भारत में धर्म परिवर्तन और समकालीन चुनौतियाँ – १

मूल समस्या ये डर है कि बहुत-से समुदाय और लोग जन्म की अनिवार्यता और सामाजिक संरचना के आधार पर उनके लिए बनाये गए ताने-बाने को तोड़कर धर्म को नकार देंगे और एक नयी दुनिया में प्रवेश कर जायेंगे – ऐसा या तो वे आज़ादी की तलाश में करेंगे, या अध्यात्मिक जागरण की खोज में, या कि भौतिक और मनोवैज्ञानिक ज़रूरतों को पूरा करने की यात्रा में निकलकर तिरस्कार एवं अपमान की ज़िन्दगी को पीछे छोड़ देंगे। इसी यात्रा को स्थगित करने के लिए ‘राईस-बैग कन्वर्ट’ जैसी शब्दावली का इस्तेमाल किया जाता है।

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धर्म परिवर्तन आज के दौर में चर्चा करने के लिए एक मुश्किल विषय है। इसकी वजह सिर्फ़ ये नहीं कि माहौल डरावना और भयभीत करने वाला है बल्कि तेज़ी से बदलते हालात के बीच इसे समझने के लिए इसकी तमाम जटिलताओं के साथ न्याय करना बहुत मुश्किल है।

हर मोड़ पर और हर नए दिन ऐसा मालूम होता है कि सामाजिक और राजनीतिक कारकों की गुत्थम-गुत्थी धर्म परिवर्तन की सामाजिक प्रक्रिया को एक बड़ा मुद्दा बनाती जा रही है।

हर बार जब कोई ईसाई नाम/समुदाय का व्यक्ति सोशल मीडिया पर अपने विचार रखता है या किसी बहस का निशाना होता है तब ‘राईस-बैग कन्वर्ट’ (चावल की बोरी के बदले धर्म-परिवर्तन करने वाले) जैसे ताने आम हो जाते हैं। यहाँ तक कि फ़ादर स्टेन स्वामी को भी ट्रोल्स ने इस मामले में नहीं बख़्शा। एक मुस्लिम मर्द और ग़ैर-मुस्लिम औरत के बीच ज़रा-सी भी बातचीत या मेलजोल सब की नज़र में आ जाता है और ‘लव-जिहाद’ की शुरुआत मान लिया जाता है।‌

एक वयस्क महिला अगर अपनी मर्ज़ी से इस्लाम धर्म अपनाती है तो ये उसके लिए हैरत की हद तक क़ानूनी तथा राजनीतिक दिक्क़तों का न्योता हो जाता है। संक्षेप में कहें तो धर्म परिवर्तन को एक सामान्य घटना न मानकर, जो हर समय में सामाजिक जीवन का हिस्सा रहा है, एक षड्यंत्र की तरह देखा जाने लगा है जो ख़ासतौर से समाजद्रोह और राजद्रोह की नियत से अंजाम दिया गया हो। जैसा कि अमूमन समझा जाता है कि मुस्लिम समाज की ये अंतर्निहित इच्छा होती है कि वे जनसंख्या और इलाक़ाई स्तर पर धर्म का विस्तार करें और अपनी पकड़ मज़बूत करें। अलग-अलग राज्यों में हाल ही में प्रस्तावित जनसंख्या नियंत्रण विधेयक इस तथ्य की पुष्टि करते हैं।

हमने सीएए-एनआरसी विरोधी आन्दोलन का कोलाहल भरा समय देखा है। सीएए का एक प्रतिनिधि दावा ये है कि स्वदेशी होना धर्म के आधार पर सुनिश्चित हो, यानि हिन्दू होना भारतीयता का पर्याय  हो और मुस्लिम होने को परायेपन या ‘बाहरी’ होने का पर्याय मान लिया जाए। मुसलमानों को या तो अंदरूनी परदेसी (जिनकी वफ़ादारी पाकिस्तान, आईएसआई या किसी भी ऐसे संगठन के साथ हो सकती है) की नज़र से देखा जाता है या सचमुच के बाहरी (दीमक, घुसपैठिये इत्यादि) माना जाता है। धर्म परिवर्तन विरोधी प्रोपेगैंडा का एक ज़रूरी पहलू ये है कि कुछ धर्मों (यहाँ इस्लाम और ईसाई) को ‘भारतीयता’ की सीमा से बाहर माना जाए। ध्यान दिया जाए तो ये एक कालभ्रमित अवधारणा है क्योंकि ये दोनों धर्म आधुनिक भारत की संकल्पना से बहुत पहले से मौजूद हैं मगर इसके बावजूद ये अवधारणा क़ायम है।

ये एक गंभीर, साफ़ और सीधा धर्मांतरण विरोधी भाव है जिसे भारत में पोषित एवं प्रचारित किया जा रहा है। इस बात को पहले ही स्पष्ट करते चलें कि ये महज़ एक ‘दावा’ नहीं है जो कुछ व्यक्तियों द्वारा किया जा रहा हो। इस बात को अंतर्राष्ट्रीय स्वीकृति मिल चुकी है कि भारत में ऐसे कई क़ानून (जैसे धार्मिक स्वतंत्रता क़ानून जो राज्यों में 1960 से लागू हैं और हालिया जबरन धर्मांतरण विधेयक जिन्हें ‘लव-जिहाद’ के फ़र्ज़ी डिस्कोर्स को ध्यान में रखते हुए पारित किया गया) मौजूद हैं जो धार्मिक स्वतंत्रता के लिए गंभीर ख़तरा हैं। ये सिर्फ़ धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए ही चिंता की बात नहीं बल्कि हर उस व्यक्ति के लिए चिंता का विषय है जो संविधानवाद की वर्तमान स्थिति और सरकार के इसके प्रति नगण्य सम्मान व ध्यान से परेशान है। बहरहाल, सच्चाई ये है कि ऐसे क़ानूनों के विषम प्रभाव धार्मिक अल्पसंख्यकों पर ही पड़ते हैं, ख़ासतौर से इस्लाम और ईसाई धर्म के मानने वालों पर, जिनके अनुयायियों में अक्सर धर्मांतरण का विचार निहित होता है।

राजनीतिक इतिहास

दक्षिणी एशिया में धर्मांतरण वहाँ के लोगों, जगहों और समुदायों की वजह से एक सपाट सतह नहीं बल्कि एक तेज़ हवा से जूझती सड़क है। यहाँ ऐसी कहानियों की भरमार है – मिसाल के तौर पर चेरामन पेरुमल, एक राजा जिसने पैग़म्बर मुहम्मद (स.अ.व.) को ख़्वाब में चाँद के दो टुकड़े करते हुए, जिसका ज़िक्र क़ुर’आन के सूरह क़मर में है, देखने का दावा किया था और बाद में चलकर उसने मलिक बिन दीनार जैसे यात्रियों के लौट जाने पर इस्लाम क़ुबूल किया। इसके अलावा समकालीन संघर्षों की कहानियाँ हैं जब लोगों ने एक अपेक्षाकृत आज़ाद धर्म की तलाश में और जाति-व्यवस्था तथा हिंसा से मुक्ति की चाह में धर्मांतरित होना चाहा और कई बार इस की क़ीमत अपनी जान गंवाकर भी की। सन् 2017 में केरल के उच्च न्यायालय ने हादिया, एक धर्मांतरित मुस्लिम महिला, और शफ़ीन के निकाह को अपराधिकृत करते हुए रद्द क़रार दे दिया था। दोनों की शादी को निरस्त करने के बाद अदालत ने यह भी कहा कि हदिया को मजबूर किया गया था क्योंकि वह स्वयं के लिए ऐसे फ़ैसले लेने में सक्षम नहीं थी।

हादिया का केस धर्म परिवर्तन के इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है और भारत के धर्मांतरित लोगों के अस्तित्व संबंधी चिंताओं को उजागर करता हुआ एक प्रतिनिधि मामला है। चेरामन पेरुमल की यात्रा के सदियों बाद जिस यात्रा को हादिया ने चुना उसका विस्तार आगे तक जाता है, जैसे कंधमाल के दलित ईसाई जिन्होंने अपने गौरव को पुनः प्राप्त करने के लिए ईसाईयत क़ुबूल की। ऐसा करने से उन्हें सार्वजनिक स्थलों पर प्रवेश मिला और उनके भीतर एक सामाजिकता का भाव उत्पन्न हुआ जिससे उन्हें हिन्दू जाति-व्यवस्था ने क्रूरता के साथ वंचित रखा था और इसी वजह से कईयों ने सन् 2008 में अपनी जान भी गंवाई। इसी यात्रा के पदचिन्ह केरल के फ़ैज़ल के मामले में भी देखे जा सकते हैं, जिसकी सन् 2017 में इस्लाम धर्म अपनाने की वजह से आरएसएस ने हत्या कर दी थी। यही सिलसिला उत्तरी भारत के परिदृश्य में मेवात के मेव समुदाय के इस्लाम धर्म को स्वीकार करने में दिखता है या अगर हम ज़िक्र करें तो बाबासाहब अंबेडकर का अपने अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म को क़ुबूल करना वर्तमान में भारतीय दलितों के सामूहिक धार्मिक एवं सामाजिक पहचान के निर्माण में अहम किरदार निभाता है।

सवाल ये उठता है कि इस अत्यंत जटिल इतिहास का वर्तमान में ‘लव-जिहाद’ के मामले से क्या संबंध है? ‘लव-जिहाद’ का अध्ययन करने के लिए हमें मुस्लिम-विरोधी चिंता तथा कट्टरता, तथाकथित मुस्लिम पुरुषों की अत्यधिक मर्दानगी को लेकर डर फैलाना और स्त्रियों की निर्णय लेने की क्षमता को नकारने की प्रवृत्ति के मिले-जुले प्रभाव को समझते हुए ये जानना होगा कि कैसे ये सब मिलकर मूल समस्या को गौण कर देते हैं!

मूल समस्या ये डर है कि बहुत-से समुदाय और लोग जन्म की अनिवार्यता और सामाजिक संरचना के आधार पर उनके लिए बनाये गए ताने-बाने को तोड़कर धर्म को नकार देंगे और एक नयी दुनिया में प्रवेश कर जायेंगे – ऐसा या तो वे आज़ादी की तलाश में करेंगे, या अध्यात्मिक जागरण की खोज में, या कि भौतिक और मनोवैज्ञानिक ज़रूरतों को पूरा करने की यात्रा में निकलकर तिरस्कार एवं अपमान की ज़िन्दगी को पीछे छोड़ देंगे। इसी यात्रा को स्थगित करने के लिए ‘राईस-बैग कन्वर्ट’ जैसी शब्दावली का इस्तेमाल किया जाता है जिसका मतलब है कि दलित या आदिवासी समुदाय से आने लोग महज़ एक चावल की बोरी के बदले ईसाईयत को अपना लेते हैं, इसके पीछे कोई असल वजह नहीं होती। हालांकि ऐसा कहने वाले ये समझने को तैयार नहीं हैं कि अगर कोई समुदाय सामूहिक तौर पर महज़ एक चावल की बोरी के बदले अमुक धर्म को त्यागने के लिए तैयार है तो उस धर्म के सामाजिक आचरण पर गंभीर सवाल उठता है। मपोला विद्रोह, मीनाक्षीपुरम धर्मांतरण मामला और बीसवीं शताब्दी के अन्य विवादों के अध्ययन से ये बात समझ में आती है कि धर्म परिवर्तन के विषय को सम्मान की तलाश, हिन्दू सामाजिक एवं जाति-व्यवस्था की अस्वीकृति, भौतिक लाभ तक पहुँच का लक्ष्य या विस्तृत स्तर पर सामाजिक बदलाव से इतर नैतिकता के मूल्यों के नवीनीकरण और धार्मिकता के परिप्रेक्ष्य में भी देखा जाना चाहिए। (जारी…)

शाएमा एस

(लेखिका जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में शोधरत् हैं तथा Aura Magazine की उप-संपादक हैं।)

हिंदी अनुवाद: उज़्मा सरवत

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