सितम्बर 2008 में इंजीनियरिंग का छात्र था। घर से 1500 किलोमीटर दूर। अख़बारों में बटला हाउस के एनकाऊंटर की खबरें चोकाने वाली भी थी और डराने वाली भी और घरों से दूर रहने वाला हर बाखबर मुस्लिम नौजवान डरा हुआ था। जिस तरह नेयाज फारूकी ने एनकाऊंटर के बात अपने बचपन की सूटकेस निकाल कर एक एक चीज की पड़ताल की थी कि कोनसा समान दिल्ली पुलिस के लिए संदेहास्पद हो सकता है, ठीक उसी प्रकार प्रत्येक मुस्लिम नौजवान ने अपने कमरे, समान और किताबो का जायजा लिया होगा। 2008 में पिताजी ने लैपटॉप दिलाया था। मुझे अच्छी तरह याद है कि सितम्बर 2008 की एक शाम को उन्होंने फोन करके ये कहा था कि लैपटॉप में इस्लामिक साहित्य और तकरीरों के विडियोज नहीं रखना।
नेयाज फारूकी की यह किताब हर मुस्लिम नौजवान की तरजुबानी है, जो छोटे छोटे इलाकों से निकाल कर महानगरों में अपने स्वपन को साकार करने आता है। मेरे खयाल से ऐसी किताब का इंतेज़ार मुझ जैसे सैकड़ों नौजवानों को होगा। बगैर किसी पर्दादारी के बिना किसी संकोच के अपनी आप बीती बताए। इस किताब में उत्तरी बिहार के एस्पैरिंग परिवार की कहानी है। एक मासूम से बच्चें और उसके दादा के हाथों पाई हुई तरबियत, carelessness, शरारतें और ओमंगो व हौसलों की कहानी है।
छोटे से गांव में पढे लिखे मुस्लिम परिवार में बच्चो की पढ़ाई व तालीम और तरबियत की बेबाक तर्जुमानी है। यह उन लोगो के लिए जिन्हें मुस्लिम समाज में बच्चों की upbringing पर सवाल होते हैं। जो वह जानना चाहते है कि मुस्लिम नौजवानों को आंतकवाद के नाम पर गोली मारी थी जाती है और क्यो जेलो में कैद किया जाता है।
इस किताब का नेयाज कोई अनोखे कारनामे करने वाला बच्चा नहीं है। यह वही बच्चा हए जो हम सब में था। कभी पढ़ाई में अव्वल रहा कभी पीछे भी रहा। सस्ती व काहिली भी रही। मां बाप का कद बढ़ाया तो छिपाया भी।
नेयाज हम सब की तरह देश भक्ति के गीत गाता है।हिन्दू मुस्लिम के भाईचारे पर स्कूल में भाषण देता हैं। कश्मीर, फिलिस्तीन, अफगानिस्तान के सवाल उसे घेरते है और उन सबके जवाब वह हिंदुस्तान में रहते हुए ढूंढता है।
2008 के बाटला हाउस के एनकाऊंटर की कहानी उसी दौर के छात्र और नौजवानों की जुबानी बहुत जरूरी काम था जिसे ये किताब पूरा करती है। इस किताब को पड़ने का आनंद उसी दौर का यूवक के सकता है जिसने अपने होश व हवास में 2008 और उसके बाद के घटनाक्रम को देखा हो।
यह जरूरी नहीं के हर पाठक नेयाज के खुलेपन को पसंद करे लेकिन यह बिल्कुल जरूरी था कि 2008 की कहानी इसी खुलेपन से लिखी जाए ताकि देश वासी ये जान सके कि पुलिस लिए मुस्लिम नौजवान normal human being और radical की श्रैणी में कैसे फिट होता है।
लेखक : फरहान सुम्बुल