें उनके जैसा दूरदर्शी, प्रगतिशील, समुदाय-उन्मुख (लेकिन समान रूप से पूरी मानवतावादी की चिंता करने वाला) लीडर हमें जल्द देखने को मिलेगा, क्योंकि इस तरह के लीडर को उभरने में सदियां नहीं तो कम-से-कम दशक तो लगते हैं। मुझे ख़ुशी होगी अगर मेरी बात ग़लत साबित होती है।

लेखक: महताब आलम

अनुवाद: उम्मे रुमान

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