मणिपुर क्यों जल रहा है?

देश के ज़्यादातर हिस्सों में कट्टर हिंदुत्ववादी ताक़तें नफ़रत का जो ज़हरीला एजेंडा चला रही हैं, उसके तहत आदिवासी बहुल क्षेत्रों में वे ईसाइयों को ख़तरनाक दुश्मन के तौर पर पेश कर रही हैं। इस एजेंडे से लगता है कि ये दंगे आदिवासी बनाम ग़ैर-आदिवासी नहीं, बल्कि सांप्रदायिक हैं। यह बात इससे भी सिद्ध होती है कि इन दंगों में पहली बार धार्मिक स्थलों पर हमले किए गए।

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Image Courtesy: Newslaundry

मणिपुर क्यों जल रहा है?

ओम सराफ़

मणिपुर जल रहा है। तक़रीबन आठ हफ़्ते से ज़्यादा का अरसा बीत गया है और इस दौरान बताया जा रहा है कि दो मूल निवासी समुदायों के बीच हिंसक लड़ाई में 100 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं, 400 से अधिक घायल हैं और 60,000 से ज़्यादा अपने घरों से विस्थापित होकर लगभग 350 शिविरों में शरण ले चुके हैं। भाजपा जिस डबल इंजन सरकार के मॉडल का ज़ोर-शोर से ढोल पीटती आई है, वह मणिपुर में पूरी तरह ध्वस्त हो गया दिख रहा है। ऐसी बेमिसाल अराजकता दसियों साल से देश के किसी कोने में नज़र नहीं आई थी।

प्रशासन नाम की कोई चीज़ काम नहीं कर रही है। सड़कों पर एक तरफ़ सैनिक, अर्द्धसैनिक और पुलिस बलों के लगभग 40,000 जवान हिंसा को दबाने के लिए तैनात किए गए हैं, तो दूसरी तरफ़ एक-दूसरे के ख़ून की प्यासी “परस्पर विरोधी” मूल निवासी समुदायों की भीड़ शस्त्रागारों से लूटी गईं लंबी दूरी तक सटीक मार करने वाली राइफ़लों समेत ऑटोमैटिक हथियार लेकर एक-दूसरे पर हमले कर रही है। मूल निवासी समुदायों के बीच शुबहे बहुत गहरे हो गए हैं और दोनों ही सुरक्षा बलों पर पक्षपात करने का आरोप लगा रहे हैं।

समाचार हैं कि अनेक चर्च और मंदिर तबाह कर दिए गए हैं या उन्हें नुक़्सान पहुंचाया गया है। हिंसा शुरू होने के बाद से पुलिस शस्त्रागारों से लूटे 4,000 से अधिक हथियारों में से महज़ चौथा हिस्सा ही स्वेच्छा से वापस किया गया है।1 अनेक मंत्रियों और विधायकों के घर आग के हवाले कर दिए गए हैं। 16 ज़िलों में से अधिकांश में रात्रि कर्फ़्यू है। स्कूल बंद हैं और इंटरनेट सेवाएं स्थगित‌ हैं। सरकार (वस्तुतः केंद्र सरकार) इतने समय बाद भी समस्या का कोई राजनैतिक समाधान प्रस्तुत नहीं कर पा रही है। यहां तक कि हर माह “मन की बात” करने वाले प्रधानमंत्री के मन में लगभग इन दो महीनों के दौरान एक बार भी मणिपुर में हो रही हिंसा को रोकने के लिए कोई सामूहिक अपील करने की बात नहीं आई है।

मणिपुर के अपने दौरे में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने मौजूदा टकराव के लिए राज्य हाइकोर्ट के “उतावली” में दिए एक आदेश को ज़िम्मेदार ठहराया था। आदेश में हाइकोर्ट ने ‘मैतेई’ समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा प्रदान करने का सुझाव दिया था। ‘कुकी’ समुदाय को यह बात मंज़ूर नहीं थी और उसने इसे अनुसूचित जनजाति की अपनी सुविधाओं के लिए ख़तरा माना।2

पिछले कुछ सालों में कुकी और मैतेई समुदायों के बीच कई बार तनाव पैदा हुआ है। कुछ विवाद भाजपाई मुख्यमंत्री बीरेन सिंह की नीतियों और बयानों से उठे, तो कुछ को दोनों मूल निवासी समुदायों ने तूल दी। इनमें अफ़ीम की खेती, “अवैध अप्रवासन” और राज्य के जंगलों में अतिक्रमण से जुड़े विवाद शामिल हैं। इनके चलते पिछले कुछ महीनों में कई तरह की अशांति पैदा हुई। इस सिलसिले में मुख्यमंत्री की ओर से कुकी लोगों को “अफ़ीम की खेती करने वाले” और “अप्रवासी” जैसे विभाजनकारी विशेषणों से नवाज़े जाने से दोनों समुदायों में डर और ग़ुस्सा पैदा हुआ है। इससे राज्य के विभिन्न समुदायों के बीच विभाजन रेखा गहरी हुई है और इसे दूर करने के बजाय सरकार ने आरक्षित वनों में सर्वेक्षण कर बेदख़ली अभियान चलाए, जिससे तनाव बढ़ते गए।

हालांकि माना जाता है कि बड़े पैमाने पर हिंसक टकरावों की शुरुआत हाइकोर्ट के उक्त आदेश के विरोध में ऑल ट्राइबल स्टूडेंट्स यूनियन की रैली से हुई, लेकिन मणिपुर में परस्पर विरोधी मूल निवासी समुदायों के बीच विस्फ़ोटक तनाव पुराना है। आज तो बस बरसों से चले आ रहे तनावों में पलीता लगा दिया गया लगता है। दरअसल, मैतेई समुदाय में संपन्न लोग मणिपुर में आर्थिक और राजनैतिक सत्ता पर क़ाबिज़ हैं, जिसके चलते ज़्यादातर मैतेई लोगों के पास नौकरियां भी हैं, तो कुकी लोगों को अपने इलाक़ों में संवैधानिक प्रावधानों का संरक्षण है। इससे गंभीर रूप से “ज़मीन का असंतुलन” पैदा हो गया है, जो सारी समस्याओं की जड़ बताई जाती है।3

1960 के मणिपुर भू-राजस्व और भूमि सुधार क़ानून की धारा 158 में आदिवासियों के लिए विशेष प्रावधान हैं और आदिवासी रीति-रिवाज और ज़मीन जोतने की उनकी प्रणाली को बनाए रखने के लिए आदिवासियों की ज़मीन ग़ैर-आदिवासियों को हस्तांतरित न हो सके, इसकी सुरक्षा के उपाय किए गए हैं। इसमें आदिवासी समुदायों के अलावा अन्य मूल निवासी समुदायों के ज़मीन ख़रीदने के अधिकारों को ख़त्म नहीं गया है, बल्कि उसका हस्तांतरण रोकने के लिए दोहरी प्रक्रिया निर्धारित की गई है। इसके तहत उपायुक्त की अनुमति और ज़िला परिषद की सहमति ज़रूरी है।

राज्य में ज़मीन को लेकर गहरे दबाव हैं। राज्य की 40 प्रतिशत आबादी होने पर भी आदिवासी भले ही पहाड़ी क्षेत्रों की 90 प्रतिशत ज़मीन पर रहते हैं, लेकिन इस ज़मीन में 67 प्रतिशत तो जंगल ही है, जिसके मालिक वे नहीं हैं।4 आदिवासी गांवों में आबादी बढ़ने से, वहां कुकी लोग जंगल के इलाक़े की ओर बढ़ने लगते हैं, जिसे वे अपना ऐतिहासिक और पुश्तैनी अधिकार समझते हैं। सरकार इसके विरोध में कार्रवाई करती है। इसी तरह, इंफ़ाल की घाटी में मूलतः रह रहे और ज़्यादातर सामान्य श्रेणी के तहत आने वाले मैतेई समुदाय के लोग पहाड़ी क्षेत्रों में अमूमन ज़मीन नहीं ख़रीद सकते और इसे अपने ऊपर हो रही नाइंसाफ़ी बताते हैं। यह बात अलग है कि कुछ ग़रीब मैतेई परिवार पहाड़ी क्षेत्रों में रह रहे हैं, जबकि कुछ संपन्न आदिवासी परिवार घाटी में जाकर बस गए हैं।

बहुत-से मैतेई पहाड़ी क्षेत्रों में ज़मीन से वंचित होने के कारण दुःखी हैं और उनके अनुसूचित जनजाति का दर्जा मांगने के पीछे यह एक वजह है। यह मांग बहुत पुरानी है। पहले जब भी यह मांग उठती थी तो गहरी चिंताएं जताई जातीं कि इससे जातीय अलगाव बढ़ेगा, ख़ासकर कुकी और नागा मूल निवासी समुदायों में अलगाव की भावना पैदा होगी, लेकिन नाराज़ मैतेई लोगों ने अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिए जाने के लिए मणिपुर हाइकोर्ट का रुख़ किया। अदालत ने 27 मार्च 2023 के अपने आदेश में फ़ैसला सुनाया कि उक्त मांग उचित है और राज्य सरकार आगे कार्रवाई के लिए इसे केंद्र सरकार को भेजे।

उधर, सरकार के पास राज्य के पहाड़ी इलाक़ों में न तो नए गांवों को मान्यता देने और न ही आरक्षित जंगलों को लेकर कोई स्पष्ट नीति है। इससे हर तरफ़ लोगों में संदेह और असंतोष पनप गया है। कुकी लोग इसे अपने लिए न सिर्फ़ कठोर बल्कि ख़ुद को सताए जाने वाली नीति भी मानते हैं और 26 अप्रैल की घटना ने उनके सब्र का पैमाना तोड़ दिया। उस दिन राज्य सरकार ने 1966 की एक अधिसूचना के आधार पर चुराचांदपुर के कुछ कुकी परिवारों को उनकी ज़मीन से यह कहकर बेदख़ल कर दिया कि वह जंगल की ज़मीन है। यही नहीं, उसने यह भी कहा कि कुकी लोग अफ़ीम उगाते हैं। इससे ज़ोरदार प्रचार चल निकला कि कुकी लोग पहाड़ी क्षेत्रों में सारे जंगल काट रहे हैं और अफ़ीम बो रहे हैं। इसकी गाज साधारण व्यक्तियों पर गिरी, लेकिन सरकार ने बड़े खिलाड़ियों को छुआ तक नहीं।

इन घटनाओं से उठी चिंगारी ने आग लगाने का काम किया। हिंसा 3 मई को शुरू हुई जब हाइकोर्ट के फ़ैसले के ख़िलाफ़ संयुक्त नागा-कुकी प्रदर्शन पर हमला हुआ। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने भले ही मणिपुर हाइकोर्ट को फटकार लगाई, लेकिन नुक़्सान हो चुका था।5 हिंसा से निबटने के लिए जो कुशलता दरकार थी, मुख्यमंत्री ने उसका परिचय नहीं दिया। मैतेई समुदाय का होने की वजह से वे कुकी लोगों में भरोसा भी नहीं जगा सके। ऐसे आंदोलनकारियों से निपटने में पुलिस की भूमिका इस क़दर पक्षपाती है कि पुलिस प्रमुख को हटाकर त्रिपुरा से नया पुलिस प्रमुख लाना पड़ा।

राजधानी इंफ़ाल के आस-पास की पहाड़ियों में मूलतः रह रहा कुकी समुदाय अरसे से कहता आ रहा है कि भाजपा सरकार उन्हें और उनकी ज़मीन को आरक्षित जंगलों में अतिक्रमण को लेकर सर्वे और अफ़ीम की खेती के ख़िलाफ़ अभियान के नाम पर निशाना बना रही है। पहाड़ी क्षेत्रों में आरक्षित जंगलों के सर्वे का मक़सद हालांकि अफ़ीम की खेती को कम करने का प्रयास बताया गया, लेकिन उसका नतीजा कुकी समुदाय के गावों से बेदख़ली के रूप में निकला। अरसे से अंदर-ही-अंदर खौल रहे उनके गुस्से की दूसरी वजहें भी हैं। सीमा पार के म्यांमार में हिंसा और अत्याचार से तंग आकर भारत की ओर आए चिन आदिवासी उनके अपने ही सजातीय हैं, और इन कथित अवैध अप्रवासियों के ख़िलाफ़ सरकार के सख़्त रुख़ से कुकी नाराज़ हैं।

दूसरी तरफ़, मैतेई समुदाय का दावा है कि कुकी समुदाय म्यांमार में 2021 के सैनिक तख़्तापलट के बाद वहां से आए उन शरणार्थियों को पनाह दे रहा है जो उनके अपने समुदाय से हैं, ताकि पहाड़ियों की आबादी में नकली वृद्धि दिखा सके। उनका यह भी आरोप है कि अफ़ीम की खेती करके पहाड़ियों को तबाह करने में नार्को-आतंकवादियों का हाथ है। यह मत मैतेई शिक्षा शास्त्रियों और नागरिक समूहों के अलावा समुदाय के उन अधिकारियों में व्यापक रूप से मान्य है, जो सुरक्षा और नागरिक प्रशासन में कार्यरत हैं। कुकी इन आरोपों का ज़ोरदार खंडन करते हैं। उनका कहना है कि पूरे समुदाय पर कालिख पोतना नाइंसाफ़ी है।

इस टकराव में असल फ़ैसला लेना हालांकि उन लोगों के हाथ में है, जो बंदूकों, नशीले पदार्थों और राजनीति पर नियंत्रण रखते हैं, लेकिन दोनों समुदायों में सबसे ज़्यादा गाज महिलाओं और बच्चों पर गिरी है। कुछ लोगों ने अपने एजेंडे के लिए मौजूदा टकराव में दोनों मूल निवासी समुदायों की पहचान को हथियार की तरह इस्तेमाल किया।

इससे राजनीति जुड़ी हो या नहीं, लेकिन बहुत-से लोग आरोप लगाते हैं कि मणिपुर में नशीले पदार्थों की समस्या सच-मुच है। इसमें कौन-से बड़े खिलाड़ी शामिल हैं, यह तो सरकार ही बता सकती है, लेकिन जानकारों के मुताबिक़, यह जगह ऐसी है, जहां से नशीले पदार्थों की स्वर्ण त्रिभुज (Golden Triangle) तक आवाजाही बड़ी आसानी से हो सकती है। थाइलैंड, लाओस और म्यांमार की सीमाओं के संगम पर स्थित स्वर्ण त्रिभुज नाम से कुख्यात क्षेत्र परंपरागत रूप से नशीले पदार्थों के फलते-फूलते कारोबार का केंद्र रहा है‌। पिछले दो दशकों में मणिपुर की नशीली दवाओं की समस्या में एक नया आयाम यह जुड़ा है कि म्यांमार की सीमा से लगे मणिपुर के पहाड़ी क्षेत्रों में अफ़ीम के खेतों का फैलाव हुआ है। इसलिए माना जाता है कि पिछले दो दशकों में हेरोइन व्यापार का एक बड़ा हिस्सा स्वर्ण त्रिभुज से म्यांमार में आ गया है।6

लेकिन बताते हैं कि कुकी लोगों के संगठनों ने केंद्र सरकार के साथ सस्पेंशन ऑफ़ ऑपरेशन समझौता करने वाले कई कुकी उग्रवादी समूहों के अफ़ीम की खेती का समर्थन न करने वाले खुलेआम बयान जारी किए हैं। जनवरी में, 17 सशस्त्र गुटों के साझा संगठन कुकी नेशनल ऑर्गेनाइज़ेशन ने अफ़ीम की खेती में लगे लोगों को “कड़ी चेतावनी” जारी कर कहा था कि इस आदेश का “पालन न करने वालों को गंभीर परिणाम भुगतने होंगे।”

मणियों यानी नागों का प्रदेश अर्थ देने वाला मणिपुर चहुं ओर पहाड़ियों से घिरी एक घाटी से मिलकर बना है। राज्य में हिंदू मत, ईसाई मत और इस्लाम समेत विभिन्न धर्मों को मानने वाले और कुछ सनमही धार्मिक परंपराओं का पालन करने वाले 39 मूल निवासी समुदाय बसते हैं। मैतेई समुदाय में ज़्यादातर हिंदू हैं और वे घाटी में पड़ते इंफ़ाल पूर्व, इंफ़ाल पश्चिम, थौबल, बिष्णुपुर और काकचिंग ज़िलों में बहुसंख्यक है, जबकि उत्तरी पहाड़ियों पर मुख्यतः नागा जनजातियों और दक्षिणी पहाड़ियों पर कुकी समुदाय के लोग रहते हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार, राज्य की 28 लाख आबादी में लगभग 53 प्रतिशत मैतेई, 28 प्रतिशत कुकी और 21 प्रतिशत नागा हैं।7

1949 में भारत के साथ मणिपुर के विलय का विरोध हुआ तो अलगाववादी आंदोलन के बीज पड़े। इस विरोध को कुचलने के लिए भारत सरकार ने 1958 में सशस्त्र बल (विशेष शक्तियां) अधिनियम लाया। इस क़ानून के तहत “अशांत क्षेत्रों” में “सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने” के लिए सेना और अर्द्धसैनिक बलों को व्यापक अधिकार दिए गए। ये अधिकार मूलतः पूर्वोत्तर के क्षेत्रों और जम्मू-कश्मीर में लागू किए गए। उपरोक्त क़ानून ही भारत सरकार और पूर्वोत्तर के अनेक भागों के बीच विवाद की जड़ है। इस क़ानून की मानवाधिकार संगठनों ने आलोचना की और इसकी वजह से मणिपुर में राज्य और केंद्र सरकार के बीच गहरा अविश्वास बना रहा। केंद्र का तर्क है कि यह क़ानून उन इलाक़ों में व्यवस्था बनाए रखने के लिए ज़रूरी है, जहां विद्रोह का इतिहास रहा है। इनमें कुछ विद्रोह तो भारत की आज़ादी से पहले हुए हैं। भारत के अशांत और दूरदराज़ वाले पूर्वोत्तर क्षेत्र के आठ राज्यों में 400 से अधिक समुदाय रहते हैं, जिनकी कुल मिलाकर आबादी लगभग 4.5 करोड़ है। इस समूचे क्षेत्र के विभिन्न गुटों के साथ दर्जन भर से ऊपर शांति वार्ताएं बरसों से लटकती चली आ रही हैं।

मणिपुर में पहले भी हिंसा हुई है, जिसमें 1949 में उसके भारत में विलय के बाद नागा विद्रोह और 1990 के दशक में मैतेई, नागा और कुकी समुदायों के बीच संघर्ष शामिल हैं, लेकिन आज यह इलाक़ा मूल निवासी समुदायों और जातीय समुदायों की अपनी-अपनी मातृभूमि के परस्पर-विरोधी दावों का परिचायक है। मणिपुर में, घाटी में ही चार सशस्त्र गुट हैं और उनके अलावा अनेक नागा गुट और क़रीब 30 सशस्त्र विद्रोही संगठन हैं।8 सशस्त्र गुटों की भरमार ने – एक समय जिनकी संख्या लगभग 60 आंकी गई थी – राज्य में उग्रवाद की भावना को जन्म दिया। बहरहाल, मैतेई और कुकी समुदायों के बीच मौजूदा दंगे लगभग तीन दशकों में हुआ सबसे बड़ा ख़ूनी संघर्ष है।

दरअसल, मणिपुर में दशकों से एक के बाद आई दूसरी सरकार ने शांति के बजाय आतंक और भ्रष्टाचार का जो साम्राज्य क़ायम किया है, उसके नतीजे अब दिख रहे हैं।9 अंग्रेज़ों से सारे हथकंडे सीखकर इन सरकारों ने पैसे और डंडे के ज़ोर पर पूर्वोत्तर पर अपना शासन करना चाहा, राजनैतिक सत्ता से क़रीबी तौर पर जुड़े लोगों ने उपद्रव वाले हालात का फ़ायदा उठाया, और राज्य बड़े पैमाने पर हथियारों की तस्करी के साथ-साथ नशीले पदार्थों की तस्करी का अनियंत्रित अड्डा बन गया। सभी समुदायों में कुलीन वर्ग के लोगों को बड़े-बड़े ठेके दिए गए ताकि उन्हें भ्रष्ट करके अपना जी-हुज़ूर बनाए रखा जाए। सरकारें मादक पदार्थों की स्थानीय तस्करी और जबरन वसूली से जान-बूझकर आंखें मूंदे रहीं।10

भारत सरकार ने तो 2006 से विद्रोही गुटों को सरकारी पैसे से चलने वाले उपक्रमों में ही बदल दिया है और शिविरों में रहने के लिए हज़ारों कुकी विद्रोहियों को हर माह 6,000 रु. का भुगतान करती आ रही है। आत्मसमर्पण कर चुके विद्रोहियों को चुनाव प्रचारकों में बदलने के लिए भुगतान के बक़ायों का चतुराई से इस्तेमाल किया जाता है।11 विद्रोही गुट राज्य के चुनावों में अक्सर उम्मीदवारों की पीठ पर हाथ रखते हैं। बताया जाता है कि 2022 में कुकी विद्रोही समूहों में से दो ने भाजपा के समर्थन में बयान जारी किए थे।

बहरहाल, मौजूदा दंगों में उभरी कई बातें ग़ौर करने लायक़ हैं। पहली बात, देश के ज़्यादातर हिस्सों में कट्टर हिंदुत्ववादी ताक़तें नफ़रत का जो ज़हरीला एजेंडा चला रही हैं, उसके तहत आदिवासी बहुल क्षेत्रों में वे ईसाइयों को ख़तरनाक दुश्मन के तौर पर पेश कर रही हैं। इस एजेंडे से लगता है कि ये दंगे आदिवासी बनाम ग़ैर-आदिवासी नहीं, बल्कि सांप्रदायिक हैं।12 यह बात इससे भी सिद्ध होती है कि इन दंगों में पहली बार धार्मिक स्थलों पर हमले किए गए। यही नहीं, बहुत-सी जगहों पर लोगों ने देखा और बताया है कि नौजवानों के गिरोह चर्चों पर हमला करने के लिए इंफ़ाल से 50-50 किलोमीटर दूर तक मोटरसाइकिलों पर आते थे।13

दूसरी बात, मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा प्रदान करने के क़दम का विरोध करने के लिए हालांकि नागा और कुकी समुदाय एक हो गए थे, लेकिन हमलों का निशाना कुकी ही बनाए गए। इससे लगता है कि नागाओं को उकसाने और इसे नागा-कुकी दंगे में बदलने की कोशिशें तो हुईं, पर वे नाकाम रहीं।14

तीसरी बात, कुकी पक्ष की ओर से कहा जा रहा है कि हाल ही में मणिपुर के पहाड़ी इलाक़ों में पेट्रोलियम और कोबाल्ट के विशाल भंडार खोजे गए हैं, जिन पर केंद्र की भाजपा सरकार के मित्र पूंजीपतियों की नज़र है। उनके अनुसार, इसलिए आदिवासियों को आतंकित कर उनके घर-परिवार से खदेड़ने की जान-बूझकर कोशिशें की जा रही हैं। इसके सबूत के तौर पर वे केंद्र के निकम्मेपन और सत्ताधीशों की मिलीभगत की ओर संकेत करते हैं।15

चौथी बात, तीनों समुदायों के नागरिक संगठन जो बरसों से आपसी बातचीत को सहज बनाने की कोशिशें करते आ रहे थे, उन्हें पिछले कुछ सालों से किनारे कर दिया गया है।‌ उनकी जगह हिंसक टोलियों ने ले ली है, जो मूल निवासियों के बीच विभाजन को तीखा करने में बड़ी भूमिका निभाती दिख रही हैं। ज़ाहिर है, अदालत में मामला ले जाने, बेदख़लियां करने, दंगे होने और बातचीत टूटने के बीच कोई तो संबंध है।

पांचवीं और आख़िरी बात, असहमति को दबाने के साथ-साथ ग़ैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) को परेशान किया जा रहा है। यहां तक कि सच्ची एनजीओ भी बचाव का रास्ता अपनाने पर मजबूर हो गई हैं। इस स्थिति में, कोई शांति समिति या इसी तरह की कोई संस्था कुछ नहीं कर पा रही, और सब कुछ ऐसी सरकार के भरोसे चल रहा है जिसका कोई वजूद ही नहीं है।

इन घटनाओं से इस नतीजे पर पहुंचना ग़लत नहीं होगा कि दंगे सांप्रदायिक ताक़तों ने सोचे-समझे तरीक़े से करवाए हैं और बड़ी सफ़ाई से उन्हें अंजाम दिया है। ज़्यादातर मामलों में सुरक्षा बल मूकदर्शक बने रहे। इस संबंध में चीफ़ ऑफ़ डिफ़ेंस स्टाफ़ का यह कहना ग़ौरतलब है कि दंगों में कुकी विद्रोही शामिल नहीं थे।16

वैसे, उम्मीद की भी कुछ किरणें हैं। दंगों में सभी मैतेई शामिल नहीं हैं। उनके अनेक नेता और विचारक इसके विरोध में उतरे हैं। जवाब में उनमें से कुछ के घरों पर हमले हुए और उन्हें भूमिगत हो जाना पड़ा है। चुराचांदपुर में, जब कुछ कुकी पुरुष मैतेई लोगों पर हमला करने की योजना बना रहे थे, तो कुकी महिलाओं ने उन्हें रोकने के लिए मानव शृंखला बना ली थी।17 पड़ोस के मोइरांग में, एक क्रिश्चियन स्कूल पर किसी हथियारबंद गिरोह के हमले को रोकने के लिए मैतेई माता-पिता और छात्र उसके गेट पर जाकर खड़े हो गए। ऐसी कई मिसालें हैं जो बताती हैं कि सुलह की दिशा में कोशिशें की जा सकती हैं। यहां तक कि नागाओं को कुकी लोगों से भिड़ाने की कोशिश के दौरान ही कुछ नागा संगठन और नगालैंड के कुछ राजनैतिक नेता राहत सामग्री लेकर एकजुटता जताने के लिए कुकी गांवों में पहुंचे थे।18

यही नहीं, राज्य में और इस समूचे क्षेत्र में विभिन्न समुदाय शांति क़ायम करने के लिए प्रार्थना सभाएं कर रहे हैं। अनेक धार्मिक नेताओं ने सभी से शांति स्थापित करने का अनुरोध किया है। कुछ लोगों ने तो सत्य एवं मेल-मिलाप आयोग बनाए जाने की मांग की है। पूर्वोत्तर की महिला संस्थाओं ने अपीलें जारी की हैं और विभिन्न बस्तियों में “माताओं की शांति समितियों” का गठन किया है।19

यह बात भी समझने की है कि दुनिया में आज हम जिस कॉर्पोरेट पूंजीवादी सिस्टम में रह रहे हैं, उसमें सभी देश अलग-अलग होते हुए भी एक-दूसरे पर निर्भर हैं। भारत उसी सिस्टम की ही एक कड़ी है। दुनिया के इस अंतरनिर्भर सिस्टम की तरह भारत में भी अलग-अलग तरह के सामाजिक, धार्मिक, जातीय, जनजातीय, मूल निवासी समुदायों वगैरह के अलग-अलग रहन-सहन, रीति-रिवाज, प्रथाएं होने के बावजूद वे सभी एक-दूसरे पर निर्भर हैं। इसी तरह, मणिपुर में भी हर समुदाय के हित दूसरे समुदाय के हितों से जुड़े हुए हैं, एक की सुरक्षा दूसरे की सुरक्षा से जुड़ी हुई है। ऐसे में, ज़ाहिर है, एक की तरक़्क़ी हुए बिना दूसरे की तरक़्क़ी नहीं हो सकती, लेकिन देश को कुछ सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी देने वाले राज्य में इस समय मुख्य रूप से मैतेई, कुकी और नागा मूल निवासी समुदायों के बीच दुर्भाग्य से अविश्वास का बीज बो दिया गया है और इसमें सबसे बड़ी भूमिका मुख्यमंत्री और उनकी सरकार ने निभाई है।

लिहाज़ा, आज पूरे मणिपुर को लपेट में ले लेने वाली इस गंभीर समस्या के मद्देनज़र सबसे पहले तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चाहिए कि वे मणिपुर के सभी समुदायों से शांति क़ायम करने की अपील करें और उन्हें राज्य की समस्या का समाधान ढूंढ़ने के प्रति आश्वस्त करने के साथ-साथ मौजूदा हालत से निपटने में अक्षम हो चुकी मुख्यमंत्री बीरेन सिंह की सरकार को बर्ख़ास्त करने की घोषणा करें।

संदर्भ:

  1. https://www.bbc.com/news/world-asia-india-65679616
  2. https://theprint.in/india/more-than-6-weeks-on-manipur-is-still-ablaze-its-a-saga-of-failures-from-state-govt-to-centre/1628874/
  3. https://thewire.in/government/manipur-crisis-systemic-governance-issues
  4. https://www.telegraphindia.com/opinion/a-land-in-trouble-an-overview-of-manipurs-ethnic-conflicts-between-meitei-naga-and-kuki-groups-starting-from-british-rule/cid/1947498
  5. Ibid.
  6. https://scroll.in/article/1050773/poppy-in-the-hills-why-manipurs-civil-war-is-being-linked-to-narcotics-trade
  7. https://theprint.in/india/more-than-6-weeks-on-manipur-is-still-ablaze-its-a-saga-of-failures-from-state-govt-to-centre/1628874/
  8. https://www.usip.org/publications/2023/06/understanding-indias-manipur-conflict-and-its-geopolitical-implications
  9. https://theprint.in/the-fineprint/in-manipur-govts-have-manufactured-dystopia-for-decades-not-peace-its-showing-now/1631045/
  10. Ibid.
  11. Ibid.
  12. https://thewire.in/government/manipur-crisis-systemic-governance-issues
  13. https://www.telegraphindia.com/opinion/a-land-in-trouble-an-overview-of-manipurs-ethnic-conflicts-between-meitei-naga-and-kuki-groups-starting-from-british-rule/cid/1947498
  14. Ibid.
  15. https://thewire.in/government/manipur-crisis-systemic-governance-issues
  16. https://www.hindustantimes.com/india-news/ongoing-ethnic-clash-in-manipur-not-related-to-counter-insurgency-says-cds-situation-challenging-but-hopeful-101685470196436.html
  17. https://www.telegraphindia.com/opinion/a-land-in-trouble-an-overview-of-manipurs-ethnic-conflicts-between-meitei-naga-and-kuki-groups-starting-from-british-rule/cid/1947498
  18. Ibid.
  19. https://www.usip.org/publications/2023/06/understanding-indias-manipur-conflict-and-its-geopolitical-implications

(ये लेखक के अपने व्यक्तिगत विचार हैं। छात्र विमर्श का इन विचारों से सहमत होना आवश्यक नहीं है।)

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