मानव इतिहास के विभिन्न युगों में लोकतंत्र अथवा जनतंत्र की भिन्न-भिन्न व्याख्याएं की गई हैं। इसको सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों ही दृष्टिकोणों से परखा जा चुका है।
एक ओर पुरातन में यूनानी दार्शनिक जनतंत्रीय प्रणाली को विकारी शासन व्यवस्था मानते थे तो दूसरी ओर आज के आधुनिक युग में इसकी अत्यंत सकारात्मक छवि हमारे चिंतन, मनन और संवाद में मौजूद है। अब्राहम लिंकन के गैटिसबर्ग व्याख्यान के बाद यह स्पष्ट तौर पर स्थापित हो चुका है कि जनता किसी भी जनतंत्रीय शासन प्रणाली का अक्ष अथवा धुरी होती है।
जनतंत्रीय प्रणाली में ‘जन-प्रतिनिधित्व’ तथा ‘जन-भागीदारी’ के अतिरिक्त ‘सूचना प्रवाह’ तीसरा मुख्य कारक है जो जनतंत्र की कार्यप्रणाली का आधार होता है। जनता निर्वाचन प्रक्रिया द्वारा अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करती है जो उनको मूलभूत सुविधाएं मुहैया कराने के लिए संसद अथवा विधान सभाओं में विभिन्न अधिनियम, योजनाएं तथा नीतियां बनाते हैं। जब कार्यपालिका द्वारा इन अधिनियमों, योजनाओं तथा नीतियों को लागू किया जाता है तो इनकी कामयाबी के लिए यह आवश्यक होता है कि उसमें जनता की भागीदारी को सुनिश्चित किया जाए। जनता के प्रतिभाग के बिना किसी भी प्रयोजन का सफल होना मुश्किल होता है।
प्रतिनिधित्व तथा प्रतिभाग के बाद जनतंत्र में सूचना के प्रवाह की बड़ी महत्ता है। जनतंत्रीय प्रणाली जवाबदेही के उसूल पर आधारित होती है जिसके तहत चुने हुए जनप्रतिनिधि अपने कार्यों तथा नीतियों के लिए जनता के समक्ष जवाबदेह होते हैं। इस जवाबदेही को और अधिक मज़बूत बनाने के लिए यह लाज़मी है कि सरकारी दफ़्तरों के कामकाज, उनकी कार्यशैली, उनके साधन व ध्येय इत्यादि की जानकारी जनता को हासिल हो और सूचनाओं का सतत प्रवाह जनता के हितार्थ सुनिश्चित किया जाए। इसी पृष्ठभूमि में हम समझ पाते हैं कि ‘सूचना का अधिकार अधिनियम 2005’ भारतीय लोकतंत्र की अभूतपूर्व उपलब्धि है।
सूचना का अधिकार अधिनियम केवल राजनैतिक तथा प्रशासनिक परिक्षेत्र में ही सूचनाओं के प्रवाह से सम्बन्ध रखता है। हम यह जानते हैं कि किसी भी जनतंत्रीय प्रणाली में, जनता सूचनाएं हासिल करने के लिए केवल सरकारी अथवा प्रशासनिक तंत्र पर ही निर्भर नहीं होती है बल्कि उसके लिए सूचना के अन्य सामाजिक स्रोत भी होते हैं जिससे उसके समाज का वृहत् चिंतन तथा प्राथमिकताएं तय होती हैं। लोगों के आपसी मेल-जोल और संवाद से भी सूचनाओं का प्रवाह समाज में होता है। इसके अतिरिक्त जन-संचार के साधनों जैसे रेडियो, टेलीविज़न, प्रेस, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तथा सोशल मीडिया इत्यादि भी सूचनाओं के नये और आधुनिक स्रोत हैं।
समाज के संतुलन तथा प्रगति के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि समाज के हर सदस्य को हर समय सही सूनचाएं प्राप्त हों; उनको संवाद अथवा समाचारों के रूप में झूठ, प्रपंच, प्रॉपगंडा तथा संवेदनशील सूचनाएं न परोसी जाएं। लेकिन इन अपेक्षाओं और आकांक्षाओं के विपरीत, पिछले दशक से वैश्विक स्तर पर झूठ, प्रपंच, प्रॉपगंडा तथा आवेशित करने वाली सामग्री का दंश बढ़ता ही जा रहा है। 2011 की मिस्र क्रांति कदाचित वह पहली और अंतिम घटना थी जिस में सोशल मीडिया ने सकारात्मक किरदार निभाया था। उसके बाद सोशल मीडिया, प्रेस व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में जिस तरह सूचनाओं एवं तथ्यों को तबाह किया गया उसने दुनिया भर के जनतंत्रों को संभवत: क्रूरता और तानाशाही में परिवर्तित कर दिया है। 21वीं सदी में उत्तर सत्य (पोस्ट-ट्रुथ) और फ़ेक न्यूज़ का यह दौर मानव जाति के समक्ष सब से बड़ी चुनौती है। इस ने न केवल इंसान की समझ को दूषित और उथला किया है बल्कि इसने लोकतंत्र की आत्मा एवं उसके गुणात्मक मर्म को भी भ्रष्ट किया है और लोकतंत्र को महज़ वोटों की गिनती और बहुसंख्यकवाद तक सीमित कर दिया है। दुनिया भर में लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं के गुणात्मकता से संख्यात्मकता की ओर दुर्भाग्यपूर्ण पलायन की इस स्थिति में अल्लामा इक़बाल के ये शब्द जीवंत एवम सार्थक लगते हैं –
जुम्हूरियत इक तर्ज़-ए-हुकूमत है कि जिसमें,
बन्दों को गिना करते हैं, तौला नहीं करते।
फ़ेक न्यूज़ क्या है?
फ़ेक न्यूज़ एक प्रकार का प्रॉपगंडा अथवा पीत-पत्रकारिता (yellow journalism) है जिसका उद्देश्य श्रोताओं एवं दर्शकों को तथ्यों तथा वास्तविकता से भ्रमित करना है। आज के डिजिटल युग में फ़ेक न्यूज़ हमारे सूचना पारिस्थितिकी तंत्र (information ecosystem) में कई रूपों में पैर पसार सकती है। यह लेख, रिपोर्ट, विडिओ, चित्र, मीम (meme), ऑडिओ इत्यादि के रूप में अक्सर पाई जाती है। अत: फ़ेक न्यूज़ की एक समावेशी परिभाषा के रूप में यह कहा जा सकता है कि फ़ेक न्यूज़ एक ऐसी सूचना होती है जो किसी भी प्लेटफ़ॉर्म पर किसी भी रूप में साझा की जाए किन्तु वह तथ्यों और वास्तविकता से आंशिक रूप अथवा पूरी तरह से ख़ारिज हो। फ़ेक न्यूज़ अथवा प्रॉपगंडा केवल आधुनिक युग की वास्तविकता नहीं है बल्कि इतिहास में भी इसके साक्ष्य मौजूद हैं। ऑक्टेवियन और एंथनी के बीच सत्ता प्रतिस्पर्धा फ़ेक न्यूज़ एवं झूठे प्रचार से प्रेरित थी, भारत के स्वतंत्रता संग्राम में मौलवी मुहम्मद बाक़र को अंग्रेज़ों के प्रॉपगंडा के कारण ही फांसी लगाकर शहीद किया गया। अंतर केवल इतना है कि प्राचीन काल की अपेक्षा वर्तमान काल में डिजिटल तथा इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों से फ़ेक न्यूज़ और प्रॉपगंडा का प्रसार अत्यंत तीव्र तथा द्रुतगामी है।
मिस-इन्फ़ॉर्मेशन और डिस-इन्फ़ॉर्मेशन
‘फर्स्ट ड्राफ़्ट न्यूज़’ की क्लेयर वार्डल फ़ेक न्यूज़ को दो भागों में विभाजित करती हैं – मिसइन्फ़ॉर्मेशन (misinformation) और डिसइन्फ़ॉर्मेशन (disinformation)। डिसइन्फ़ॉर्मेशन ऐसी फ़ेक न्यूज़ होती हैं जो जानबूझ कर प्रसारित की जाती हैं जबकि ऐसी ख़बरें अथवा सूचनाएं जो हम से अनजाने में प्रसारित हो जाती हैं उनको मिसइन्फ़ॉर्मेशन कहा जा सकता है। डिसइन्फ़ॉर्मेशन की सब से बेहतरीन मिसाल वह लघुकथा है जिस में एक चरवाहा रोज़ अपनी बकरियां जंगल में चराने के लिए ले जाता था और जानबूझकर खेत में काम कर रहे किसानों को धोखा देने के लिए ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाया करता था, ‘बचाओ, बचाओ, बाघ मेरी बकरियों को खा जाएगा’। जब किसान उसकी आवाज़ सुनकर उस की तरफ़ आते थे तो वह रोज़ हंसकर बोल देता था कि मैं तो मज़ाक़ कर रहा था। अंतत: एक दिन बाघ हक़ीक़त में उसकी बकरियां खा जाता है और वह चीखता रहता है, लेकिन कोई उसकी मदद को नहीं आता है!
मिसइन्फ़ॉर्मेशन की मिसाल वह लघुकथा है जिसका शीर्षक है, ‘आसमान गिर रहा है’। इस कहानी में एक खरगोश किसी पेड़ के नीचे सो रहा था। अचानक उसे किसी ज़ोरदार धमाके की आवाज़ सुनाई देती है और वह घबराकर यह चीखता हुआ भागना शुरू कर देता है, ‘आसमान गिर रहा है, भागो!, आसमान गिर रहा है, भागो!’ खरगोश की बात सुनकर जंगल के सभी जानवर उसके साथ भागने लगते हैं। अंत में जब वे जंगल के राजा शेर के पास जाते हैं तो शेर पूरे मामले को सुनता है और सभी जानवरों के साथ उस पेड़ के पास जाता है जहां खरगोश सोया हुआ था। वहां जाकर ज्ञात होता है कि ज़ोरदार आवाज़ किसी धमाके की नहीं थी बल्कि बेल के पेड़ से बेल का भारी फल नीचे गिरा था जिस से सोता हुआ खरगोश डर गया था और अनजाने में मिसिन्फर्मेशन का हिस्सा बन गया था।
(जारी)
(लेखक फ़ेक न्यूज़ विश्लेषक हैं तथा मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी, हैदराबाद के पब्लिक ऐड्मिनिस्ट्रेशन विभाग में कार्यरत हैं।)