फ़ेक न्यूज़ : वैश्विक परिदृश्य
ऑनलाइन व डिजिटल मंचों पर फ़ेक न्यूज़ का प्रसार बहुत तेज़ होता है। विभिन्न शोधपत्रों में यह दावा किया गया है कि ऐसा ‘फ़िल्टर बबल’ की वजह से होता है। फ़िल्टर बबल डिजिटल मंचों की ऐसी तकनीकी प्रक्रिया है जिस में किसी व्यक्ति की सर्च हिस्ट्री और उसके ऑनलाइन व्यवहार के अनुरूप ऑनलाइन व डिजिटल मंचों पर उसको ख़बरें अथवा सूचनाएं स्वत: उपलब्ध कराई जाती हैं। इन मंचों पर किसी व्यक्ति का व्यवहार, उसकी विचारधारा या विशेष हितों के अनुसार तय होता है। यदि कोई व्यक्ति सोशल मीडिया पर साम्प्रदायिक अथवा ध्रुवीकरण से संबंधित सामग्री देख, पढ़ या सुन रहा है तो उसको आगे भी इसी प्रकार की सामग्री उपलब्ध कराई जाती है। इसी कारण अमुक व्यक्ति अपनी विशेष सोच में क़ैद हो जाता है जहां उसको अपने मन्तव्य अथवा पक्ष के अलावा किसी दूसरे व्यक्ति का पक्ष सुनना गवारा नहीं होता है। इस स्थिति को ‘एको चेंबर्स (echo-chambers)’ अवस्था कहा जाता है जिसमें मनुष्य अपने पूर्वाग्रहों में क़ैद हो जाता है।
शोध द्वारा ज्ञात हुआ है कि विश्व स्तर पर फ़ेक न्यूज़ एवं प्रॉपगंडा का इस्तेमाल सर्वाधिक राजनीतिक हितों को साधने और ऑनलाइन सामग्री द्वारा धनोपार्जन में किया जाता है। 2016 में अमेरिकी और यूरोपीय मीडिया में यह ख़बर प्रकाशित हुई थी कि पॉप फ़्रांसिस ने दुनिया को चौंकाया और अमेरिकी राष्ट्रपति पद के लिए डोनाल्ड ट्रम्प का समर्थन किया। इससे पहले कि यह साबित हो पाता कि यह ख़बर फ़ेक न्यूज़ का हिस्सा थी, इस को सिर्फ़ फ़ेसबुक पर ही लगभग 10 लाख बार साझा किया जा चुका था। अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव से पहले ही नए स्थापित हुए वैकल्पिक मीडिया में ट्रम्प के समर्थन में एक सुनियोजित प्रॉपगंडा चलाया गया था। Chris Layton के अनुसार अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव के दौरान किए गए प्रॉपगंडा में राजनीतिक हितों के साथ-साथ आर्थिक लाभ भी प्राप्त किए गए। डोनाल्ड ट्रम्प के साथ-साथ हिलेरी क्लिंटन के पक्ष में भी असंख्य झूठी ख़बरें प्रकाशित की गयीं। ट्रम्प के समर्थन में प्रकाशित की गईं 115 ख़बरें फ़ेसबुक पर लगभग 3 करोड़ बार शेयर की गयीं जबकि क्लिंटन के पक्ष में प्रकाशित होने वाली ख़बरों की संख्या 41 थी जिन को फ़ेसबुक पर 76 लाख शेयर हासिल हुए। फ़ेक न्यूज़ के कारोबार में ऑनलाइन मोनेटाइज़्ड आमदनी का अंदाज़ा मेसीडोनिया के एक युवा की आमदनी से हो जाता है। इस युवा ने छह महीने में लगभग 60 हज़ार डॉलर की आमदनी की जो उसके माता-पिता दोनों की सकल आय से बहुत ज़्यादा थी। विदित रहे कि इस युवा के क़स्बे में 2016 में प्रति व्यक्ति औसत वार्षिक आय केवल 4800 डॉलर ही थी।
एशिया में भी फ़ेक न्यूज़ और प्रॉपगंडा के प्रसार ने राजनीतिक अस्थिरता को प्रेरित किया है। बीबीसी के अनुसार 2015 में चीन में लगभग 200 लोगों को हिरासत में लिया गया। ये लोग कथित तौर पर यह अफ़वाह फैला रहे थे कि तिअंजिन में एक भयंकर विस्फोट हुआ है और चीन की स्टॉक मार्केट शोचनीय अवस्था में है। इसी तरह 2016 में जकार्ता पोस्ट में प्रकाशित ख़बर के मुताबिक जकार्ता के पूर्व गवर्नर बासुकी पुरनामा के ख़िलाफ़ प्रॉपगंडा के तहत एक डॉक्टर्ड विडिओ आम किया गया जिस ने उनकी छवि को काफ़ी प्रभावित किया। यह विडिओ नस्लवादी और साम्प्रदायिक था। इसके अलावा ऐसा माना जाता है कि फिलीपींस में Rodrigo Duterte को राष्ट्रपति पद फ़ेक न्यूज़ और प्रॉपगंडा के बाद ही हासिल हुआ।
फ़ेक न्यूज़ : भारतीय परिदृश्य
1947 में अंग्रेज़ी शासन से आज़ादी मिलने के बाद से ही भारत के लिए लोकतंत्र की राह आसान नहीं रही है और यह स्थिति आज भी ज्यों की त्यों है। आज़ादी के बाद से आज तक भारत लोकतंत्रीय शासन प्रणाली की प्रयोगशाला के रूप में सक्रिय है और दशक दर दशक अपने अनुभवों से सीख रहा है। पण्डित जवाहर लाल नेहरू के दौर में ग़रीबी, भुखमरी के साथ भारत ने पाकिस्तान और चीन से दो युद्ध देखे हैं, उसके बाद आपातकाल के दौर से गुज़रते हुए भारत ने निजीकरण, उदारवाद व वैश्वीकरण की ‘दुनिया’ में क़दम रखा। 21वीं सदी की शुरुआत में ही भारत मुस्लिम विरोधी गोधरा नरसंहार का गवाह बना और इस नरसंहार से देश में सांप्रदायिकता को एक नई संजीवनी सी मिल गई। पहले दशक के उत्तरार्ध तथा दूसरे दशक में डिजिटल मंचों द्वारा इस सांप्रदायिकता को और अधिक बल मिला।
डिजिटल मंचों पर प्रसारित की जाने वाली फ़ेक न्यूज़ तथा प्रॉपगंडा ने भारतीय लोकतंत्र के समक्ष एक नई चुनौती खड़ी कर दी है। इन मंचों पर बहने वाली मुस्लिम विरोधी बयार ने राजनीति का स्वरूप और कलेवर दोनों बदल दिया है, सामाजिक मूल्यों और समरसता की परम्परा को खण्डित किया है, तर्क और विज्ञान पर आधारित लोकतान्त्रिक व्यवस्था को आवेश और ध्रुवीकरण से प्रेरित बहुसंख्यकवादी व्यवस्था में तब्दील कर दिया है। ऐसा नहीं है कि फ़ेक न्यूज़ ने हमारे जीवन के अन्य क्षेत्रों को प्रभावित नहीं किया है; हमारे मनौविज्ञान से लेकर आध्यात्मिकता तक इससे प्रभावित हुए हैं, सत्य को वनवास मिल चुका है, मूल्यों का अवमूल्यन हो चुका है, समाज में संवाद और वाद-विवाद की परम्परा ख़त्म हो रही है, छल, कपट और भ्रष्टाचार बढ़ा है। इन तमाम बातों के बावजूद भारत में फ़ेक न्यूज़ की सबसे बड़ी चुनौती सांप्रदयिकता है।
सितम्बर 2017 से 2020 तक ‘दि वायर उर्दू’ पोर्टल पर प्रकाशित हुए हमारे साप्ताहिक फ़ेक न्यूज़ स्तम्भ में हमने पाया कि सोशल मीडिया में फ़ेक न्यूज़ और प्रॉपगंडा से सम्बन्धित ख़बरों, चित्रों, ऑडियो, विडिओ इत्यादि का प्रसार विभिन्न राज्यों में चुनावों के अनुरूप ही रहा है। देश के नौ राज्यों त्रिपुरा, मेघालय, नागालैंड, कर्नाटक, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, मिज़ोरम, राजस्थान और तेलंगाना में अलग-अलग समय पर विधानसभा चुनाव और समयानुसार ही सोशल मीडिया माध्यमों पर फ़ेक न्यूज़ और प्रॉपगंडा की सामग्री अथवा विषयवस्तु में परिवर्तन दर्ज किया गया। इस दौरान फ़ेक न्यूज़ की शैली से ऐसा मालूम होता है कि फ़ेक न्यूज़ फैलाने वालों का एक बड़ा समूह पूरी तरह से समर्पित और लामबंद होकर राजनीतिक हित साधने के लिए यह कार्य अंजाम देता है।
चुनाव के दौरान अधिकतर फ़ेक न्यूज़ प्रतिद्वंदी पार्टी और उसके नेताओं को निशाना बनाने के लिए और वोटों एवं चुनावी मुद्दों को साम्प्रदायिक रंग देने के उद्देश्य शेयर की गईं। इस अवधि में तक़रीबन 150 ख़बरों का अध्ययन किया गया जिसमें हमने पाया कि इन ख़बरों का एक बड़ा हिस्सा (लगभग 21 ख़बरें) सत्तारूढ़ दलों के नेताओं ने विभिन्न रैलियों, लोकसभा, राज्यसभा, विधानसभा, तथा निजी सोशल मीडिया मंचों पर प्रसारित किया। दक्षिणपंथी संगठनों तथा सोशल मीडिया ने सर्वाधिक 52 ख़बरें प्रसारित कीं जिनके ज़रिए उन्होंने ने अल्पसंख्यकों (विशेषकर मुसलमानों), दलितों, कांग्रेस पार्टी, राहुल गांधी तथा फ़िल्मी हस्तियों को निशाना बनाया। आश्चर्यजनक बात है कि मुख्यधारा मीडिया के कई संस्थान फ़ेक न्यूज़ प्रसारित करते हुए पाए गए। इन संस्थानों ने तक़रीबन 30 फ़ेक न्यूज़ प्रसारित कीं। इनके अलावा सरकारी संस्थानों (06), ग़ैर-सत्तारूढ़ नेताओं (07), कार्यकर्ताओं/ कलाकारों/ शिक्षाविदों (14), ग़ैर दक्षिणपंथी मंचों (13) तथा सामान्य सोशल मीडिया यूज़र्स (29) भी इस कृत्य में लिप्त पाए गए। दक्षिणपंथी मंचों के अलावा फ़ेक न्यूज़ के प्रचार-प्रसार में मुख्यधारा मीडिया की भूमिका चिंताजनक है और इसका साम्प्रदायिक स्वरूप उस वक़्त खुलकर सामने आता है जब यह तथ्यों के विरुद्ध जाकर किसी प्रॉपगंडा के तहत कोरोना महामारी के दौरान मुसलमानों को निशाना बनाती है।
आलिया यूनिवर्सिटी, कोलकाता के शोधकर्ता कैफ़िया लश्कर और मुहम्मद रियाज़ ने 1 मार्च 2020 से 31 अगस्त 2020 के दौरान फ़ेक न्यूज़ निरोधी वेबसाइटों ऑल्ट न्यूज़ तथा बूम लाइव पर प्रकाशित सामग्री की विवेचना की। इस विवेचना में 289 फ़ैक्ट चेक को शामिल किया गया जिस में ऑल्ट न्यूज़ तथा बूम लाइव ने क्रमश: 162 तथा 127 फ़ैक्ट चेक प्रकाशित किए थे। इस अवधि के दौरान प्रकाशित किए गए सभी फ़ैक्ट चेक को दस कूटों (codes) में विभाजित किया गया – (1) साम्प्रदायिक (2) तालाबंदी (3) उपचार (4) राजनीति (5) अर्थव्यवस्था (6) स्वास्थ्य (7) अनुमान (8) जैव-हथियार (9) अंतर्राष्ट्रीय (10) विविध।
क्रम | विषयवस्तु | संख्या | प्रतिशत |
1. | साम्प्रदायिक (Communal) | 81 | 28.02 |
2. | तालाबंदी (Lockdown) | 33 | 11.41 |
3. | उपचार (Treatment) | 30 | 10.38 |
4. | राजनीति (Politics) | 21 | 7.20 |
5. | अर्थव्यवस्था (Economy) | 10 | 3.46 |
6. | स्वास्थ्य (Health) | 38 | 13.14 |
7. | अनुमान (Prediction) | 7 | 2.42 |
8. | जैव-हथियार (Bioweapon) | 5 | 1.73 |
9. | अंतर्राष्ट्रीय (International) | 54 | 28.07 |
10. | विविध (Miscellaneous) | 10 | 3.46 |
शोध में ज्ञात हुआ कि 289 फ़ैक्ट चेक में 81 फ़ैक्ट चेक सांप्रदायिक फ़ेक न्यूज़ से संबंधित थे। शोधकर्ताओं का मानना है कि कोरोना महामारी के दौरान भारत में मुसलमानों को ख़ासतौर पर चिह्नित किया गया और फ़ेक न्यूज़ व प्रॉपगंडा के तहत उनको ‘कोरोना विलन’, ‘कोरोना सुपर-स्प्रेडर’ जैसे नामों से बदनाम किया गया। इसकी शुरुआत अप्रैल 2020 में तब्लीग़ी जमाअत मरकज़ मामले के बाद हुई और भारतीय मुसलमानों को कोरोना फैलाने वाले वेक्टर के रूप में पेश किया गया। सोशल मीडिया पर एक विडिओ वायरल किया गया जिस पर यह दावा किया जा रहा था कि इस विडिओ में इंडोनेशिया के कुछ मुसलमान तमिलनाडु की एक मस्जिद में बर्तनों पर अपनी लार लगा रहे हैं ताकि भारत में कोरोना को फैलाया जा सके। जबकि विडिओ का सच यह था कि इसमें दाऊदी वोहरा मुसलमान एक मान्यता के अनुसार बर्तनों से अन्न का एक-एक दाना साफ़ करके ख़ुद खा रहे हैं ताकि अन्न को बेकार होने से बचाया जा सके। इस तरह की बहुत सी मुस्लिम-विरोधी फ़ेक न्यूज़ को कोरोना की पहली लहर में सोशल मीडिया पर प्रसारित किया गया। इस प्रॉपगंडा में मुख्य धारा मीडिया भी सोशल मीडिया के ढब का अनुसरण करता नज़र आया।
शोधकर्ता कैफ़िया लश्कर और मुहम्मद रियाज़ का मानना है कि ऐसा नहीं है कोरोना काल में ही साम्प्रदायिक प्रवृत्ति की फ़ेक न्यूज़ को सोशल मीडिया मंचों पर प्रकाशित करना शुरू किया गया है बल्कि इससे पहले भी नागरिकता क़ानून विरोधी आंदोलन की छवि धूमिल करने के लिए भी पहले से ही सोशल मीडिया पर साम्प्रदायिक ख़बरों को आम किया जा रहा है। हमारे अपने अध्ययन में भी इस बात की पुष्टि होती है कि सितम्बर 2017 से ही विभिन्न विधान सभा चुनावों के दौरान साम्प्रदायिक प्रवृत्ति की फ़ेक न्यूज़ का उबाल आ जाता है। देश में मुसलमानों की अधिकतर लिंचिंग अफ़वाहों के बाद ही की गई हैं जिसमें सबसे पहले दादरी के मुहम्मद अख़लाक़ को गोमांस की अफ़वाह के बाद मारा गया था। सोशल मीडिया पर समाज का साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण तेज़ी से हो रहा है जिसका शिकार मुख्य तौर पर भारतीय मुसलमान हैं। वक़्त के साथ बहुत सी फ़ेक न्यूज़ निरोधी वेबसाइट्स अपनी जिम्मेदारियों को निभा रही हैं लेकिन यह दंश निरंतर बढ़ता ही जा रहा है। इससे स्पष्ट है कि फ़ेक न्यूज़ की यह महामारी केवल निजी प्रयासों से ख़त्म नहीं हो सकती है, इसके लिए क़ानून को सख़्ती से निपटना होगा और ऐसा लगता है कि इसके लिए देश की विधायिका व कार्यपालिका फ़िलहाल तो इच्छाशक्ति जुटाने में असमर्थ हैं। लोकतंत्र को बचाने के लिए न्यायालय, देश और समाज क्या करेंगे, यह तो समय के गर्भ में ही मौजूद है। विचारों और अभिव्यति की आज़ादी लोकतंत्र का अभिन्न स्तम्भ है किन्तु यदि यह ‘आज़ादी’ नैतिकता से ही आज़ाद हो और विकारी चिंतन पर आधारित हो तो यह किसी दैत्य से कम नहीं। अल्लामा इक़बाल के अनुसार –
हो फ़िक्र अगर ख़ाम तो आज़ादी ए अफ़कार
इन्सान को हैवान बनाने का तरीक़ा!
– नवेद अशरफ़ी
(लेखक फ़ेक न्यूज़ विश्लेषक हैं तथा मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी, हैदराबाद के पब्लिक ऐड्मिनिस्ट्रेशन विभाग में कार्यरत हैं।)
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