क्या एहसान जाफ़री को हम भूल जाएंगे?

21 साल पहले, आज (28 फ़रवरी) ही के दिन, गुजरात में हिन्दुत्ववादी भीड़ ने गुलबर्ग सोसाइटी पर हमला किया था जिसमें कांग्रेस के पूर्व सांसद एहसान जाफ़री सहित 69 लोगों की दर्दनाक मौत हो गई थी। एहसान जाफ़री ने गुलबर्ग सोसायटी के लोगों को बचाने के लिए सबको फ़ोन किये, यहाँ तक कि तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को भी, लेकिन किसी ने उनकी मदद नहीं की। कौन थे एहसान जाफ़री? क्या थी गुलबर्ग सोसायटी और क्या हुआ उनके साथ? पढ़िए इस लेख में।

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क्या एहसान जाफ़री को हम भूल जाएंगे?

राजीव पाठक

मैं एहसान जाफ़री हूं। पिछले कई सालों से हर थोड़े दिन के अंतर पर अख़बारों में मेरे बारे में कुछ छपता ही रहता है। टीवी में कुछ-न-कुछ आता ही रहता है। बहुत सारी कहानियां – कुछ सच, कुछ सच्चाई से परे। तो मुझे लगा कि ख़ुद ही दुनिया को अपनी पूरी कहानी बता दूं। तो सुनिये मैं कौन था और क्‍यों मारा गया?

मेरी पैदाइश आज़ादी से पहले ही 1929 में मध्य प्रदेश के बुरहानपुर में हुई। अब्बा अल्लाहबख़्श जाफ़री पेशे से डॉक्‍टर थे। सिर्फ 6 साल की छोटी उम्र में ही अहमदाबाद आ गया था। अब्बा की शहर के रखियाल इलाक़े में एक डिस्पेंसरी थी। मैं भी पुराने शहर के आर सी स्कूल में पढ़ा और फिर बाद में खाडिया इलाक़े के कॉलेज से बीकॉम किया। मुझे डॉक्‍टर नहीं बनना था सो मैंने कॉमर्स में ग्रेजुएट होने के बाद वकालत की पढ़ाई की।

अब्बा की डिस्‍पेंसरी का जो इलाक़ा था वहां कई सारी कपड़ा मिलें थीं। वो वक़्त था जब अहमदाबाद भारत का मैनचेस्‍टर कहलाता था और शहर में 100 के क़रीब कपड़ा मिलें थीं। इसलिए मैं मिलों में काम करने वाले लोगों से लगातार मिलता रहता था। उन लोगों से मिलते-जुलते कब ट्रेड यूनियन की गतिविधियों में रम गया, इस बात का पता ही नहीं चला। जाने-माने कम्युनिस्ट एम एन रॉय साहब से मैं बड़ा प्रभावित था। इसलिए शुरुआती दिनों में कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ाव रहा।

50 के दशक में बडी रेल हड़ताल भी हुई थी। तब मैं भी साथियों के साथ शामिल हो गया था। मुझे और मेरे भाईजान को गिरफ़्तार कर वड़ोदरा की जेल में भेजा गया। मेरी बहन को भी पकड़ा था लेकिन वो महिला होने की वजह से दूसरे दिन ही छूट गई। लेकिन मैं और भाईजान क़रीब एक महीने तक जेल में रहे।  

1962 में एक रिश्तेदार द्वारा सुझाई गई ज़किया नामक लड़की से मेरी शादी हो गई। ज़किया भी मध्य प्रदेश के खंडवा की थी। शादी के बाद हमारा प्यार परवान चढ़ा और शादी के डेढ़ साल बाद हमारी पहली औलाद हुई, तनवीर -जो आजकल सूरत में रहता है और वहीं नौकरी करता है। तब तक राजनीति में कई लोगों से मेरी दोस्ती हो गई थी। गुजरात में कम्युनिस्ट पार्टी का ज़्यादा ज़ोर नहीं था और मैं कांग्रेस में जुड़ चुका था। कांग्रेस में कई लोगों ने मुझे राजनीतिक समझ देने में भूमिका निभाई। सबसे ज़्यादा मुझे कान्तिलाल घीया साहब और हितेन्द्र देसाई साहब से काफ़ी कुछ सीखने को मिला।

1963 में ही मैं डॉक्‍टर गांधी की चौल में रहने चला आया। एक घर किराये पर ले लिया था। चौल के जो मालिक थे, वो पुलिस महकमे में जमादार थे – हम सब उन्हें जमादार साहब के नाम से ही जानते थे। मैं राजनीति में अच्छी ख़ासी दिलचस्पी लेने लगा था, थोड़ी-थोड़ी कांग्रेस में पैठ भी हो गई थी। मैं वकील था तो कई लोग आया-जाया भी करते थे। मैं बहुतों के केस फ़्री में भी लड़ लेता था – लड़ क्या लेता था उन्हें मुफ़्त क़ानूनी सुझाव दे देता था। उसी वक़्त गुजरात सरकार की यानि कांग्रेस सरकार की स्कीम आई थी हाउसिंग बोर्ड की, जिसमें किसी प्‍लॉट पर मकान बनाने के लिए सरकारी मदद मिलती थी।

मैं जहां रहता था, वहां डॉक्‍टर गांधी की चौल से सटा हुआ एक बड़ा प्‍लॉट था। हमारे मित्रों ने मिलकर सुझाव रखा कि यहां कुछ मकान बनाये जा सकते हैं, अगर सरकार मदद करती है तो। मैं कांग्रेस में था ही तो सरकार में बैठे लोगों से बातचीत हुई और सरकारी मदद मिलना भी तय हो गया। तो हमने वहां क़रीब 19 बंग्ले या यूं कहें कि टेनामेन्ट बनाने की योजना तैयार की।

गुलबर्ग सोसायटी

उस स्कीम का नाम तय किया गया गुलबर्ग – यह बेहद ही ख़ूबसूरत नाम है। वैसे तो ये इस्लामी नाम नहीं है और इसका मतलब होता है गुलाब की पंखुड़ी। इतना ख़ूबसूरत नाम है तो इसे किसी मज़हब से क्यों जोड़ें? सो रख दिया और ऐसे अस्तित्व में आई गुलबर्ग सोसायटी। उस वक़्त यहां इतनी भीड़ नहीं होती थी। ज़्यादातर मिल में काम करने वाले लोग ही आसपास रहते थे और कुछ उनसे जुड़े छोटा-मोटा काम करने वाले।

गुलबर्ग सोसायटी में हमने काम शुरू कर दिया था और हम उससे सटे हुए डॉक्‍टर गांधी की चौल में जमादार साहब की निगरानी में रहते थे। इसी बीच 1969 में अहमदाबाद में भयानक सांप्रदायिक दंगे भड़के। इन दंगों की आग ने अहमदाबाद शहर में भाईचारे की भावना पूरी तरह से ख़त्म कर दी थी। उस वक़्त हम गुलबर्ग सोसायटी के प्‍लॉट में अपने वाहन पार्क करते थे और रहते थे पास के अपने घर में। लेकिन उस वक़्त भी सांप्रदायिक दंगे होते ही लोगों की निगाह जैसे बदल जाती थी! जिनके साथ मिलकर रोज़मर्रा के काम करते थे, उन्हीं लोगों की नज़र में हम पराये और हमारे लोगों के मज़हब के लिए वो पराये हो जाते थे।

उस वक़्त दंगाईयों ने गुलबर्ग सोसायटी में खड़ी मेरी गाड़ी को आग लगा दी थी। जमादार साहब की मेहरबानी से हम लोग पुलिस की वैन में बैठाकर पास के शाहीबाग़ पुलिस हेडक्‍वार्टर में शिफ़्ट कर दिये गये थे। उस वक़्त मुझे जहां तक याद है क़रीब एक या डेढ़ महीना हम पुलिस हेडक्‍वार्टर में ही रहे थे और फिर स्थिति सामान्य होने पर दोबारा अपने घर आ गये। तब भी मुझे कई लोगों ने पूछा था कि यहां रहना कितना सुरक्षित रहेगा! लेकिन मुझे हमेशा इंसानियत में भरोसा रहा। इसलिए हमने जल्द ही यहां सभी घर बना लिये और सभी लोग रहने आ गये।

यहां रहना बहुत अच्छा लगता था। सबके अच्छे ख़ासे मकान थे, रहने वाले भी सभी रुतबेदार लोग थे। जगह काफ़ी थी तो बच्चों के खेलने के लिए भी जगह थी और पेड़ भी बहुत सारे थे। यहां रहना मन को अच्छा लगता था। एक वजह ये भी थी कि आसपास की चालियों में भी ज़्यादातर लोग जानने वाले थे। वो लोग भी मेरे घर कभी कोई काम लेकर तो कभी दूसरा काम लेकर आते रहते थे। राजनीति में मेरी अच्छी प्रगति हो गई थी। मैं कांग्रेस के शहर के बड़े नेताओं में शुमार होने लगा था। मैंने मेहनत भी बहुत की थी। मज़दूरों में भी मुझे सभी लोग पहचानते थे और सम्मान करते थे।

फिर देश में इमरजेंसी आई, ये तो सभी जानते ही हैं। कांग्रेस के ख़िलाफ़ एक माहौल बन गया था। ऐसे में अहमदाबाद की सीट से मुझे कांग्रेस का उम्मीदवार बनाया गया, 1977 में हुए लोकसभा के लिए। लोगों का प्यार इतना था कि जब हमारी नेता इंदिरा जी ख़ुद हार गईं थीं, ऐसे में गुजरात में भी लोक दल की लहर थी तब भी एक मुस्लिम – जो कि वोटर के तौर पर माइनॉरिटी ही था – होने के बावजूद भी लोगों ने मुझे जिता दिया और मैं अहमदाबाद का सांसद बन गया। इस प्यार ने इंसानियत में मेरे भरोसे को और मज़बूत किया।

लेकिन 1978 में इंदिरा जी के ख़िलाफ़ कई नेता हमारी पार्टी में ही खड़े हो गए। देवराज उर्स जी के नेतृत्व में शरद पवार समेत हमारे कई नेताओं ने मिलकर अलग पार्टी बना ली। उसका नाम रखा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (उर्स)। मेरे कई अगुआ नेता भी उसी में चले गये थे तो मैं भी उनके साथ चला गया। 1980 में चुनाव हुए तो मैं कांग्रेस (उर्स) का अहमदाबाद का उम्मीदवार था। हालांकि मैं जीत नहीं पाया।  महज़ 7000 वोट ही मिले। लेकिन मैं भी सभी के साथ थोड़े समय बाद दोबारा कांग्रेस में आ गया।

फिर आया 1984-85 का वक़्त। जब पूरे गुजरात में आरक्षण से जुड़े दंगे हुए। गुजरात की कांग्रेस सरकार ने अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को बख़्शी आयोग की सिफ़ारिश को मानते हुए शिक्षा में और नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण देने का फ़ैसला लिया। उस वक़्त ज़्यादातर अगड़े वर्ग के लोग – जिनमें पटेल समुदाय भी शामिल था, बड़े पैमाने पर विरोध में निकले थे। पूरे गुजरात में भारी दंगे हुए थे। राजनीति ने थोड़े समय में अगड़ों-पिछड़ों की दुश्मनी को एक टर्न दे दिया और मामला बदलकर हिंदू-मुस्लिम के बीच सांप्रदायिक दंगे की शक्‍ल में बदल गया। फिर गुलबर्ग सोसायटी पर दंगाईयों ने हमला किया। लेकिन उस वक़्त पुलिस ने अच्छी कार्रवाई की थी और हमारी रक्षा की थी। उस वक़्त जहां तक मुझे याद है तब दंगाईयों पर पुलिस फ़ायरिंग में गुलबर्ग सोसायटी के बाहर ही एक दंगाई मारा गया था और फिर कभी कोई घटना नहीं हुई।

लेकिन 84 के दंगों ने गुलबर्ग सोसायटी के लोगों के मन में एक असुरक्षा की भावना खड़ी कर दी थी। उस वक़्त से लेकर 2002 तक क़रीब 40 प्रतिशत लोग घर बदल चुके थे। जो उस वक़्त रहते थे वो कहीं और रहने चले गये थे और नये लोग गुलबर्ग में रहने आ गये थे। लेकिन इस दौरान भी मेरा आसपास के लोगों से आम दिनों में काफ़ी सौहार्दपूर्ण रिश्ता बना रहा। सिर्फ़ गुलबर्ग ही नहीं आसपास के लोग भी मुसीबत के वक़्त में मेरे पास आते रहते थे। ईद में मुझे वो मिलने आते थे और दीवाली में मैं कईयों के घर जाया करता था। दीवाली मुबारक के कार्ड भी कई दोस्त बेहद दिली बधाई के साथ भेजते थे। ये मुझे हमेशा अच्छा लगता था।

मेरे बच्चे भी अब मुझसे दूर हो गये थे। बेटी निशरीन की शादी 84 में हो गई थी और बाद में वो भी विदेश में अपने शौहर के साथ बस गई थी। छोटा बेटा ज़ुबैर भी 1999 में सॉफ़्टवेयर इंजीनियर बनकर विदेश में बस गया। सबसे बड़ा बेटा तनवीर अहमदाबाद से दूर सूरत में नौकरी करता था। लिहाज़ा उसे भी सूरत में ही रहना पड़ता था। ऐसे में मुझे गुलबर्ग सोसायटी से और लगाव हो गया क्योंकि आसपास के लोगों ने मुझे कभी अकेला महसूस नहीं होने दिया। वैसे बुरे दिनों में सुरक्षा के लिए मेरे पास एक लाइसेंसी रिवॉल्‍वर भी था।

फ़रवरी 2002 का महीना

फिर आया वो खौफ़नाक फ़रवरी 2002 का महीना। 27 फ़रवरी को ख़बर आई कि गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस जला दी गई है और अयोध्या से वापस आ रहे कई लोग मारे गये हैं। आरोपी मुस्लिम थे और विक्टिम हिंदू। उसी दिन दोपहर से माहौल में अजब-सी एक घबराहट महसूस हो रही थी। रात को हमारी गुलबर्ग सोसायटी के एक रिटायर्ड पुलिस अधिकारी भी आये और कहा कि आप सभी को कुछ दिनों के लिए कहीं और चले जाना चाहिए।

लेकिन मुझे लगा कि नहीं हम हमेशा से यहां रहते आये हैं और कभी कुछ नहीं हुआ और फिर पुलिस तो है ही हमारी सुरक्षा के लिए। कई परिवार चले गये लेकिन मैं और कुछ और परिवार यहीं रहे। मैं मना रहा था कि अगर दंगे हों भी तो जल्द ख़त्म हो जायें। मुझे सूरत जाना था। तनवीर की बेटी दक्षिण भारतीय नृत्य सीख रही थी और जल्द ही उसका भरतनाट्यम् का कार्यक्रम था। मुझे उसमें किसी भी हाल में शामिल होना था।

लेकिन 28 फ़रवरी का दिन सुबह से ही सभी को डरा रहा था। गुलबर्ग सोसायटी के दरवाज़े पर पुलिस का पहरा था, इसलिए मैं आश्वस्त था। सुबह 10 बजे से ही दंगाईयों की भीड़ गुलबर्ग के बाहर जमा हो रही थी। आसपास की चालियों में जो मुस्लिम रहते थे उसमें से ज़्यादातर जा चुके थे और थोड़े लोग गुलबर्ग में शरण लेने पहुंचे थे। उन्हें विश्वास था कि जाफ़री साहब रसूख़दार इंसान हैं, पूर्व सांसद भी रह चुके हैं, सत्ता में उनकी सुनी जाती है, पुलिस अधिकारियों से लेकर बड़े-बड़े राजनेताओं के साथ उनके संबंध हैं, इसलिए कोई दिक़्क़त नहीं आनी चाहिए।

शुरुआत में पुलिस ने एकाध बार कुछ लोगों को वहां से भगाया भी। ज्‍वाइंट पुलिस कमिश्नर साहब आकर मुझे आश्वासन दे चुके थे लेकिन 11 बजे के बाद परिस्थिति ठीक नहीं लग रही थी। धीरे-धीरे लोगों की भीड़ बढ़ती जा रही थी। मैंने मेरे मित्र और म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन में स्‍टैंडिंग कमेटी के चेयरमैन बदरुद्दीन शेख़ को फ़ोन किया। उन्होंने भी भरोसा दिलाया कि उन्होंने पुलिस कमिश्नर से बात की है और वो कार्रवाई करेंगे। फिर भी बाहर भीड़ कम होने के बजाय बढ़ती ही जा रही थी। अब धीरे-धीरे सोसायटी में पत्‍थरबाज़ी और जलती हुई चीज़ें फेंकी जा रहीं थीं। कुछ मकानों में आग भी लग गई थी। सोसायटी का मैं चेयरमेन था, तो सभी गुलबर्गवासी मेरे पास ही थे। हम मिलकर जो भी हाथ में आ रहा था उससे लोगों का मुक़ाबला कर रहे थे।

ज़किया बहुत ही घबराई हुई थीं। सोसायटी में धुंआ-धुंआ हो गया था। कई लोग अब सोसायटी में घुस आये थे और वो पूरी तरह से हथियारों से लैस थे। केरोसीन, पेट्रोल जैसे ज्वलनशील पदार्थ लिये हुए वे लोग, तलवार, ख़ंजर और पाईप जैसे हथियार भी लिये हुए थे। ज़्यादातर लोग मेरे साथ मेरे घर में आ गये थे। मैंने दरवाज़ा बंद कर दिया था। हमारे कुछ साथी तो बाहर ही मारे जा चुके थे। सोसायटी में बची ज़्यादातर महिलायें और बच्चे मेरे घर में आ गये थे। सभी महिलाओं और बच्चों को मैंने ऊपर की मंज़िल पर भेज दिया था।

सुबह से पुलिस ने कई बार फ़ायरिंग की थी लेकिन किसी को कुछ हुआ नहीं था। मेरी मौत के बाद पुलिस जांच में पता चला कि पुलिस ने क़रीब 61 राउंड गोलियां चलाईं थीं लेकिन एक भी व्यक्ति को मामूली चोट भी नहीं आई थी। मेरे घर में सभी जालियां बंद थीं। लेकिन बाहर से भीड़ जलती हुई चीज़ें भी अंदर फेंक रही थी। सांस लेना भी दूभर हो गया था। मैंने अंतिम उपाय के तौर पर अपनी लाइसेन्स वाली रिवॉल्‍वर से फ़ायरिंग की। कुछ लोगों को शायद चोट लगी लेकिन कोई असर नहीं हुआ। मैं समझ नहीं पा रहा था कि हमने और हमारी सोसायटी और बाहर से यहां शरण लिये हुए लोगों का क्या गुनाह था जो ये लोग हमारे ख़ून के प्यासे थे!

मुझे एक अंतिम उपाय करने का मन में आया। दरवाज़े टूटने की कगार पर थे। घर में धुंए में सांस लेना दूभर था। मुझे लगा कि अगर मैं सच्चा नेता हूं तो मुझे अपनी क़ुर्बानी देकर भी इन लोगों को बचा लेना चाहिए। मैंने दंगाईयों को कहा कि आप लोग मेरा जो चाहे हश्र कर दो। मैं बाहर आ रहा हूं लेकिन इन मासूम औरतों और बच्चों को बख़्श दो। मैं बाहर निकल आया। अपने आप को उनके हवाले कर दिया। फिर मेरी सुध-बुध जैसे खो गई। इतने लोग, कोई तलवार मार रहा था, कोई चाक़ू-ख़ंजर चला रहा था। शरीर का कोई हिस्सा नहीं था जहां ख़ून नहीं था, मुझे घसीटकर सोसायटी के बाहर ले जाया गया। कुछ लोग मुझ पर केरोसीन या पेट्रोल पता नहीं क्या डाल रहे थे। मुझे आग लगा दी गई लेकिन मेरी चीख़ नहीं निकल पाई। मैं तो कब का मर चुका था। मुझे पता था कि मुझे जनाज़ा भी नसीब नहीं होगा। पता नहीं मेरी क़ुर्बानी काम आई या नहीं क्योंकि मैं तो अब आत्मा या रूह जो कहें, रह गया हूं।

देखता हूं सीरिया, अमेरिका, यूरोप, इराक़, ईरान, कोरिया, हर कहीं आग की लपटें ही हैं। कहीं कम, कहीं ज़्यादा। धुंआ बहुत ऊपर तक आने लगा है। लेकिन फिर भी इंसानियत में मेरा भरोसा बरक़रार है। ये धुंआ कभी तो छटेगा। कभी तो सब समझेंगे कि सभी के लहू का रंग सिर्फ़ और सिर्फ़ लाल है।

(राजीव पाठक एनडीटीवी के चीफ़ करेस्पांडेंट हैं।)

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