पीर अली ख़ान : स्वतंत्रता संग्राम का अनाम योद्धा

अंग्रेज़ी हुकूमत ने 7 जुलाई, 1857 को पीर अली और उनके साथियों को बीच सड़क पर फांसी पर लटका दिया था। आज बिहार की राजधानी पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान के पास उनके नाम पर बना एक छोटा-सा पार्क “शहीद पीर अली ख़ान पार्क” उनकी यादगार है।

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पीर अली ख़ान : स्वतंत्रता संग्राम का अनाम योद्धा

मंज़र आलम

“तुम हमें फांसी पर लटका सकते हो, लेकिन हमारे आदर्श की हत्या नहीं कर सकते। मैं मरूंगा तो मेरे ख़ून से लाखों बहादुर पैदा होंगे जो एक दिन तुम्हारे ज़ुल्म का ख़ात्मा कर देंगे।”

ये शब्द थे क्रांतिकारी वीर शहीद पीर अली ख़ान के, जिन्होंने सन् 1857 के स्वाधीनता संग्राम में अग्रणी भूमिका निभाते हुए फांसी की सज़ा को तो स्वीकार कर लिया लेकिन अंग्रेज़ी सरकार के आगे घुटने नहीं टेके।

देश की आज़ादी के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले पीर अली ख़ान का नाम इतिहास के पन्नों से भले ही आज ग़ायब हो, लेकिन उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। 1857 के स्वाधीनता संग्राम सेनानियों में बिहार चैप्टर के एक अमर योद्धा शहीद पीर अली ख़ान का जन्म सन् 1820 में उत्तर प्रदेश स्थित आज़मगढ़ के गांव मुहम्मदपुर में हुआ, परंतु वह किशोरावस्था में ही घर से भागकर पटना आ गए थे, जहां के नवाब मीर अब्दुल्लाह ने उनकी परवरिश की।

पढ़ाई के बाद आजीविका के लिए उन्होंने मीर साहब की मदद से किताबों की एक छोटी-सी दुकान खोल ली। कुछ क्रांतिकारियों के संपर्क में आने के बाद उनकी दुकान धीरे-धीरे प्रदेश के क्रांतिकारियों के अड्डे में तब्दील होती चली गई, जहां देश भर से क्रांतिकारी साहित्य मंगाकर पढ़ी और बेची जाती थी। पीर अली ने देश की आज़ादी को अपने जीवन का मक़सद बना लिया। 1857 की क्रांति के वक़्त पीर अली ने बिहार भर में घूमकर क्रांति का जज़्बा रखने वाले सैकड़ों युवाओं को संगठित और प्रशिक्षित किया।

वह दिन भी आया जिसके लिए आज़ादी के सैकड़ों दीवाने एक अरसे से तैयारी कर रहे थे। पूर्व योजना के अनुसार 3 जुलाई, 1857 को पीर अली के घर पर दो सौ से ज़्यादा हथियारबंद युवा एकत्र हुए। आज़ादी के लिए क़ुर्बानी की क़समें खाने के बाद पीर अली की अगुवाई में उन्होंने पटना के गुलज़ार बाग़ स्थित अंग्रेज़ों के प्रशासनिक भवन को घेर लिया। इस भवन से प्रदेश की क्रांतिकारी गतिविधियों पर नज़र रखी जाती थी। वहां तैनात अंग्रेज़ अफ़सर डॉ. लॉयल ने क्रांतिकारियों की भीड़ पर गोली चलवा दी। अंग्रेज़ी सिपाहियों की फ़ायरिंग का जवाब क्रांतिकारियों की टोली ने भी दिया। दोनों तरफ़ से गोलीबारी में डॉ. लॉयल और कुछ सिपाही मारे गए। उनके अलावा कई क्रांतिकारी युवा मौक़े पर शहीद हुए और दर्जनों घायल भी हुए। पीर अली चौतरफ़ा फ़ायरिंग के बीच अपने कुछ साथियों के साथ वहां से बच निकलने में सफल रहे।

इस हमले के बाद पटना में अंग्रेज़ी पुलिस का दमन-चक्र चला। संदेह के आधार पर सैकड़ों निर्दोष लोगों, ख़ासकर मुसलमानों की गिरफ़्तारियां की गईं। उनके घर तोड़े गए। कुछ युवाओं को झूठी मुठभेड़ दिखाकर गोली मार दी गई। अंततः 5 जुलाई, 1857 को पीर अली और उनके चौदह साथियों को बग़ावत के जुर्म मे गिरफ़्तार कर लिया गया। गिरफ़्तारी के बाद यातनाओं के बीच पीर अली को पटना के कमिश्नर विलियम टेलर ने प्रलोभन दिया कि अगर वे देश भर के क्रांतिकारी साथियों के नाम बता दें तो उनकी जान बख़्शी जा सकती है।

पीर अली ने प्रस्ताव ठुकराते हुए ये ऐतिहासिक जुमला कहा कि, “ज़िंदगी में कई ऐसे मौक़े आते हैं जब जान बचाना ज़रूरी होता है और कई ऐसे मौक़े भी आते हैं जब जान देना ज़रूरी हो जाता है। यह वक़्त जान देने का है।”

अंग्रेज़ी हुकूमत ने दिखावे के ट्रायल के बाद 7 जुलाई, 1857 को पीर अली और उनके साथियों को बीच सड़क पर फांसी पर लटका दिया। आज बिहार की राजधानी पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान के पास उनके नाम पर बना एक छोटा-सा पार्क “शहीद पीर अली ख़ान पार्क” उनकी यादगार है। शहर को हवाई अड्डे से जोड़ने वाली एक सड़क को “पीर अली ख़ान रोड” नाम दिया गया है और 7 जुलाई को उनके शहादत दिवस पर समारोहों के आयोजन का सिलसिला शुरू कराया गया। बिहार सरकार के इस पहल की सराहना तो अवश्य की जानी चाहिए।‌ पटना का एक मुहल्ला पीरबहोर उनके नाम पर ही है, आज भी जहां से गुज़रते हुए उस महान् क्रान्तिकारी की यादें ताज़ा हो जाती हैं।

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