[कविता] तब क़लम उठानी पड़ती है

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मानवता जब दम तोड़ रही हो, सांसें साथ छोड़ रही हों,
तब क़लम उठानी पड़ती है, क्रांति की मशाल जलानी पड़ती है।

देश के सारे मुद्दे जब राजनीति के हवाले हो जाएं,
और घोटाले वाले ही देश के रखवाले हो जाएं।

तब क़लम उठानी पड़ती है, क्रांति की मशाल जलानी पड़ती है।

औरत ही जब देश में शर्मसार होने लगे,
नौकरी की कतार में जब युवा भी बीमार होने लगे।

तब क़लम उठानी पड़ती है, क्रांति की मशाल जलानी पड़ती है।

जिस देश में युवाओं को जुमलों से बहकाया जाता हो,
जहाँ साम्प्रदायिकता का पाठ पढ़ाकर देश चलाया जाता हो।

तब क़लम उठानी पड़ती है, क्रांति की मशाल जलानी पड़ती है।

जब शिक्षा को व्यवसाय बनाकर करोड़ों कमाये जाते हों,
जब देश की संस्कृति के ख़िलाफ़ फ़ैसले सुनाये जाते हों।

तब क़लम उठानी पड़ती है, क्रांति की मशाल जलानी पड़ती है।

जब बाल मज़दूरी और यौन शोषण अख़बारों में दिखने लगे,
जब पूँजीवादियों के हाथों सरकारें भी बिकने लगे।

तब क़लम उठानी पड़ती है, क्रांति की मशाल जलानी पड़ती है।

जब इंसानों को जानवर की तरह मारा जाने लगे,
जब बच्चा-बच्चा “ख़ौफ़ से आज़ादी” चाहने लगे।

तब क़लम उठानी पड़ती है, क्रांति की मशाल जलानी पड़ती है।

– आरिफ़ ख़ान

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