संविधान सभा के अंतिम भाषण में बाबा साहब भीमराव अंबेडकर द्वारा दी गईं तीन चेतावनियाँ आज भी क्यों प्रासंगिक हैं?

25 नवंबर, 1949 के दिन बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने अराजकता को छोड़ने, नायकों की पूजा से बचने, और सिर्फ़ राजनीतिक लोकतंत्र की दिशा में काम करने के बजाए, सामाजिक लोकतंत्र की दिशा में भी काम करने की बात कही थी। ‘छात्र विमर्श’ प्रस्तुत कर रहा है उनके भाषण के कुछ अंश:

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26 जनवरी 1950 को, भारत एक स्वतंत्र देश होगा। लेकिन उसकी स्वतंत्रता का क्या होगा? क्या वह अपनी स्वतंत्रता को बनाए रखेगा या फिर वह इससे खो जाएगी? यह पहला विचार है जो मेरे दिमाग़ में आता है। ऐसा नहीं है कि भारत कभी एक स्वतंत्र देश नहीं था। मुद्दा यह है कि वह एक बार अपनी स्वतंत्रता खो चुका है। क्या वह इसे दूसरी बार भी खो देगा? यह एक ऐसा विचार है जो मुझे भविष्य के लिए सबसे अधिक चिंतित करता है।

भारत ने पहले भी एक बार अपनी स्वतंत्रता खोई है, इस तथ्य से ज़्यादा मुझे यह तथ्य अधिक चिंतित करता है कि वह स्वतंत्रता उसने अपने कुछ लोगों के विश्वासघात के कारण खोई है।

मुहम्मद-बिन-क़ासिम द्वारा सिंध पर चढ़ाई के समय राजा दाहिर के सैन्य कमांडरों ने मुहम्मद-बिन-क़ासिम के एजेंटों से रिश्वत ले ली और अपने स्वयं के राजा के पक्ष में लड़ने से मना कर दिया। वह जयचंद ही था जिसने भारत पर आक्रमण करने और पृथ्वीराज चौहान से लड़ने के लिए मुहम्मद गौरी को भारत में आमंत्रित किया और उससे स्वयं सोलंकी राजाओं के साथ उसकी सहायता करने का वादा किया। जब शिवाजी हिंदुओं की मुक्ति के लिए लड़ रहे थे, तो कई अन्य मराठा राजवंश और राजपूत राजा मुग़ल सम्राटों के साथ मिलकर उनके खिलाफ़ लड़ाई लड़ रहे थे। जब ब्रिटिश, सिख शासकों को नष्ट करने की कोशिश कर रहे थे, उस समय उनके प्रमुख कमांडर गुलाब सिंह चुप थे और सिख राज्य को बचाने में मदद नहीं कर रहे थे। सन् 1857 में जब भारतीयों के बड़े तबक़े ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ़ स्वतंत्रता की लड़ाई घोषित की, तो कई सिख तमाशबीनों की तरह खड़े होकर चुपचाप देखते रहे।

क्या इतिहास स्वयं को दोहराएगा? यह ऐसा विचार है जो मुझे चिंतित करता है। यह चिंता इस तथ्य के बोध से और अधिक गहरी हो जाती है कि ‘जाति’ और ‘पंथ’ के रूप में हमारे पुराने शत्रुओं के अतिरिक्त, अब हमारा साथ बहुत से राजनीतिक दलों व उनके विविध एवं विरोधी राजनैतिक पंथों के साथ भी जुड़ने जा रहा है। क्या भारतीय अपने देश को अपने पंथ से ऊपर रखेंगे या वे देश के ऊपर पंथ स्थापित करेंगे? मुझे नहीं पता। लेकिन यह बहुत निश्चित है कि यदि इन राजनैतिक दलों ने देश से ऊपर पंथ रखा, तो हमारी स्वतंत्रता को दूसरी बार संकट में डाल दिया जाएगा और संभवत: यह हमेशा के लिए खो जाएगी। इस परिस्थिति में हम सभी को दृढ़ता से हमारे रक्त की आख़िरी बूँद के साथ हमारी स्वतंत्रता की रक्षा करनी चाहिए।

26 जनवरी 1950 को, भारत इस अर्थ में एक लोकतांत्रिक देश होगा कि उस दिन से भारत में जनता की सरकार, जनता के द्वारा और जनता के लिए होगी। इसी समय यह विचार मेरे मन में आता है कि उसके लोकतांत्रिक संविधान का क्या होगा? क्या वह इसे बनाए रखने में सक्षम होगा या फिर वह इससे खो जाएगा? यह दूसरा विचार है जो मेरे दिमाग़ में आता है और मुझे पहले की तरह चिंतित करता है।

लोकतांत्रिक प्रणाली

ऐसा नहीं है कि भारत को नहीं पता था कि लोकतंत्र क्या है! एक समय ऐसा भी था जब भारत गणराज्यों से भरा था, और यहां तक कि जहां भी राजतंत्र थे, वे या तो निर्वाचित थे या सीमित थे। वे कभी पूर्ण नहीं थे। और ऐसा भी नहीं है कि भारत संसद या संसदीय प्रक्रिया को नहीं जानता था।

बौद्ध भिक्षु संघों का एक अध्ययन यह खुलासा करता है कि वहां न केवल संसद थीं (संघों के लिए संसद के अतिरिक्त कुछ भी नहीं था) बल्कि संघ आधुनिक समय में ज्ञात संसदीय प्रक्रिया के सभी नियम जानते और मानते थे। उनके पास बैठक व्यवस्था, प्रस्तावना, विश्लेषण एवं समाधान, कोरम, अनुदेश, वोटों की गिनती, बैलेट द्वारा मतदान, निंदा प्रस्ताव, नियमितीकरण आदि के बारे में नियम थे। हालांकि संसदीय प्रक्रिया के इन नियमों को बुद्ध द्वारा संघ की अनेक अलग-अलग बैठकों में लागू किया गया था। ऐसा प्रतीत होता है कि संघों ने उन्हें अपने समय में देश में काम करने वाले राजनीतिक विधानसभाओं के नियमों से उधार लिया होगा।

भारत ने इस लोकतांत्रिक प्रणाली को खो दिया। क्या वह इसे दूसरी बार भी खो देगा? मुझे नहीं पता। लेकिन भारत जैसे देश में यह काफ़ी संभव है। जहां लंबे समय से इस्तेमाल की जाने वाली लोकतांत्रिक प्रणाली को नया माना जाए, वहां लोकतंत्र के तानाशाही में बदल जाने का खतरा होता है। इस नए जन्मे लोकतंत्र के लिए यह संभव है कि वह अपना यह रूप तो बनाए रखे लेकिन वास्तव में तानाशाही को जगह दे दे। यदि ज़रा भी उथल-पुथल होती है, तो दूसरी संभावना के वास्तविक होने का खतरा बहुत अधिक है।

तीन चेतावनियां

यदि हम लोकतंत्र को केवल एक विचार बनाए रखने के बजाए उसे एक ज़मीनी हक़ीक़त का रूप देना चाहते हैं तो हमें क्या करना चाहिए?

मेरे फ़ैसले में सबसे पहले हमें सामाजिक और आर्थिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के संवैधानिक तरीक़ों को मज़बूती से थाम लेना चाहिए। इसका मतलब है कि हमें क्रांति के खूनी तरीक़ों को छोड़ देना चाहिए। और इसका मतलब यह भी है कि हमें सामाजिक अवज्ञा, असहयोग और सत्याग्रह के तरीक़ों को भी छोड़ देना चाहिए। जब तक आर्थिक और सामाजिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के संवैधानिक तरीक़ों के लिए कोई रास्ता नहीं छोड़ा गया था, तब तक असंवैधानिक तरीक़ों के लिए पर्याप्त औचित्य था। लेकिन जहां संवैधानिक तरीक़े खुले हैं, इन असंवैधानिक तरीक़ों के लिए कोई औचित्य नहीं हो सकता। ये तरीक़े अराजकता के व्याकरण के अलावा कुछ भी नहीं हैं और जितनी जल्दी वे छोड़ दिए जाते हैं, उतना ही हमारे लिए बेहतर है।

दूसरी चीज़ हमें ‘जॉन स्टुअर्ट मिल’ के उस कथन को अवश्य याद रखना चाहिए जो उन्होंने लोकतंत्र में दिलचस्पी रखने वाले सभी लोगों को चेताते हुए दिया है कि “किसी भी महान् व्यक्ति के पैरों में अपनी आज़ादी मत रखो, और न ही उस पर इतना विश्वास करो जो उसे आपके संस्थानों को नष्ट करने में सक्षम बनाता है।” उन महान् पुरुषों के प्रति आभारी होने में कुछ भी गलत नहीं है, जिन्होंने देश के लिए अपने पूरे जीवन भर सेवाएं दी हैं। लेकिन कृतज्ञता की भी सीमाएं हैं। जैसा कि Daniel O’Connell ने कहा है “कोई भी व्यक्ति अपना सम्मान खोकर कृतज्ञ नहीं हो सकता, कोई भी स्त्री अपनी पवित्रता खोकर कृतज्ञ नहीं हो सकती और कोई भी राष्ट्र अपनी स्वतंत्रता खोकर कृतज्ञ नहीं हो सकता।” यह सावधानी किसी भी अन्य देश के मामले की तुलना में भारत के मामले में कहीं अधिक आवश्यक है। भारत में भक्ति, भक्ति-मार्ग या नायक-पूजा दुनिया के किसी भी अन्य देश की तुलना में राजनीति में अप्रत्याशित एवं अद्वितीय भूमिका निभाती है। धर्म में, भक्ति आत्मा के उद्धार का मार्ग हो सकता है लेकिन राजनीति में भक्ति या नायक-पूजा गिरावट और तानाशाही के लिए एक निश्चित मार्ग है।

तीसरी चीज़ यह कि हमें निरे राजनीतिक लोकतंत्र के साथ संतुष्ट नहीं होना चाहिए। हमें अपने राजनीतिक लोकतंत्र को भी एक सामाजिक लोकतंत्र बनाना चाहिए। राजनीतिक लोकतंत्र तब तक सक्षम नहीं हो सकता जब तक सामाजिक लोकतंत्र उसका आधार न हो।

सामाजिक लोकतंत्र

सामाजिक लोकतंत्र का क्या अर्थ है? यह जीवन का ऐसा दृष्टिकोण है जिसमें स्वतंत्रता, समानता और आपसी बंधुत्व जीवन के सिद्धांतों के रूप में शामिल हैं। स्वतंत्रता, समानता और आपसी बंधुत्व के इन सिद्धांतों को अलग-अलग चीज़ों के रूप में नहीं देखा जा सकता। वे एक संघ के रूप में कार्य करते हैं कि एक को दूसरे से अलग कर देना अर्थात् लोकतंत्र के उद्देश्य को हराना है।

स्वतंत्रता को समानता से अलग नहीं किया जा सकता है, समानता को स्वतंत्रता से अलग नहीं किया जा सकता है और न ही इन दोनों को आपसी बंधुत्व से अलग किया जा सकता है। समानता के बिना स्वतंत्रता, कई लोगों पर कुछ लोगों की सर्वोच्चता को जन्म देगी। स्वतंत्रता के बिना समानता व्यक्ति के व्यक्तित्व को ख़त्म कर देगी। आपसी बंधुत्व के बिना भी स्वतंत्रता कई लोगों पर कुछ की सर्वोच्चता को बढ़ावा देगी। आपसी बंधुत्व के बिना, स्वतंत्रता और समानता प्राकृतिक चीज़ें नहीं बन पाएंगी और तब उन्हें लागू करने के लिए किसी ताक़त की आवश्यकता पड़ेगी।

हमें इस तथ्य को स्वीकार करते हुए आरम्भ करना चाहिए कि भारतीय समाज में दो चीज़ों का पूर्ण अभाव है इनमें से एक है – समानता। भारत की सामाजिक पृष्ठभूमि में वर्गीकृत असमानता के सिद्धांत के आधार पर बना हुआ एक समाज है जिसमें एक तरफ़ कुछ ऐसे लोग हैं जिनके पास बहुत अधिक धन है और दूसरी तरफ़ काफ़ी ऐसे लोग भी हैं जो बहुत गरीबी में जी रहे हैं।

26 जनवरी 1950 को, हम विरोधाभासों के जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीतिक जीवन में हमारे पास समानता होगी और सामाजिक व आर्थिक जीवन में हमारे पास असमानता होगी। राजनीति में हम एक व्यक्ति-एक मत के सिद्धांत और एक मत-एक मूल्य के सिद्धांत को मान्यता देंगे जबकि हमारे सामाजिक और आर्थिक जीवन में, हम, हमारे सामाजिक और आर्थिक ढाँचे के कारण, एक व्यक्ति-एक मूल्य के सिद्धांत से इन्कार करते रहेंगे। कब तक हम विरोधाभासों के इस जीवन को जीना जारी रखेंगे? कब तक हम अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में समानता से इन्कार करते रहेंगे? यदि हम इसे लंबे समय तक अस्वीकार करते हैं, तो हम अपने राजनीतिक लोकतंत्र को संकट में डालकर ऐसा करेंगे। हमें इस विरोधाभास को जल्द से जल्द संभवतः दूर करना चाहिए अन्यथा असमानता से पीड़ित लोग उस राजनीतिक लोकतंत्र की संरचना को ही ख़त्म कर देंगे जिसे संसद को श्रमसाध्य रूप से निर्मित करना है।

दूसरी बात जिसे हम चाहते हैं, वह है – आपसी बंधुत्व के सिद्धांत की मान्यता। बंधुत्व का क्या अर्थ है? बंधुत्व का अर्थ है सभी भारतीयों के भीतर भाईचारे की भावना। यह वह सिद्धांत है जो सामाजिक जीवन को एकता और मज़बूती प्रदान करता है। यह हासिल करना एक मुश्किल काम है। यह कितना मुश्किल है, इसे ‘जेम्स ब्रायस’ द्वारा संयुक्त राज्य अमेरिका के बारे में अमेरिकी कॉमनवेल्थ पर अपने वॉल्यूम में दी गई संबंधित कहानी से महसूस किया जा सकता है। ब्रायस के शब्दों में:

“कुछ साल पहले अमेरिकन प्रोटेस्टेंट एपिस्कोपल चर्च के त्रैवार्षिक सम्मेलन में उनके ग्रंथों में संशोधन के लिए सभा बुलाई गई। वहां यह विचार प्रकट किया गया कि कम शब्दों की एक प्रार्थना सुझाई जाए जो सर्वमान्य हो। अतः इंग्लैंड के एक ज्ञानी ने ‘हे ईश्वर, हमारे राष्ट्र को आशीर्वाद दें’ की प्रार्थना का सुझाव दिया, जिसे उस दोपहर को तो स्वीकार कर लिया गया लेकिन अगले ही दिन उसे पुनर्विचार के लिए आगे बढ़ा दिया गया। क्यूंकि कई लोगों द्वारा राष्ट्र शब्द के लिए कई सारी आपत्तियां उठाई गईं कि इस शब्द से राष्ट्रीय एकता की पहचान को सीमित किया जा रहा है, और बाद में इसके बजाय इन शब्दों को अपनाया गया, ‘हे ईश्वर, इन संयुक्त राज्यों को आशीर्वाद दें’।

उस समय अमेरिका में बहुत कम एकजुटता थी। जब यह घटना हुई तब अमेरिका के लोग यह नहीं सोचते थे कि वे एक राष्ट्र हैं। अगर संयुक्त राज्य के लोग यह महसूस नहीं कर सके कि वे एक राष्ट्र हैं, तो भारतीयों के लिए यह सोचना कितना मुश्किल होगा!

एक बड़ी भ्रांति

मुझे याद है कि जब भारतीय राजनैतिक बुद्धिजीवियों ने “भारत के लोगों” की अभिव्यक्ति का विरोध किया था। उन्होंने “भारतीय राष्ट्र” की अभिव्यक्ति पसंद की थी। मेरा पक्ष है कि ऐसा मानने में कि हम एक राष्ट्र हैं, हम एक महान भ्रम को पाल रहे हैं। हज़ारों जातियों में विभाजित लोग एक राष्ट्र कैसे हो सकते हैं? इस बात को जितनी जल्दी हम समझ लेते हैं कि हम दुनिया के सामाजिक और मनोवैज्ञानिक मायनों में अभी तक एक राष्ट्र नहीं हैं, हमारे लिए बेहतर है। और केवल तभी हम एक राष्ट्र बनने की आवश्यकता का महत्व समझेंगे और इस लक्ष्य को साकार करने के तरीक़ों के बारे में गंभीरता से सोचेंगे। इस लक्ष्य की प्राप्ति बहुत मुश्किल होगी – संयुक्त राज्य अमेरिका में जितनी मुश्किल रही उससे भी अधिक मुश्किल। संयुक्त राज्य में कोई जाति समस्या नहीं है। भारत में जातियां हैं और जातियां राष्ट्र विरोधी हैं। पहली बात, क्योंकि वे सामाजिक जीवन में विभाजन लाती हैं। वे राष्ट्रविरोधी इसीलिए भी हैं क्योंकि वे जाति और जाति के बीच ईर्ष्या और प्रतिपक्ष पैदा करती हैं। लेकिन अगर हम वास्तव में एक राष्ट्र बनना चाहते हैं तो हमें इन सभी कठिनाइयों को दूर करना होगा। आपसी बंधुत्व तभी स्थापित हो सकता है, जब कोई राष्ट्र हो। बंधुत्व के बिना, समानता और स्वतंत्रता रंगों की परतों से अधिक गहरी नहीं होगी।

ये उन कार्यों के बारे में मेरे विचार हैं जो हमारे सामने हैं। ये कुछ लोगों के लिए बहुत सुखद नहीं भी हो सकते हैं लेकिन यह कहने में कोई इन्कार नहीं कर सकता है कि इस देश में राजनीतिक शक्तियां काफ़ी समय के लिए एकाधिकृत रही हैं और कई लोग केवल बोझ ढोने के जानवर के साथ-साथ शिकार के जानवर भी रहे हैं। इस एकाधिकार ने उन्हें केवल तरक़्क़ी की सम्भावनाओं से ही वंचित नहीं किया है, बल्कि इसने उन्हें जीवन के महत्व से भी दूर किया है। ये निचले और शोषित वर्ग शासित होते-होते थक गए हैं। वे स्वयं को शासित करने के लिए अधीर हैं। इन निचले व शोषित वर्गों में आत्म अनुभूति के लिए इस उत्तेजना को किसी वर्ग-संघर्ष अथवा जाति युद्ध में परिवर्तित नहीं होने देना चाहिए। यह सदन को भी बांट कर रख देगा और तब यह वास्तव में आपदा का दिन होगा। जैसा कि ‘अब्राहम लिंकन’ ने कहा है कि “अपने आप में विभाजित एक सदन बहुत लंबे समय तक खड़ा नहीं रह सकता।” इसलिए जितनी जल्दी उनकी आत्म अनुभूति की आकांक्षाओं को जगह दी जाएगी उतना ही कुछ के लिए बेहतर है, देश के लिए बेहतर है, आज़ादी को बाक़ी रखने के लिए बेहतर है और इस लोकतांत्रिक ढांचे की निरंतरता के लिए बेहतर है। यह केवल जीवन के सभी क्षेत्रों में समानता और आपसी बंधुत्व की स्थापना के द्वारा ही किया जा सकता है। यही कारण है कि मैंने उन पर इतना ज़ोर दिया है।

मैं सदन को और आगे नहीं बढ़ाना चाहता हूं। निःसंदेह स्वतंत्रता एक अत्यंत खुशी की बात है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस स्वतंत्रता ने हमारे ऊपर बड़ी ज़िम्मेदारियां भी डाली हैं। आज़ादी से पहले तक, हमने कुछ भी गलत होने का कारण ब्रिटिश शासन को बताया है यदि इसके बाद चीज़ें गलत होती हैं, तो हमें स्वयं को छोड़कर कोई भी दोषी नहीं होगा। और चीज़ों के गलत होने का खतरा बहुत अधिक है। समय तेज़ी से बदल रहा है। हम सहित अन्य लोग नई विचारधाराओं से जुड़ रहे हैं। वे लोगों द्वारा शासित सरकार से थक रहे हैं और वे लोगों के लिए सरकार बनाने को तैयार हैं और उदासीन भी हैं कि क्या यह लोगों की लोगों के द्वारा सरकार है? यदि हम संविधान को संरक्षित करना चाहते हैं, जिसमें हमने लोगों की, लोगों के लिए, और लोगों के द्वारा सरकार के सिद्धांत को स्थापित करने की बात की है, तो हमें अपने रास्ते में आने वाली उन बुराइयों की पहचान करने में सुस्ती न दिखाने का संकल्प लेना होगा जो लोगों की, लोगों के लिए और लोगों के द्वारा सरकार के सिद्धांत को हक़ीक़त में तब्दील होने से रोकती हैं और उन बुराइयों को ख़त्म करने के लिए हमें कमज़ोर न पड़ने का संकल्प भी लेना होगा। यह देश सेवा करने का एकमात्र तरीक़ा है। मुझे इससे बेहतर और कोई तरीक़ा नहीं पता है।

हिन्दी अनुवाद: तल्हा मन्नान

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