महामारी के दौर में मानसिक स्वास्थ्य की देखभाल

1
1210

हमारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में मेंटल हेल्थ (मानसिक स्वास्थ्य) की जब भी बात आती है तो अक्सर अन्य परेशानियों, झिझक और जागरूकता की कमी की वजह से नज़रअंदाज़ कर दी जाती है। मानसिक रूप से स्वस्थ यानी तंदुरुस्त होने का आमतौर पर ये मतलब निकाला जाता है कि अमुक व्यक्ति को कोई मनोरोग न हो या वे समाज में अपने किसी भी व्यवहार की बदौलत पागल न क़रार दिए गए हों।

हालांकि मानसिक स्वास्थ्य का मतलब महज़ बीमारी की अनुपस्थिति से काफ़ी परे है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मुताबिक़ किसी इंसान के सम्पूर्ण रूप से स्वस्थ होने के लिए, यानी शारीरिक अथवा मानसिक दोनों मामलों में, ये सबसे ज़रूरी है कि वे मानसिक रूप से भी स्वस्थ हों – ‘स्वस्थ शरीर के लिए स्वस्थ मन’। हमारा मानसिक स्वास्थ्य सामाजिक, आर्थिक, जैविक, राजनीतिक और पर्यावरण-संबंधी पहलुओं द्वारा निर्धारित होता है।

ये बेहद ज़रूरी है कि हम इन सभी स्वरूपों को ध्यान में रखते हुए ही मेंटल हेल्थ की बात करें। हमें ये याद रखना होगा कि किसी का जीवन ऊपर बताये गए किसी एक पहलू को केंद्र मानकर और बाक़ी पहलुओं को नज़रअंदाज़ करके विश्लेषित नहीं किया जा सकता।

जीवन में मानसिक स्वास्थ्य का क्या और कितना प्रभाव होता है?

हमारा मेंटल हेल्थ कैसा है ये तय करता है कि हम दबाव (स्ट्रेस), घबराहट (एंग्ज़ाइटी), शोक (ग्रीफ़), चिंता या अन्य परिस्थितियों में कैसे प्रतिक्रिया देते हैं! क्या हम निर्माणकारी रणनीति से इनका सामना करते हैं या विनाशकारी रणनीति की तरफ़ आकर्षित होते हैं? निर्माणकारी रणनीतियों से अभिप्राय ये है कि हम बिना किसी को शारीरिक, मानसिक या भावनात्मक तकलीफ़ पहुँचाए (स्वयं को भी नहीं) किसी भी मुश्किल परिस्थिति का समझदारी के साथ मुक़ाबला करें। अगर हम विनाशकारी रणनीतियों की तरफ़ आकर्षित हो जाते हैं तो हमें किसी भी परेशानी का तर्कसंगत हल नहीं सूझता। ऐसे में हम या तो किसी और को नुक़सान पहुँचा बैठते हैं या ख़ुद बुरी आदतों के चंगुल में फँस जाते हैं जिसकी वजह से परिस्थितियाँ बेहतर होने के बजाय बदतर हो जाती हैं। ये भी बेहद ज़रूरी है कि हम इन रणनीतियों के प्रकार की स्वयं पहचान कर सकें और संदेह होने पर या परेशानी से सामना होने पर मदद माँगने से पीछे ना हटें। मानसिक स्वास्थ्य ही ये निर्धारित करता है कि हम अपनी तमाम ज़िम्मेदारियों का वहन करते हुए परिवार तथा दोस्तों के साथ मधुर संबंध बनाये रखने की सहूलत रखें और ज़िन्दगी का आनंद लेने में सक्षम हों। साथ ही हमारा सांस्कृतिक परिदृश्य भी ये निर्धारित करता है की हम किसी परिस्थिति का क्या मतलब निकालते हैं और हमसे कैसी प्रतिक्रियाएँ अपेक्षित होती हैं! इसके अलावा हमारे पास क्या संसाधन उपलब्ध हैं, जैसे आर्थिक ताक़त (दौलत), सामाजिक कौशल, सहायता के लिए विश्वसनीय लोगों का नेटवर्क, कठिन परिस्थितियों से सामना करने का निजी कौशल वगैरह का किसी की विशेष परिस्थिति के मूल्यांकन के लिए बराबर अहमियत है।

ये कोई राज़ की बात नहीं है कि तनाव, अवसाद या घबराहट की वजह से मेंटल हेल्थ पर बुरा असर होता है और इसका सीधा असर हमारी दिनचर्या पर पड़ता है। कोरोना महामारी की वजह से देश में लगभग हर नागरिक अपने किसी दोस्त, परिवार के सदस्य, जानने वाले या किसी अनजान व्यक्ति के कोरोना से संक्रमित होने पर देश में फैले दुर्व्यवस्था के दौर में उनके लिए स्वास्थ्य सुविधाएँ जुटाने में लगा हुआ है। जब जान पर बन आई हो और अस्पतालों में मूलभूत स्वास्थ्य सुविधाओं की क़िल्लत के साथ मृत्यु के बाद अंतिम संस्कार के लिए भी लाइन लगाना पड़े तो ऐसे में मानसिक स्वास्थ्य का ख़याल रखने जैसी बातें गौण हो जाती हैं। हालांकि ऐसे समय में जब ज़्यादातर लोग किसी अपने को खो देने, बीमार की तीमारदारी में या ख़ुद बीमार होने की वजह से शोकाकुल अथवा तनावग्रस्त हों तब मेंटल हेल्थ और भी प्रासंगिक हो जाता है। मेंटल हेल्थ और इससे जुड़े तमाम पहलुओं पर चर्चा करते हुए कैसे हालात बेहतर किये जा सकते हैं इस पर विमर्श ज़रूरी हो जाता है। विमर्श के साथ ही व्यावहारिक रूप से क्या क़दम उठाये जा सकते हैं इस पर भी प्रकाश डालना ज़रूरी है। ख़राब मेंटल हेल्थ के नकारात्मक असर शारीरिक स्वास्थ्य पर भी होते हैं। अध्ययन में पाया गया है कि अगर लम्बे समय तक व्यक्ति दबाव में रहे और इससे जूझने के लिए कोई कारगर युक्ति ना व्यवहार में ला सके तो प्रतिरक्षक तंत्र (इम्यून सिस्टम) के कमज़ोर होने की आशंका होती है। दीर्घकालिक दबाव का सीधा संबंध नकारात्मक संवेग तथा मनोवैज्ञानिक विकारों से भी पाए गए हैं।

मेंटल हेल्थ और कोविड-19: बचाव के कुछ तरीक़े

मेंटल हेल्थ की संकल्पना और कोविड-19 के दौर में इसकी बढ़ती प्रासंगिकता पर विचार करने के बाद सवाल ये उठता है कि इसका सामना कैसे किया जाना चाहिए? क्या हमारे पास तरीक़े हैं जिनकी मदद से हम इन चुनौतियों का प्रभावशाली ढंग से सामना कर सकते हैं? डब्ल्यूएचओ ने महामारी को ध्यान में रखते हुए तमाम गाइडलाइन्स जारी किये हैं जिसका विश्वभर की विभिन्न भाषाओं में अनुवाद भी किया गया है ताकि इसे ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुँचाया जा सके। दुनियाभर में कोविड-19 प्रतिक्रियाओं से जुड़े मनोसामाजिक समर्थन को इकट्ठा करने के लिए ये बेहद अहम है कि कोविड-19 महामारी के मनोवैज्ञानिक परिणाम को ठीक से समझा जाए और इससे दृढ़ता से सामना करने हेतु रणनीतियाँ तैयार करने के लिए मनोविज्ञान के विशेषज्ञ आगे बढ़कर अपना योगदान दें।

सबसे पहला क़दम ये है कि हम तनाव अथवा अन्य मनोवैज्ञानिक परेशानियों के संकेतों की पहचान कर सकने में सक्षम हों। इस समय की मुश्किल मांगों को ध्यान में रखते हुए तनावग्रस्त और थका हुआ महसूस करना स्वाभाविक है। हर व्यक्ति का तनाव से जूझने का अलग तरीका होता है। इसके शारीरिक लक्षण हैं सिरदर्द होना या सोने और खाने में परेशानी होना। इसके अलावा व्यवहार संबंधी और भावनात्मक लक्षण भी हो सकते हैं जैसे काम करने की इच्छा या प्रेरणा का ख़त्म हो जाना, नशा करने की प्रवृत्ति बढ़ जाना, डर, उदासी, नाउम्मीदी, ग़ुस्सा इत्यादि।

अगर ऐसे लक्षण उत्पन्न होने लगें तो ज़रूरी है कि आप स्वयं की देखभाल करें। कोविड-19 से संबंधी सही जानकारी रखें, संक्रमण से बचने के लिए सुरक्षा उपायों का नियमित पालन करें, खाने-पीने का ध्यान रखें, दोस्त-मित्र या परिवार के सदस्यों से बात करने के लिए समय निकलें तथा उनसे साझा करें कि आप कैसा महसूस कर रहे हैं या किन चीज़ों को लेकर चिंतित हैं। ख़ुद की देखभाल के लिए एक अहम पहलू ये भी है कि आप अपनी दिनचर्या को बिगड़ने ना दें और हर हाल में वास्तविकतावादी बने रहें। ऐसी तमाम चीज़ें हैं जो आपके नियंत्रण से बाहर हैं और साथ ही ऐसी भी चीज़ें हैं जिनपर आपका पूरा नियंत्रण है। आपकी कोशिश ये रहनी चाहिए कि आप उन चीज़ों को सोचकर बुरा ना महसूस करें जिनपर आपका बस नहीं है, जैसे कोविड-19 से किसी की जान चले जाना, किसी का नौकरी से हाथ धो बैठना, सरकार का कोविड-19 को लेकर रवैया आदि।

मानसिक स्वास्थ्य तथा संतुलन बरक़रार रखना हमारे दैनिक गतिविधियों में होने वाली रुकावटों से बचा सकता है मगर यदि पूरी कोशिश के बावजूद भी आप अकेले इससे सामना करने में अक्षम हैं तो किसी की सहायता लेना ही अक़्लमंदी है। अगर आप लंबे समय तक तनावग्रस्त महसूस कर रहे हों तो फ़ौरन स्वयं की देखभाल को अहमियत देना शुरू कर दें क्योंकि दूसरों की मदद के लिए पहले स्वयं भी स्वस्थ होना ज़रूरी है। ज़रूरत पड़ने पर मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ से सहायता लेने से पीछे ना हटें।

आर्थिक, सामाजिक और नीतिगत स्तर पर तैयारी से जुड़े सवाल

व्यक्तिगत स्तर पर कोविड-19 की वजह से उभरने वाली मानसिक परेशानियों से जूझने के लिए तैयार रहना लाज़मी है। इसके साथ ही मेंटल हेल्थकेयर वर्कर्स को जागरूकता फैलाने में भी बढ़-चढ़कर सामने आने की ज़रुरत है। मगर इन तमाम कोशिशों के बावजूद कुछ सवाल फिर भी बाक़ी रह जाते हैं। हाल ही में प्रकाशित अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी द्वारा किये गए एक शोध के मुताबिक़ कोविड महामारी ने 23 करोड़ और भारतीयों को ग़रीबी रेखा से नीचे धकेल दिया है। आँकड़े जब सुनने में इतने भयावह हों तो ज़मीनी हालात कितने ख़राब होंगे इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है। हालांकि इसी शोध के अनुमान के मुताबिक़ अगर सामान्य स्थिति होती तो लगभग 5 करोड़ लोगों को 2019 से 2020 के बीच ग़रीबी रेखा से ऊपर उठना चाहिए था। ऐसे में सवाल ये भी उठता है कि जहाँ बेरोज़गारी, हिंसा, भेदभाव और ग़रीबी से पहले से ही जूझ रही आबादी का एक बड़ा तबक़ा हो और ऊपर से महामारी के प्रकोप से मज़ीद दुखों में इज़ाफ़ा हो जाए तो सिर्फ़ जागरूकता फैलाने और मदद लेने के लिए लोगों को प्रोत्साहित करना कितना कारगर है? क्या ऐसे में अपनों की मौत का शोक मनाने की सहूलत होना भी एक विशेषाधिकार नहीं बन जाता? ऐसे में बहुपक्षीय और लक्षित नीतियों की प्रासंगिकता पर ध्यान जाता है और इससे जुड़े पहलुओं को उजागर करना महत्वपूर्ण हो जाता है।

साइकोलॉजिस्ट, थेरेपिस्ट और साइकायट्रिस्ट एक सीमित स्तर तक ही लोगों की मदद कर सकते हैं। आँकड़ों की भयावह तस्वीर की तरफ़ दुबारा रुख़ करें तो मालूम होता है कि भारत में इंडियन जर्नल ऑफ़ साइकायट्री में प्रकाशित 2019 के एक आर्टिकल के मुताबिक़ प्रति ‘एक लाख’ की आबादी के लिए ‘पौने एक’ साइकायट्रिस्ट मौजूद हैं। ग़ौरतलब है कि भारत सरकार के पास वर्तमान में आधिकारिक मानसिक स्वास्थ्य कर्मचारियों का कोई डेटाबेस मौजूद नहीं है। ऐसी स्थिति में साइकायट्रिक सोशल वर्कर्स की महत्ता बढ़ जाती है। देश के अलग-अलग मुख्यधारा से कटे हुए तथा पिछड़े इलाक़ों में मदद पहुँचाने का काम साइकायट्रिक सोशल वर्कर्स बख़ूबी निभा सकते हैं। मानसिक स्वास्थ्य की देखभाल की लड़ाई में अगर हम हर वर्ग को शामिल नहीं कर पा रहे हैं तो ये हमारी विफलता है।

इस सिलसिले में भारत सरकार की तरफ़ से उठाये गए क़दम भी उल्लेखनीय हैं। सन् 2017 में पारित हुए मेंटल हेल्थकेयर एक्ट में तमाम प्रावधान लाए गए जिनमें आत्महत्या को अपराध की श्रेणी से बाहर निकालना शामिल है। देश के कुल 742 ज़िलों में से 650 ज़िलों के प्राथमिक चिकित्सा केंद्रों पर सपोर्ट सिस्टम बनाये गए हैं, इनका कितना फ़ायदा हुआ इसके लिए कई रिपोर्ट्स प्रकाशित हुए हैं जो कोई उजली तस्वीर नहीं दिखाते। आधे-अधूरे मन से ही सही प्रयास किये गए हैं, देखना ये है कि समस्या की गंभीरता के अनुपात में कब प्रयास किये जायेंगे! बताते चलें कि 2021 के बजट में जहाँ स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय को कुल 712.69 अरब रु/- की धनराशि आवंटित की गयी है उसमें से एक प्रतिशत से भी कम यानी महज़ 5.97 अरब रु/- मानसिक स्वास्थ्य के लिए निर्धारित किया गया है।

हर पहलू से समस्या को समझने के बाद स्वाभाविक प्रतिक्रिया ये होनी चाहिए कि इससे जूझने के लिए हर पहलू पर काम शुरू किया जाए। मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं की जड़ मनोवैज्ञानिक होने के साथ-साथ आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और नैतिक व्यवस्थाओं तक फैली हैं। इसके अलावा व्यक्तिगत तथा सामूहिक दोनों स्तरों पर प्रयासों की ज़रुरत है जिसमें हर व्यक्ति का योगदान बेहद महत्वपूर्ण है। वैश्विक महामारी की मार भले ही सब पर एक साथ पड़ी हो मगर इससे निपटने के लिए हर देश और उसके नागरिकों की विभिन्न परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए ही रणनीतियाँ तैयार की जानी चाहिए। समस्या को व्यापक स्तर पर नहीं समझने की ग़लती की वजह से अच्छी नियत के साथ उठाये गए क़दम भी उतने कारगर साबित नहीं होंगे। मानसिक स्वास्थ्य की देखभाल की अहमियत अब धीरे-धीरे ही सही मगर आम जनता की नज़र में आ रही है। उम्मीद और मज़बूती के साथ सब एक साथ खड़े हो जायें तो कोई परेशानी इतनी बड़ी नहीं कि हल न की जा सके।

– उज़्मा सरवत

(लेखिका आईआईटी गाँधीनगर से कॉग्निटिव साइंस में परास्नातक हैं।)

1 COMMENT

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here