लीपापोती का पर्दाफ़ाश करती है गुजरात फ़ाइल्स
आशीष मिश्रा
पहली बार जब यह शीर्षक देखा तो जल्दबाज़ी में गुजरात फ़ाइल्स को ‘गुजरात पाइल्स’ पढ़ गया था। किताब पढ़ने के बाद लगा कि ठीक ही पढ़ रहा था। यह बवासीर ही है, सत्ता पर क़ाबिज़ लोगों का ख़ूनी बवासीर। पूरा देश इसी में लसड़-फसड़ हो रहा है। बहुसंख्यक जनता घिन्न और घृणा में ऊब-चूभ कर रही है, लेकिन इससे निकलने का कोई रास्ता दिखाई नहीं देता। यह किताब हर सचेत व्यक्ति को पढ़ना चाहिए और राना अय्यूब की बहादुरी को सलाम करना चाहिए। राना अय्यूब न होतीं तो शायद बीमारों का इतना बड़ा समूह ठीक से पहचाना नहीं जाता, उनकी बीमारी के कुछ सामयिक लक्षण पहचाने नहीं जाते। राना अय्यूब के नाते हम इसे पहचान पाए, इसलिए भी उन्हें सलाम!
यह किताब मूलतः गुजरात दंगों, तमाम फ़र्ज़ी मुठभेड़ों और राज्य के गृह मंत्री हरेन पाण्ड्या की हत्या के समय और उसके बाद तक मोदी और अमित शाह के आसपास के अधिकारियों का स्टिंग है। यह सब राना अय्यूब ने मैथिली त्यागी के छद्म नाम से किया। गुजरात दंगों से अमित शाह और माननीय मोदी जी हिन्दू-हृदय-सम्राट के रूप में उभरे। वहाँ से प्रधानमंत्री तक के सफ़र के बीच में जितना ख़ून बहा इस देश के नागरिकों का, उस सब के पीछे का सच इन वीडियोज़ में दर्ज है। बाद में ये तमाम स्टिंग जाँच एजेंसियों और न्यायालय के सामने अहम सबूत बने। इन सबूतों के आधार पर तमाम लोगों को सज़ा हुई। तो गुजरात फ़ाइल्स नाम की इस किताब में इन स्टिंग्स को एक जिल्द में रख दिया गया है। बस उन अधिकारियों के परिचय में कुछ बातें, उन तक पहुँचने के रास्तों और उनकी कोर्ट के सामने दी गयी गवाहियों को प्रामाणिक संदर्भ के साथ रख दिया गया है। इससे हर अध्याय अगले से जुड़ भी जाता है और हम इसे एक मुकम्मल किताब की तरह पढ़ जाते हैं। अगर ऐसा न किया जाता तो यह सिर्फ़ स्टिंग का असम्बद्ध डिब्बा हो जाता। धीरे-धीरे लगने लगता है कि राना अय्यूब के साथ हम स्वयं इस स्टिंग में शामिल हैं।
इसकी एक उल्लेखनीय ख़ासियत यह है कि इसे तथ्यात्मकता आर तटस्थता के साथ लिखा गया है। मेरे मित्र ने मुझे दिया तो लगा था कि इसमें तथ्य कम भाषणबाजी और लफ़्फ़ाजी ज़्यादा होगी, जैसे कि हम वर्तमान सरकार, मीडिया और उसके विरोधियों में भी देखते हैं। उसमें आवेग और व्यंग्य ज़्यादा होता है, लेकिन तथ्य और तर्क ग़ैर ज़रूरी समझा जाता है। राना अय्यूब की शैली इससे अलग है। अगर ऐसा न होता तो राना अय्यूब अब तक जेल में होतीं। इसके तथ्यों की सच्चाई में कोई दिक़्क़त होती तो वर्तमान सरकार उनसे निबटने के लिए किसी भी हद तक चली जाती। इस सबके बाद भी कोई प्रकाशक इस किताब को छापने के लिए तैयार नहीं हुआ। राना अय्यूब को इसे स्वयं ही छापना पड़ा। और अभी जो हिन्दी संस्करण छपा है, जो कि मेरे हाथ में है, किसी ‘गुलमोहर किताब’ नाम के गुमनाम प्रकाशन से छपा है। मैंने इस नाम का कोई प्रकाशन पहले सुना ही नहीं। ज़ाहिर है कि बड़े प्रकाशकों की छापने की हिम्मत ही नहीं हुई होगी। लेकिन ऐसे ही छोटे-छोटे प्रकाशनों से छपती हुई इस किताब का 12 भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। और लोग कहीं-कहीं से खोज के पढ़ रहे हैं।
इस किताब को पढ़ते हुए आप समझ सकेंगे कि जिसे ‘गुजरात प्रयोग’ कहा जाता है वह दरअसल क्या है! और वह भी प्रदेश के सबसे महत्त्वपूर्ण अधिकारियों के मुँह से। जिसे हम गुजरात प्रयोग कहते हैं, उसका मतलब मुसलमानों के ख़िलाफ़ दलित और पिछड़ी जातियों को गोलबंद कर देना था। सामान्यतः इसके पहले के दंगों में दलित और पिछड़ी जातियाँ दंगों से लुटती-पिटती भले रही हों, लेकिन इसमें सक्रिय रूप से सहभागी नहीं होती थीं। गुजरात में पहली बार इनका मुसलमानों के ख़िलाफ़ उपयोग किया गया। यह ज़मीन से लेकर प्रशासन तक हुआ। उस दौर में हुए तमाम एनकाउंटर्स में दलित अधिकारियों का उपयोग किया गया। राना अय्यूब का ध्यान इस पर रहा है कि वे अधिकारी क्या सोचते होंगे! उन्होने बातचीत में उनका मन टटोलने की कोशिश भी की है। अधिकारी बाक़ायदा कैमरे के सामने कह रहे हैं, कि उन्हें झाड़ू की तरह उपयोग किया गया है। और फिर वे कोर्ट के शिकंजे में आए तो उन्हें बचाया भी नहीं गया। राना अय्यूब के यह पूछने पर कि फिर यह सब समझते हुए, आप लोगों ने इसमें सहयोग क्यों दिया तो जवाब होता है, कि करना पड़ता है, बहुत दबाव होता है। वे बार-बार दुहराते हैं कि एक बार इसमें घुसने के बाद आप कभी इससे निकल नहीं सकते। एक बार किसी रास्ते पर समझौता कर लेने के बाद फिर निकलने के सारे रास्ते बंद हो जाते हैं। वे अधिकारी यह भी कहते हैं कि मोदी और अमित शाह पदोन्नति और बढ़ने का मौक़ा सिर्फ़ उच्च जाति के लोगों को देते हैं, लेकिन सारे गंदे काम हमसे करवाते हैं। वे कहते हैं कि ऑफ़िस में जूनियर भी इस बात को समझता है, इसलिए किसी बात पर अपमानित कर देना उसके लिए सामान्य है। अगर आप ध्यान से देखें तो आर. एस. एस. और विश्व हिन्दू परिषद ने गुजरात के बाद इसी मॉडल को और जगहों पर फैलाया। मुज़फ़्फ़रनगर दंगों में भी यही हुआ था। और पूरे देश में दलित-पिछड़ों का सांप्रदायीकरण किया जा रहा है। इससे दो बातें एक साथ होती हैं, एक तो मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंदुवाद और भाजपा के पक्ष में उन्हें गोलबंद कर लिया जाता है और दूसरे वे सहज ढंग से पहली पंक्ति के रूप में उपयोग हो जाते हैं। उधर मुस्लिम मरे इधर दलित!
एक दूसरी चीज़ जो इस किताब में हमें मिलती है, वह ये कि सत्ता में आने के बाद कोई सांप्रदायिक ताक़त कितनी ख़तरनाक हो सकती है। यह सिर्फ़ किसी समुदाय के लिए ही ख़तरनाक नहीं है, वह अपने समुदाय के लोगों का भी उपयोग करते हैं। सांप्रदायिक ताक़तों का इससे कोई मतलब नहीं कि आप किस समुदाय से सम्बद्ध हैं, इसका मतलब सिर्फ़ इससे है, कि आप कितना उपयोग आ सकते हैं। सत्ता में आते ही पूरी मशीनरी पर उनका क़ब्ज़ा हो जाता है। लेकिन वे किसी संवेदनशील मुद्दे को मशीनरी के रास्ते हल नहीं करते। ऐसा नहीं होता, कि वे किसी ग़लत काम के लिए सीधे अधिकारी को लिखित या कथित आदेश दें। यह काम प्रशासन से बाहर के लोग करते हैं। यह काम तमाम सांप्रदायिक संगठनों से जुड़े हुए लोग हर स्तर पर करते हैं। वही संवाद का माध्यम होते हैं। सत्ता में आते ही ये सरकारें नीचे से ऊपर तक एक अतिरिक्त प्रशासन-रास्ता क़ायम कर लेती हैं। और प्रशासन या तो सिर्फ़ उनके उद्देश्यों में सहयोग करने वाला बन जाता है या फिर उसकी क़ीमत उसे चुकानी होती है। अगर आप इस किताब को पढ़ें तो आपको पता चलेगा कि मोदी और अमित शाह के साथ समर्थन करने वाले अधिकारियों ने कितना लाभ कमाया और उनसे सहमत न होने वाले अधिकारियों को तरह तरह से फंसाया गया। यह प्रयोग इस समय भी पूरे देश में चल रहा है।
इस किताब को किसी गुमनाम प्रकाशक ने छापा है, इसलिए पूरे हिन्दी क्षेत्र में नीचे तक पहुँचने में समय लग सकता। इसका दाम भी ज़्यादा है- लगभग 300 है। अच्छा हो कि इसे मिशनरी ढंग से छापा और पहुंचाया जा सके।