रमज़ान में आत्मा और सांत्वना की तलाश

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क़ानून व्यवस्था और दंड व पुरस्कार का आधुनिक ढांचा मानव अनुभूति और आत्मा के गहरे स्तरों से जुड़ने में विफल रहा है। इसी गहरे स्तर पर मानव से न जुड़ पाने की वजह से हर प्रकार का भ्रष्टाचार व्याप्त है। अतः रमज़ान और रोज़ा मुख्य रूप से आत्म-शुद्धि करने के साथ-साथ शरीर पर आत्मा का और पशुवत प्रवृत्ति पर मानवीयता का प्रभुत्व विकसित करने के लिए आवश्यक है। यह एक स्वस्थ समाज के निर्माण का रोडमैप हो सकता है।

‘विश्व हिजाब दिवस’ : इस्लाम में परदे का विचार और आज़ादी की आधुनिक बहस

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पूरी दुनिया में आज़ादी की बहसों और तमाम देशों द्वारा इस वैश्विक सिद्धांत को स्वीकार करने के बावजूद आज औपनिवेशक शक्तियों द्वारा मुसलमानों को...

लीपापोती का पर्दाफ़ाश करती है गुजरात फ़ाइल्स

इस किताब को पढ़ते हुए आप समझ सकेंगे कि जिसे ‘गुजरात प्रयोग’ कहा जाता है वह दरअसल क्या है! और वह भी प्रदेश के सबसे महत्त्वपूर्ण अधिकारियों के मुँह से। जिसे हम गुजरात प्रयोग कहते हैं, उसका मतलब मुसलमानों के ख़िलाफ़ दलित और पिछड़ी जातियों को गोलबंद कर देना था। सामान्यतः इसके पहले के दंगों में दलित और पिछड़ी जातियाँ दंगों से लुटती-पिटती भले रही हों, लेकिन इसमें सक्रिय रूप से सहभागी नहीं होती थीं। गुजरात में पहली बार इनका मुसलमानों के ख़िलाफ़ उपयोग किया गया।

6 दिसम्बर: रामजन्मभूमि की असलियत

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मेरी नानी कट्टर हिंदू थीं। साल में कोई तीज, त्योहार या व्रत नहीं होगा जिसे उन्होंने अपनी चौरानवे साल की उमर तक निभाया न...

SIO के हस्तक्षेप के बाद तब्लीग़ी जमात की छवि धूमिल करने वाला बयान एमबीबीएस...

बीते रविवार 'एसेंशियल ऑफ मेडिकल माइक्रोबायोलॉजी' पुस्तक के लेखकों ने माफ़ी मांगते हुए अपनी पुस्तक में छपे कोरोना फैलने को ले कर तब्लीग़ी जमात...

जलवायु परिवर्तन: ख़तरा या अवसर?

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जलवायु परिवर्तन मानव इतिहास का सबसे गंभीर संकट है क्योंकि इसके कारण अनेक संकट जन्म लेते हैं। यह केवल पर्यावरणीय चिंता का विषय नहीं है बल्कि यह पृथ्वी के लिए विकास के रास्ते में सबसे बड़ी चुनौती के रूप में उभरा है। इसका प्रभाव अर्थव्यवस्था पर भी पड़ता है। विशेषकर ग़रीब बहुत अधिक प्रभावित हैं तो साथ-साथ सरकार के लिए यह बहुत बड़ी चुनौती भी बन गई है।

अन्याय से लड़ने के लिए ‘सिर्फ़ एक बंदा काफ़ी है’

ऐसे लाखों केस आज भी न्यायालय की तिजोरियों में बंद होंगे जिन पर तारीख़ें तो आती हैं, लेकिन फ़ैसले नहीं आते। मुजरिम खुले आम घूम रहे हैं और पीड़ित अपना मुंह छुपाते फिर रहे हैं कि कोई उन पर लांछन न लगाए। यह फ़िल्म कहती है कि अब समय बदलना चाहिए। पीड़ित अगर हर हाल में अडिग रहे तो फ़ैसले भी उनके पक्ष में होंगे।

पर्यावरण सुधारों के लिए बड़े पैमाने पर भागीदारी की आवश्यकता है

पारिस्थितिकीय तंत्र को नुक़्सान पहुंचाने वाली जीवन-पद्धति की वजह से हमें आज कई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है लेकिन पर्यावरण सुधार शायद ही हमारी राजनीतिक बहसों का हिस्सा बनता हो। हमारे पास जाति और पंथ, धर्मस्थलों और सांस्कृतिक पहचान आदि के बारे में राजनीति करने का समय है लेकिन पर्यावरणीय सुधारों के संबंध में हमारी कोई राजनीतिक सक्रियता नहीं है।

MANUU में छात्रसंघ चुनाव की प्रकिया शुरू

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मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी हैदराबाद में छात्रसंघ चुनाव का बिगुल बज गया है। चुनावी रैली में बोलते हुए, अध्यक्ष पद के उम्मीदवार, शेख़...

मासूमियत भरी उम्मीद जगाती: फ़िल्म हामिद

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कश्मीर, कश्मीर की स्थिति, वहाँ के लोगों आदि को लेकर विभिन्न माध्यमों ने आपकी सोच को विभिन्न नजरिये से प्रभावित किया होगा। इसके बारे में...