पर्यावरण बचाने की बहसों के बीच एक समग्र आख्यान

आधुनिक मनुष्य की प्रवृत्ति ही प्रकृति से युद्ध करने की बन चुकी है। वह लूट-खसोट कर रहा है, जो कुछ भी पा रहा है, जितना चाहे उसे तबाह कर रहा है। मनुष्य महासागरों की गहराई और पहाड़ों की ऊंची चोटियों से लेकर धरती के सबसे गहरे क्षेत्रों तक को लूट रहा है। इन सभी हादसों का मूल कारण हमारा दृष्टिकोण है।

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पर्यावरण बचाने की बहसों के बीच एक समग्र आख्यान

निहाल किडियूर

पर्यावरणविद् एक लंबे समय से हमें क़यामत जैसी परिस्थिति के लिए चेतावनी देते आ रहे हैं लेकिन शायद ही हमारे कानों पे जूं रेंगी हो। इस बार जहां 5 जून 2020 को, एक ओर तो कोविड-19 महामारी, टिड्डियों का हमला, Cyclone Nisarga और Amphan इत्यादि हैं, जिन्होंने निश्चित रूप से हमें दुःख-दर्द दिए हैं, वहीं साथ ही चारों ओर हरियाली का उदय हुआ है तो कहीं कई प्राकृतिक क्षेत्रों के लिए दुर्लभ या यहां तक कि विलुप्त होने वाली प्रजातियों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है, प्रदूषण संकेतक बिल्कुल नीचे हैं, यह स्थिति कम से कम कहने मात्र के लिए तो सुखद है ही। निश्चित रूप से, यह समय आने वाली पीढ़ियों के लिए सबसे निर्णायक होने वाला है। इस समय हमारे पास भविष्य के लिए आशा के साथ ही निराशा, यहां तक कि विनाश के बढ़ते हुए घातक संकेत हैं।

आज हम एक ऐसे चौराहे पर पहुंच चुके हैं, जिसके आगे अपनाया गया रास्ता पृथ्वी पर जीवन के पथ को परिभाषित करने वाला है। जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण क्षरण मानवता के सामने सबसे अधिक भयावह चुनौतियों में से एक है। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि यह हमारे अस्तित्व के लिए ख़तरा है। सूखे और बाढ़ की प्रतिदिन बढ़ती संख्या उपरोक्त मान्यता का प्रमाण है। विलुप्त हो चुकी वनस्पतियों और जीव प्रजातियों की संख्या भी हमारे समय की खेदजनक कहानी कहती है। Noam Chomsky कहते हैं, जलवायु परिवर्तन का “अत्यंत गंभीर” समस्या के रूप में निदान करना एक ग़लत निदान है, यह उससे कहीं अधिक गंभीर समस्या है। हम भारतीय एक “विकासशील” देश के रूप में, स्वयं को “विकास बनाम प्रकृति” के बीच मोल-भाव के प्रश्न से घिरा पाते हैं। हाल के दिनों में, जिस संख्या में तथा जिस गति से “Environmental Clearance” वितरित की गई है, उससे कुछ सामाजिक कार्यकर्ता “Environmental Ministry” का नाम बदलकर “Clearance Ministry” करने की सलाह देने पर मजबूर हो गए हैं। पर्यावरण के प्रति हमारे व्यक्तिगत दृष्टिकोण और कार्यों में गंभीर बदलाव की ज़रूरत है।

इस परिवेश में, मैं एक गंभीर आत्म निरीक्षण, पुनर्विचार और बुद्धिजीवियों के एक साथ आगे आने और साथ मिलकर एक समग्र, समतावादी, सतत विश्व की ओर सफ़र शुरू करने का प्रस्ताव रखना चाहता हूं। उपर्युक्त दृष्टिकोण की पूर्व आवश्यकताओं में से एक प्रकृति, पर्यावरण और मनुष्य के संबंधों पर हमारे दृष्टिकोण में परिवर्तन है। मैं इस संकट की रोकथाम के लिए एक नए आख्यान पर चर्चा शुरू करने के लिए तीन प्रमुख सिद्धांतों का प्रस्ताव रखना चाहता हूं:

ज़िम्मेदारी / स्वामित्व लें

अक्सर पर्यावरणीय तबाही की गंभीरता को समझने के बावजूद, लोग शायद ही कोई प्रतिक्रिया देते हों। यह इस धारणा के कारण है कि “इसमें हमारी कोई ग़लती नहीं है”, या “वे जो कह रहे हैं ऐसा कुछ भी नहीं है, इतना बड़ा परिवर्तन संभव ही नहीं है।” यह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी सच है, जहां विकसित एवं विकासशील देश समस्या की गेंद को एक दूसरे के पाले में फेंकते रहते हैं। इसलिए इस समय, यह सर्वोपरि है कि हम अपने क्रिया-कलापों की ज़िम्मेदारी लेना शुरू करें। इस दिशा में यह पहला क़दम है। क़ुरआन में कहा गया है, “लोगों के अपने हाथों की कमाई के कारण धरती और समुद्र पर बुराई फैल गई है।” (30:41)‌ अत इस सिद्धांत को व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों स्तरों पर लागू किया जाना चाहिए। जब हम ज़िम्मेदारी लेंगे, तो हम प्रभावी रूप से इसके भागीदार बन जाएंगे, जिस से संकट को कम करने के लिए कई रास्ते खुल सकेंगे।

समग्र दृष्टिकोण

आधुनिक मनुष्य की प्रवृत्ति ही प्रकृति से युद्ध करने की बन चुकी है। वह लूट-खसोट कर रहा है, जो कुछ भी पा रहा है, जितना चाहे उसे तबाह कर रहा है। मनुष्य महासागरों की गहराई और पहाड़ों की ऊंची चोटियों से लेकर धरती के सबसे गहरे क्षेत्रों तक को लूट रहा है। इन सभी हादसों का मूल कारण हमारा नज़रिया और दृष्टिकोण है। एक साक्षात्कार में अरुंधति रॉय इस दृष्टिकोण को ख़ूबसूरती से रखती हैं, वह कहती हैं, “मनुष्य सुंदर पहाड़ों को देखता है, लेकिन उसे नज़र यह आता है कि वह इनमें से कितना बॉक्साइट निकाल सकता है।” वास्तव में यही वह मनोवृत्ति है जिसमें गहरे बदलाव की आवश्यकता है।

आज के मुक्त बाज़ार, उदारवादी व्यवस्था में, संसाधनों के दोहन के लिए एक वैकल्पिक दृष्टि की आवश्यकता है। धर्म और अध्यात्म ने अनादि काल से मानवता का मार्गदर्शन किया है और इसके पास ऐसे रत्न हैं जो इस लोक को भी स्वर्ग में बदल सकते हैं। दृष्टिकोण के संबंध में दो महत्वपूर्ण मूल्य हैं, जिनमें से सबसे पहला यह है कि हमें यहां पृथ्वी पर अपनी स्थिति को समझना चाहिए। हम यहां पृथ्वी पर ख़ुदा के उत्तराधिकारी हैं, एक ट्रस्टी हैं और इस जगह की देखभाल करना हमारी ज़िम्मेदारी है। इस प्रकार यह दृष्टिकोण हमारी स्थिति में, लूटने से रक्षा करने की ओर, जीतने या हारने से सद्भाव में रहने की ओर, एक गतिशील बदलाव लाता है। दूसरा बहुत महत्वपूर्ण मूल्य संतुलन है। इस धरती को नाज़ुक संतुलन, या क़ुरआन की शब्दावली में “मीज़ान” के अनुसार तैयार किया गया है, और निर्देश दिया गया है कि इस संतुलन को बिगाड़ा ना जाए। यदि हम आज के बड़े पर्यावरण संकटों पर नजर डालें, तो यह स्वाभाविक रूप से दिख जाता है कि संतुलन के सिद्धांत का उल्लंघन किया गया है। इस प्रकार, समग्र कथानक की खोज में यह भी एक महत्वपूर्ण परिप्रेक्ष्य है।

प्रकृति का सम्मान

तीसरा और महत्वपूर्ण सिद्धांत जो यहां प्रस्तावित किया जा रहा है, वह है प्रकृति के प्रति सम्मान और प्रेम। वनस्पति, जीव-जन्तु, तारे और आकाशगंगाएं उस जटिल पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण करती हैं जिसमें हम रहते हैं। यह आवश्यक है कि इस संसार के सभी भागीदारों के साथ समान महत्व का व्यवहार किया जाए। यहीं इस सिद्धांत का रहस्य छिपा है। हमें सभी प्राणियों को हितधारक के रूप में स्वीकार करना होगा, न कि मनुष्य बनाम अन्य सभी की धारणा को मानते हुए पारिस्थितिकी तंत्र को लूटना है, जिसका परिणाम हम बढ़ती तीव्रता की विभिन्न संकटों के रूप में देखते हैं।

क़ुरआन में “उम्मुल अम्साकलून” की अवधारणा है जिसका अर्थ है विभिन्न प्रजातियों से निर्मित एक संसार। इस अवधारणा से यह समझने में भी सहायता मिलती है कि यहां पृथ्वी पर सभी प्रकार के जीवन का एक दिव्य स्थान है और उनमें उस महान् सृजनकर्ता को समझने के संकेत छिपे हैं जिसने इन सब का सृजन किया है। इस प्रकार प्रकृति में वे रचनाएं ईश्वरीय उद्देश्य के अनुसार कार्य कर रही हैं जो एक बड़े उद्देश्य की पूर्ति करती हैं। अतः प्रजातियों की विलुप्ति के रूप में इन तमाम निशानियों के ग़ायब हो जाने का बुरा असर होना तय है। इस प्रकार हमें नए आख्यान के द्वारा प्रकृति को उसके वास्तविक स्थान पर स्थापित करना है और यह न केवल हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए रहने योग्य पृथ्वी का उत्तराधिकारी बनाने की भौतिकवादी इच्छा है, बल्कि एक सामंजस्यपूर्ण और समन्वित जीवन जीने का हमारा प्रयास भी है।

मैं इस नई भाषा, आख्यान और उद्देश्य की ओर हमारी खोज में सहायता करने के लिए Professor Al-Jayyousi द्वारा सुझाए गए तीन कामों के साथ इस विचार-विमर्श को विराम दूंगा। वे हैं –

  1. हरित सक्रियता, जिसे वे “हरित जिहाद” कहते हैं,
  2. हरित नवपरिवर्तन या “हरित इज्तिहाद”,
  3. हरित जीवन मार्ग या ज़ोहद, जिसे हम संयम का जीवन कह सकते हैं।

उपरोक्त काम अत्यंत गंभीर हैं। विशेष रूप से इस ज्ञान या सूचना युग में, नवपरिवर्तन एक प्रमुख केन्द्रीय क्षेत्र होना चाहिए। अंत में मैं जीवनशैली में बदलाव को शामिल करने की आवश्यकता पर बल देते हुए अपनी बात समाप्त करना चाहूंगा। जैसा कि एक कहावत है, “पृथ्वी के पास हमारी ज़रूरत के लिए सब-कुछ है, लेकिन हमारे लालच के लिए नहीं।” यह अनिवार्य रूप से एक ऐसा संदेश है जिसे इस पर्यावरण दिवस पर समझने की ज़रूरत है। Hubert Reeves ने ठीक ही कहा है, “हम प्रकृति के साथ युद्ध में हैं। अगर हम इसे जीतते हैं, तो हम हार जाएंगे।”

(लेखक का यह लेख 5 जून 2020 को प्रकाशित हुआ था।)

अंग्रेज़ी से अनुवाद: उसामा हमीद

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