पुस्तक समीक्षा: चौथा खंभा प्राइवेट लिमिटेड

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दिलीप मंडल हिंदी पत्रकारिता के जाने माने पत्रकार है इनके लेख अक्सर किसी न किसी पत्रिका न्यूज पेपर या फिर वेबसाइट पर आते रहते है। कई बड़े मीडिया संस्थाओं के साथ काम कर चुके, हिंदी पत्रकारिता और भारत की वर्तमान स्थिति पर पैनी नजर रखने वाले दिलीप मंडल की जिस पुस्तक की समीक्षा करने का चुनाव किया गया है वह पुस्तक “ चौथा खंभा प्राइवेट लिमिटेड ” है जो कि राज कमल प्रकाशन से प्रकाशित हुई है। प्रस्तुत पुस्तक 152 पृष्ठों पर आधारिक विभिन्न लेखों का संग्रह है जिसमें 1990 से 2010 के मध्य घटित भारतीय पत्रकारिता के क्षेत्र की प्रमुख घटनाओं और मीडिया की स्थिति पर चर्चा की गई है।

पत्रकारिता के विषय में गहरी समझ रखने वाले दिलीप मंडल उस समय की पत्रकारिता की शानदार झलक पाठक के सामने रखते हैं। जब पत्रकारिता अपने पतन की ओर जा चुकी थी। वर्तमान में पत्रकारिता जिस स्थान पर है उसकी शुरुआत उसी समय हुई है जिस के बारे में यह पुस्तक विस्तार से बात करती है।

मीडिया की स्वतंत्रता पर हर समय काल में सवाल होता रहा है यही कारण है कि लेखक ने अपनी पुस्तक में मीडिया की स्वतंत्रता को बड़ी प्रमुखता से जगह दी है। पुस्तक के पहले ही लेख में भारत में मीडिया की स्वतंत्रता पर बात करते हुए लेखक प्रमुख मीडिया विश्लेषक राबर्ट मैकचेस्नी को कोट करते हुए लिखते हैं कि “यह सोचना गलत है कि निजी हाथों में होने की वजह से मीडिया स्वतंत्र और लोक कल्याणकारी होगा। व्यवसायिक स्वरूप की वजह से अमेरिकी मीडिया लोकतंत्र के लिए एक नकारात्मक संस्था है। यह लोगो ने अराजनीति करण की प्रक्रिया को बढ़ावा देता है और इस वजह से मीडिया कंटेंट पर कारोबारी और व्यवसायिक हित हावी रहते हैं। ”

इस प्रकार पुस्तक आरंभ से ही अपने पाठक को मीडिया के बारे में शंका से दूर रखते हुए मीडिया की स्वतंत्रता के बाद  मीडिया में चल रहे पैसों के खेल को उजागर करता है और विभिन्न आंकड़ों के माध्यम से स्पष्ट करने की कोशिश करता है कि किस प्रकार मीडिया विज्ञापन के खेल में चल रही है और आपको असल कहानी से दूर वो जो चाहती वह दिखाती है। आपको अपने आधार पर सोचने को मजबूर करती है।

अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन मीडिया द्वारा जनता को मानसिक गुलाम बनाने का एक प्रमुख उदाहरण है। लेखक उस समय के प्रमुख बड़े अखबारों के समाचारों की प्रमुखता के आधार पर विश्लेषण करता है और स्पष्ट करने का प्रयास करता है कि किस प्रकार एक छोटे से आंदोलन को मीडिया के माध्यम से भारत का सबसे बड़ा आंदोलन बनाया गया और इसके उलट 2006 का जातिगत जनगणना के मामले की रिपोर्टिंग से उसकी महत्त्वता को कैसे कम किया गया।

“अन्ना का आंदोलन और कारपोरेट मीडिया का प्यार”
नमक लेख में लेखक यह बताने की कोशिश करता है किस प्रकार कॉरपोरेट के सहयोग से आंदोलन को सफल और बड़ा बनाया जा सकता है। जिस दिल्ली में लाखो किसानों के आंदोलन को उतपात और दंगाई बता कर खामोश कर दिया जाता था उस दिल्ली में एक छोटे से आंदोलन से इतना दबाव कैसे बनता है कि सरकार को झुकना पड़ जाता है। यह सब अगर संभव हुआ तो इसी मीडिया और कारपोरेट की मदद से हुआ।

लेखक ने इस पुस्तक में जिस एक मामले को बड़ी प्रमुखता से उठाया है और जिसका वर्णन बार बार मिलता है वह नीरा राडिया टेप लीक मामला है जिसका वर्णन करते हुए लेखक लिखता है कि “ 2010 में एक नई बात हुई । इस साल भारतीय मीडिया का एक नया स्वरूप लोगों ने देखा। वैष्णवी कॉरपोरेट कम्युनिकेशंस की मालकिन नीरा राडिया दिल्ली की अकेली कॉरपोरेट दलाल या लॉबिस्ट नहीं हैं। ऐसे कॉरपोरेट दलाल देश और देश की राजधानी में कई हैं। 2009 में इनकम टैक्स विभाग ने नीरा राडिया के फोन टैप किए थे, जो लीक होकर बाहर आ गए। नीरा राडिया इन टेप में मंत्रियों नेताओ अफसरों और अपने कर्मचारियों के साथ ही मीडिया कर्मियों से भी बात करती हुई सुनाई देती हैं।”

दरअसल लेखक नीरा राडिया का वर्णन करके मीडिया पर कॉरपोरेट घरानों के प्रभुत्व को दिखाना चाहता है जिसका वर्णन इस प्रकार करता है “ रेडियो टेप को सुनकर देश के लोगों को पहली बार पता चला कि टीवी स्क्रीन पर नीति और नैतिकता को बात करने वाले असल जिंदगी में क्या करते है। मीडिया में गेटकीपिंग सिद्धांत को पढ़ाया जाता है कि न्यूज रूम और संपादकीय विभाग में खबरों के गेटकीपर होते हैं। नीरा राडिया ने पूरे देश को और खास तौर पर देश के शिक्षकों और विद्यार्थियों को बताया कि सिलेबस बदलने की जरूरत है क्योंकि गेटकीपिंग का सच यह नहीं है। गेटकीपर कई बार न्यूज रूम के बाहर होते हैं। राडिया जैसे गेटकीपर कई बार खबरें छपने देते हैं और कई बार रोक लेते हैं।”

आगे बढ़ते हुए लेखक दलित समाज दो प्रमुख घटनाओं का जिक्र करता हुए मीडिया की भूमिका पर सवाल करता है। उनकी पत्रकारिता के सद्धांतों का सच दुनिया के सामने रखता है। पहली घटना मायावती से संबंधित विकिलीक्स की रिपोर्ट के खुलासे से जुड़ा है। दूसरी घटना बिहार के फबीसगंज हत्या मामले से जुड़ा है दोनो ही मामले में मीडिया की भूमिका पर सवाल है।

पुस्तक के अंतिम छोर पर लेखक पत्रकारिता के एक वैकल्पिक प्रकार का जिक्र करते है। स्वतंत्र पत्रकारिता को समाज और मीडिया दोनों को लोकतांत्रिक बनाए रखने की महत्वता भी स्वीकार करता है। मीडिया क्षेत्र में फैली अनेक समस्याओं का निदान स्वतंत्र पत्रकारिता में खोजने की कोशिश करते हुए लेखक अंतिम लेख में जस्टिस मजीठिया की अध्यक्षता में बने समाचार पत्र कर्मचारियों के वेतन बोर्ड की रिपोर्ट पर बात करते है और यह सवाल छोड़ जाते है कि सरकार को मीडियाकर्मियों को सुविधाएं उपलब्ध करानी चाहिए या नहीं ?

इस तरह पूरी किताब में लेखक ने विस्तार से विज्ञापन का खेल, मीडिया की मोनोपोली, नीरा राडिया का टेप, मीडिया की स्वतंत्रता, स्वतंत्र पत्रकारिता के नए अवसर पर चर्चा कर पाठक के मन में मीडिया की धूर्तता की समझ पैदा करता है।
इस पूरी पुस्तक को पढ़ते हुए पाठक के मन में एक आलोचनात्मक विचारधारा का विकास होता है जो कि आज के समय की सब से बड़ी जरूरत है।
ऐसे समय में जब पत्रकारिता सत्ता के आगे नतमस्तक है तब यह पुस्तक आपको मीडिया के अंदर और बाहर ताकत और शक्ति का संतुलन सिखाता है और मीडिया घरानों की असल हकीकत आपके सामने लाता है।

लेखक : दिलीप मंडल
प्रकाशक : राज कमल प्रकाशन
समीक्षक : एमडी स्वालेह अंसारी

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