लिंगभेदवादी खेल पोशाकें दर्शाती हैं कि नारीवाद को एक नई भाषा की आवश्यकता है!

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भारत के लिए टोक्यो ओलंपिक 2020 की शुरुआत मीराबाई चानू के भारोत्तोलन में रजत पदक जीतने के साथ हुई। मीराबाई के साथ-साथ पदकों के अकाल से जूझते देश को भी बधाई!

मीराबाई की इस उपलब्धि ने मुझे कर्णम मल्लेश्वरी की याद दिलाई, जो सिडनी गेम्स 2000 में इसी खेल में कांस्य पदक जीतकर, प्रथम भारतीय महिला ओलंपिक पदक विजेता बनीं थीं। उनकी इस ऐतिहासिक जीत ने ही ओलंपिक खेलों की ओर मेरी रुचि जगाई।

इसीलिए, मैं इस अवसर का लाभ उठाते हुए खेलों में महिलाओं की स्थिति पर चर्चा करने का प्रयास करना चाहूंगा, लेकिन यदि आप ऐसा सोच रहे कि मैं आमतौर पर चर्चित और अपेक्षित विषय ‘महिलाओं में प्रतिभा है पर उनके लिए अवसरों की कमी है’ पर चर्चा करने जा रहा हूं, तो ऐसा नहीं है।

बल्कि मुख्यधारा से इतर खिलाड़ियों की वेशभूषा से जुड़े एक नए पहलू पर बात करना चाहता हूं, क्योंकि मेरे विचार से यह वर्तमान में लैंगिक समानता पर चल रहे न्यूनीकरणवादी विमर्श के संकटों में सबसे अधिक प्रासंगिक और प्रमुख है।

जब खिलाड़ी परंपराओं से संघर्ष करते हैं

25 जुलाई को जर्मनी की महिला जिम्नास्टों ने महिला खिलाड़ियों के ‘सेक्सुअलाइज़ेशन’ के ख़िलाफ़ अपना विरोध दर्ज कराने के लिए, दशकों से प्रचलित परंपरागत बिकिनी-लियोटार्ड की जगह शरीर को ढकने वाले यूनिटार्ड पहने क्योंकि महिलाओं की अपेक्षाकृत पुरुष समकक्षों को शरीर को अधिक ढकने वाली पोशाक (ढीले शॉर्ट या लंबी पैंट) पहनने की अनुमति मिलती है।

अगर आपको लगता है कि ये कोई ‘बड़ी बात’ नहीं है, तो मुझे आपको ये याद दिलाने की ज़रूरत है कि महिलाओं का सेक्सुअलाइज़ेशन सिर्फ़ खेल के मैदान तक ही सीमित नहीं होता बल्कि इसका प्रभाव उनके वास्तविक जीवन पर भी पड़ता है।

2018 में पूर्व यू.‌ एस. राष्ट्रीय टीम डॉक्टर, लैरी नस्सार, को कई मशहूर महिला खिलाड़ियों समेत, सैंकड़ों जिमनास्टों के यौन-शोषण के आरोप में 176 साल कारावास का दंड दिया गया था।

उसकी अभियुक्ति के दौरान, खिलाड़ियों ने यह तर्क रखा कि खेल संस्कृति ने महिलाओं के वस्तुकरण और उनके प्रति दुर्व्यवहार को स्वीकृति दी है। इससे पहले, जुलाई में ही नॉर्वे की महिला बीच-हैंडबॉल टीम पर अंतरराष्ट्रीय हैंडबॉल संघ (आई.एच.एफ़.) द्वारा निर्धारित यूनिफ़ॉर्म बिकिनी बॉटम की जगह शॉर्ट्स पहन कर खेलने पर जुर्माना लगाया गया था।

इन महिलाओं ने यूनिफ़ॉर्म तय करने में प्रयुक्त दोहरे मापदंडों को प्रकाश में लाने के लिए जान बूझकर नियम तोड़े। एक तरफ़ जहां आई.एच.एफ़. महिलाओं को ऐसे बिकिनी बॉटम पहनने के लिए बाध्य करता है जिनके किनारे 4 इंच से अधिक नहीं होने चाहिए वहीं दूसरी ओर, पुरुषों को अपने घुटनों से 4 इंच ऊपर तक शॉर्ट्स पहनने की आज़ादी देता है।

यह स्वागत-योग्य क़दम हैं, मगर ज़्यादा की दरकार है

पॉपस्टार पिंक ने नॉर्वे की महिला बीच-हैंडबॉल टीम की खिलाड़ियों पर लगे जुर्माने की राशि भरने का प्रस्ताव यह कहते हुए दिया है कि वे टीम पर गर्व करती हैं कि उन्होंने अपनी यूनिफ़ॉर्म से जुड़े ‘बेहद सेक्सिस्ट (महिला विरोधी) नियमों’ का विरोध किया है।

केवल बीच-हैंडबॉल ही इकलौता ऐसा खेल नहीं है जिसमें लिंगभेदी पोशाक के नियम हैं। ट्रैक और फ़ील्ड, बीच-वॉलीबॉल, बैडमिंटन और टेनिस जैसे कई खेलों में भी महिला खिलाड़ियों के लिए ऐसी पोशाक निर्धारित की जाती है, जिसमें शरीर का अधिकतर भाग खुला रहे।

कुछ वर्ष पहले इसी प्रकार की पहल करते हुए, फ़्रेंच-अल्जीरियन व्यवसायी और कार्यकर्ता, रशीद नक्काज़ ने, घोषणा की थी कि वे उन अर्थदंडों को भरेंगे, जो डेनमार्क में ‘बुर्के पर प्रतिबंध’ लगाने वाले क़ानून की अवहेलना किए जाने के कारण लगाए गए थे; जिसके अंतर्गत चेहरा ढकने वाले कपड़ों को असंवैधानिक क़रार दिया गया था।

ऐसी पहलें सराहनीय और हृदयस्पर्शी हैं लेकिन महिलाओं के शोषण को समूल नष्ट करने के लिए आज़ादी के कुछ परहितकारी विजेताओं से और अधिक की ज़रूरत है।

इस असमानता का क्या औचित्य है?

इस प्रकार के अनुचित व असमान व्यवहार के पीछे क्या कारण हैं? जब आई.एच.एफ़. की वक्ता से यह प्रश्न किया गया, तो उन्होंने उत्तर दिया कि वे ऐसे नियमों के पीछे के कारण को नहीं जानतीं।

हालांकि, इस भेदभाव का वास्तविक उद्देश्य तब सामने आया था जब 2011 में विश्व बैडमिंटन संघ ने आदेश दिया कि महिलाओं को अभिजात्य स्तर पर खेलने के लिए स्कर्ट या ड्रेस अनिवार्य रूप से पहनने चाहिए।

दिए गए तर्क – अधिक ‘प्रलोभक प्रस्तुति’ देने के लिए और महिला खिलाड़ियों को ‘स्‍त्री-सदृश’ दिखाने तथा कॉर्पोरेट आयोजकों व प्रशंसकों हेतु ‘चित्ताकर्षक’ बनाने के लिए।

हम यहां तक कैसे पहुंचे?

यहां उद्गम का संक्षिप्त विवरण है – 18वीं शताब्दी के अंतिम और 19वीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में औद्योगिक क्रांति के कारण उत्पन्न श्रम-रिक्तियों को भरने के लिए बड़ी तादाद में स्त्रियों ने भी कार्यक्षेत्र में क़दम रखा।

जल्द ही, पुरुषों ने, जो कार्यक्षेत्र को नियंत्रित करते थे, बाज़ार में महिलाओं की कार्यक्षमता से अलग एक भिन्न मानदंड ईजाद किया – सेक्स अपील।

हालांकि महिलाओं के स्रीत्व और यौनिकता को पुरुषों की यौनलिप्सा और धन के लिए दोहित करना, उनकी प्राकृतिक अंतर्बाधाओं को ढहाए बिना संभव नहीं था।

इस प्रकार महिलाओं द्वारा स्वयं को सामाजिक व लैंगिक मानदंडों से ‘मुक्त’ करने के लिए प्रोत्साहित करने की कवायद शुरू हुई। यौन-विद्रोह की क्रियाओं के माध्यम से नवीन मूल्य स्थापित किए गए जिनमें अश्लील पहनावे को बढ़ावा देना भी शामिल था।

इन प्रयत्नों ने नारीवादी आंदोलन के साथ तारतम्यता बिठाने में सफलता प्राप्त कर ली। जबकि नारीवाद की पहली लहर प्राथमिक रूप से महिलाओं को कार्यक्षेत्र व अन्य सभी स्थलों पर समान दर्जा व अधिकार दिलाने की ओर प्रयासरत थी, दूसरी लहर के नारीवाद ने पितृसत्ता की ज़ंजीरों को तोड़ने वाली भाषा ग्रहण की और व्यक्तिगत अभिरुचि पर बल दिया, जिसके फलस्वरूप यौनिक मुक्ति के एजेंडे को आधार मिला।

विडंबना पर विचार करें – जो महिलाएं समान वेतन और मताधिकार की मांग कर समाज में अपनी गरिमा के लिए संघर्षरत थीं, वहीं सौंदर्य-प्रतियोगिताओं, विज्ञापनों और सिनेमा में अपनी मर्यादा खो रही थीं – जहां पुरुषों ने शर्तें निर्धारित करना जारी रखा था और महिलाओं को चुनाव की आज़ादी नहीं थी। और यह सब महिला सशक्तिकरण के नाम पर किया जाता रहा है।

महिला खेलों की भी यही वास्तविकता है। नारीवादी आंदोलन महिलाओं को दर्शनीय-खेलों में लाने में सफल तो हुआ परंतु विडंबना यह रही कि यह खेल-भावना से अधिक उनकी यौनिकता के विषय में था।

केंद्रित-विषय का स्थानांतरण : ‘एस्थेटिक्स’ से अधिक ‘एथलेटिसिज़्म’

मशहूर महिला खिलाड़ियों में से कुछ के नाम गूगल करें, आपको खोज के परिणामों में से अधिकतर ऐसे परिणाम मिलेंगे, जिनका खेलों से कोई संबंध नहीं होगा और केवल पुरुषों की यौन कुंठा हेतु सेवार्थ हैं।

महिला खिलाड़ियों का यह रूप प्रायोजकों और आयोजकों के लिए इस क्षेत्र में कुशल होने का प्रमाण है।

और चूंकि पुरुषों द्वारा पहले से प्रयुक्त पोशाक महिलाओं का पूर्ण वस्तुकरण करने की राह में व्यवधान उत्पन्न कर रही थी, इसलिए मौसम के प्रतिकूल होने और खेल से भी कोई संबंध न होने के उपरांत भी उसे अपेक्षाकृत छोटी पोशाकों से बदल दिया।

महिलाओं के इस नग्न-शोषण के ख़िलाफ़ ज़्यादा आवाज़ें क्यों नहीं उठ रहीं?

नारीवाद के समर्थकों के सामने, महिलाओं के वस्तुकरण और शोषण के लिए अपने आदर्शों का अतिक्रमण न होने देना एक चुनौती के रूप में प्रस्तुत है। इसके लिए सभी प्रकार के भेदभाव की कड़ी भर्त्सना करना अत्यंत आवश्यक है।

इसके लिए उन्हें यह भी समझने की ज़रूरत है कि इन मुद्दों से दूरी बनाने के कारण, वे चाहे-अनचाहे महिलाओं के पतन और उनके निम्नीकरण में सहयोगी हैं।

और इसके लिए सबसे पहले, अधिकारों और व्यक्तिगत-अभिरुचि की भाषा से इतर एक नवीन विमर्श की आवश्यकता है।

मुसब क़ाज़ी

(लेखक एसआईओ ऑफ़ इंडिया के राष्ट्रीय सचिव हैं।)

हिन्दी अनुवाद: कुलसूम शमीम

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