लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रुप मे मीडिया की स्वीकार्यता उसकी निष्पक्षता का प्रमाण है। किन्तु समय समय पर हमें यह देखने और सुनने को मिल जाता है कि किस तरह पत्रकारिता पर लगाम कसने की कोशिश की जाती है। कभी पत्रकारों को मारा जाता है तो कभी टीवी चैनलों को धमकियां मिलती हैं।
मंगलवार रात वरिष्ठ पत्रकार गौरी लंकेश की हुई हत्या भी मीडिया की आज़ादी पर हमला माना जा रहा है। गौरी को एक निडर, स्वतंत्र एंव साहसी पत्रकार के रुप में पहचान हासिल थी तथा वे उनके पिता द्वारा शुरू की गयी लंकेश पत्रिका का संचालन करती थीं। उन्हें हिंदुत्वादी राजनीति का कट्टर विरोधी माना जाता था।
उनके खिलाफ बीजेपी नेता द्वारा मानहानि का मुकदमा भी दायर किया गया था जिसमें 2016 में अदालत ने गौरी को दोषी करार दिया था। हाल ही में उन्होंने गोरखपुर मेडिकल कॉलेज हादसे और ड़ॉ कफील की गिरफ्तारी के खिलाफ खुलकर लिखा था। अकसर उनको धमकियां भी मिलती रहती थीं।
उनकी मौत के बाद से एक बार फिर प्रेस की स्वतंत्रता पर बहस छिड़ गयी है। सोशल मीडिया पर भी लोग अपने गुस्से और गम का इज़हार कर रहे हैं। हर कोई देश में मीडिया की स्वतंत्रता पर सवाल खड़ा कर रहा है। क्योंकि किसी देश का लोकतंत्र उस देश की मीडिया पर निर्भर होता यदि मीडिया को कंट्रोल करने का प्रयास किया जा रहा है तो इसका अभिप्राय हुआ कि लोकतंत्र अब सुरक्षित नहीं रहा।
इस समय देश की स्थिति काफी चिंताजनक है। हालात यह हैं कि या तो लोकतंत्र में अब मीडिया को सरकार के अंग के रुप में ही कार्य करना होगा या उसके प्रवक्ता के रुप में अन्यथा निष्पक्षता निर्भीकता के रुप में गौरी शंकर की तरह “खामोश” कर दिये जायेंगे।
हालांकि स्वतंत्र भारत की यह कोई पहली घटना नही है बुद्धिजीवियों ,पत्रकारों, छात्रों , सामाजिक कार्यकर्ताओं , की हत्या भी अब मानो सरकारों की घोषित नीतियों का हिस्सा बनती जा रही है। देश अघोषित आपातकाल की स्तिथि में है सभी निष्पक्ष संस्थानों को खरीदने की सरकारी मुहिम सी चल रही है जो कमज़ोर है वह बिक रहे जो मज़बूत है मारे जा रहे हैं।
लोक की खामोशी तंत्र को और भी अधिक शक्ति प्रदान कर रही है। पर जो बहादुर हैं कोई भी सरकार उनके लबों को खामोश नही कर सकती क्योंकि लब खामोश होगें तो उनके लहु बोलेंगे। आज गौरी शंकर के लबों को ज़रुर खामोश कर दिया है पर लहु आज भी बोल रहा है और बोलता रहेगा।
(सहीफ़ा खान)