मदरसों पर विवाद की हक़ीक़त क्या है?

यह बात एक हक़ीक़त है कि अगर मदरसे न हों तो मुसलमानों की एक बड़ी तादाद बुनियादी शिक्षा प्राप्त करने से वंचित रह जाएगी जबकि बुनियादी और मुफ़्त शिक्षा देने का काम तो ख़ुद सरकार को ही करना चाहिए, जिस काम को मदरसे बख़ूबी अंजाम दे रहे हैं। मदरसों ने करोड़ों बच्चों को शिक्षा से जोड़ा है जो आज देश की तरक़्क़ी में अपना योगदान दे रहे हैं।

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मदरसों पर विवाद की हक़ीक़त क्या है?

अब्दुल रक़ीब नोमानी 

हिंदुस्तान में मदरसों को लेकर एक बार फिर बहस छिड़ी हुई है। समय-समय पर कुछ राजनैतिक दलों और नेताओं द्वारा ऐसा कहा जाता रहा है कि मदरसों में सिर्फ़ धार्मिक शिक्षा देकर “आतंकवाद” व “कट्टरता” के ककहरे सिखाए जाते हैं और मदरसे पूरी तरह से आधुनिक शिक्षा के ख़िलाफ़ हैं।

दरअसल, हाल ही में यह बहस असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वा शर्मा के उस बयान के बाद छिड़ी है जिसमें उन्होंने कहा है कि हमने 600 मदरसों को बंद कर दिया है। हमारी कोशिश है कि हम सभी मदरसे बंद कर दें, क्योंकि हम मदरसे नहीं चाहते हैं, हम स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी चाहते हैं। वहीं पिछले साल अगस्त में उन्होंने अपने एक बयान में मदरसों को आतंकवादी ट्रेनिंग का हब बताते हुए कहा था कि यहां शिक्षा के बजाय “आतंकी ट्रेनिंग” दी जाती है।

असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वा शर्मा पिछले दो सालों से लगातार असम के अंदर मदरसों पर आतंकवादी संलिप्तता के आरोप की बात कर बुल्डोज़र कार्रवाई करते रहे हैं। इसी कड़ी में उन्होंने राज्य सरकार की ओर से मिलने वाली अनुदान राशि को 2020 से ही रोक दिया है। एक रिपोर्ट के मुताबिक़ अनुदान राशि ना मिलने के वजह से असम के 800 से ज़्यादा मदरसे बंद हो गए हैं। वहीं दूसरी ओर प्राइवेट रूप से चलने वाले मदरसों पर भी आरोप की बात कर कार्रवाई की जा रही है। जिसके बारे में उन्होंने अपने भाषण में ज़िक्र करते हुए कहा था कि उन्होंने अब तक 600 मदरसों को बंद कर दिया है।

ऐसा पहली बार नहीं है। समय-समय पर बीजेपी के नेताओं की तरफ़ से मदरसों पर कार्रवाई कर उनको बंद करने की मांग की जाती रही है। हाल ही में इस सूची में एक नया नाम पाटिल नतयाल का जुड़ा है जो कर्नाटक से बीजेपी के विधायक हैं। उन्होंने अपने बयान में कहा कि अगर कर्नाटक में बीजेपी सत्ता में आई तो हम असम की तरह यहां भी सारे मदरसे बंद कर देंगे। दरअसल, जब से बीजेपी केंद्र में आई है तब से, ख़ास तौर पर बीजेपी शासित राज्यों में, मदरसों को बंद करने की मांग उठती रही है।

आज हम इस लेख के ज़रिए जानने की कोशिश करेंगे कि मदरसा क्या है? देश का संविधान इस तरह के अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों की स्थापना को लेकर क्या कहता है? देश की आज़ादी में इनका क्या योगदान रहा है? बीजेपी के नेता मदरसों पर जो आरोप लगा रहे हैं, उनकी सच्चाई क्या है?

मदरसा क्या है?

मदरसा अरबी भाषा का एक शब्द है जिसका मतलब होता है – पढ़ने का स्थान यानि जहां पर शिक्षण कार्य होता है। मूल रूप से यह हिब्रू भाषा से अरबी में आया है, जिसे हिब्रू में मिदरसा कहा जाता है। इसे हिंदी के शब्द “पाठशाला” और अंग्रेज़ी शब्द “School” के रूप में लिया जा सकता है। विश्व का पहला मदरसा ग्यारहवीं शताब्दी में बग़दाद में खोला गया था, जिसका नाम निज़ामिया मदरसा था और इसे सलजूक़ वज़ीर निज़ाम-उल-मुल्क ने बनवाया था।‌ इस मदरसे में शिक्षा और भोजन के साथ आवासीय व्यवस्था पूरी तरह से निःशुल्क थी।

आमतौर पर मदरसों को कट्टरपंथी ज्ञान का केंद्र बताने वाले इतिहास से परिचित नहीं होते हैं। इसे समझने के लिए हमें इतिहास के पन्नों को कुरेदना होगा। इन इस्लामिक स्कूलों का इतिहास अत्यंत वैभवशाली रहा है। देश के पहले राष्ट्रपति डॉ० राजेंद्र प्रसाद, महान् समाज सुधारक राजा राम मोहन राय और कथा सम्राट मुंशी प्रेमंचद ने भी कभी मदरसों से ही शुरुआती शिक्षा प्राप्त की थी। वहीं हिंदुस्तान में मदरसों के इतिहास की बात करें तो यहां सबसे पहला मदरसा शुरू करने का प्रमाण ग़ौरी शासन के दौरान देखने को मिलता है, जिसको 1191-92 ईस्वी के दौरान अजमेर में खोला गया था। लेकिन यूनेस्को की मानें तो हिंदुस्तान में मदरसों की शुरुआत 13वीं शताब्दी में हुई, जो ग्वालियर को देश का पहला मदरसा बताता है। हिंदुस्तान में अंग्रेज़ों ने भी मदरसे खोले। वारेन हेस्टिंग्स ने 1781 में कोलकाता में अंग्रेज़ी सरकार का पहला मदरसा खोला।

देश का संविधान अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों की स्थापना को लेकर क्या कहता है?

हिंदुस्तान का संविधान अनुच्छेद 29-30 में अल्पसंख्यकों को अपने शिक्षण संस्थान चलाने और उनके संरक्षण का पूरा अधिकार देता है। इसीलिए अगर आजकल के बयानवीरों के ऐसे बयान जिसमें वे मांग करते हैं कि मदरसों को पूरी तरह से बंद कर देना चाहिए, पूरी तरह से आपत्तिजनक और संविधान के विरुद्ध हैं। ख़ास तौर पर जब एक संवैधानिक पद पर बैठा व्यक्ति इस तरह की बयानबाज़ी करे तो ऐसे मामलों में तो न्यायालय को आगे बढ़कर ख़ुद ही कार्रवाई कर उन पर लगाम लगानी चाहिए।

अनुच्छेद 29 (अल्पसंख्यक-वर्गों के हितों का संरक्षण) के अनुसार –

(अ) भारत के राज्यक्षेत्र या उसके किसी भाग के निवासी नागरिकों के किसी अनुभाग को, जिसकी अपनी विशेष भाषा, लिपि या संस्कृति है, उसे बनाए रखने का अधिकार होगा।

(ब) राज्य द्वारा पोषित या राज्य-निधि से सहायता पाने वाली किसी शिक्षा संस्था में प्रवेश से किसी भी नागरिक को केवल धर्म, मूलवंश, जाति, भाषा या इनमें से किसी के आधार पर वंचित नहीं किया जाएगा।

अनुच्छेद 30 (शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन करने का अल्पसंख्यक-वर्गों का अधिकार) के अनुसार –

(अ) धर्म या भाषा पर आधारित सभी अल्पसंख्यक-वर्गों को अपनी रुचि की शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन का अधिकार होगा।

(ब) शिक्षा संस्थाओं को सहायता देने में राज्य किसी शिक्षा संस्था के विरुद्ध इस आधार पर विभेद नहीं करेगा कि वह धर्म या भाषा पर आधारित किसी अल्पसंख्यक-वर्ग के प्रबंध में है।

अब अगर देखें तो हिंदुस्तान में तीन तरह के अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान देखने को मिलते हैं।

(१) राज्य से अर्थिक मदद व मान्यता लेने वाले संस्थान,

(२) ऐसे संस्थान जो राज्य से मान्यता लेते हैं लेकिन उन्हें आर्थिक सहायता प्राप्त नहीं होती है, और

(३) ऐसे संस्थान जो राज्य से ना तो आर्थिक सहायता लेते हैं और ना ही उनसे मान्यता प्राप्त करते हैं।

आजकल सत्ता के शिखर पर विराजमान लोग ना सिर्फ़ संविधान के ख़िलाफ़ बयानबाज़ी कर रहे हैं बल्कि देश की एक बड़ी आबादी को शिक्षा से दूर रखने के एजेंडे पर काम कर रहे हैं, जिसमें ज़्यादातर राज्य सरकारें ना सिर्फ़ अपनी ओर से मदरसों को मिलने वाली आर्थिक मदद को रोक रही हैं बल्कि मुसलमानों द्वारा स्वयं चलाए जाने वाले शिक्षण संस्थानों में भी बाधा डाल रही हैं। इसका सीधा और साफ़ उद्देश्य मुस्लिम समाज से आने वाले लोगों को शिक्षा से दूर करना है। वहीं जब आप सच्चर कमेटी की रिपोर्ट देखेंगे तो यह हक़ीक़त आपके सामने आएगी कि मुसलमानों की स्थिति कई मामलों में देश के दलितों से भी बुरी है। इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि मदरसा जाकर शिक्षा हासिल करने वाले अल्पसंख्यक बच्चों की तादाद महज़ चार फ़ीसद है।

यह बात भी एक हक़ीक़त है कि अगर मदरसे न हों तो मुसलमानों की एक बड़ी तादाद बुनियादी शिक्षा प्राप्त करने से वंचित रह जाएगी जबकि बुनियादी और मुफ़्त शिक्षा देने का काम तो ख़ुद सरकार को ही करना चाहिए, जिस काम को मदरसे बख़ूबी अंजाम दे रहे हैं। मदरसों ने करोड़ों बच्चों को शिक्षा से जोड़ा है जो आज देश की तरक़्क़ी में अपना योगदान दे रहे हैं। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में मुसलमानों की अर्थिक, शैक्षणिक और सामाजिक स्तिथि बेहतर करने के लिए कई सुझाव भी दिए गए गए थे, लेकिन किसी भी सरकार ने आज तक उनकी सुध नहीं ली। इस रिपोर्ट में उन्होंने मुस्लिम आबादी वाले क्षेत्रों में नये शिक्षण संस्थानों की स्थापना की बात कही थी। देश के स्वतंत्रता के बाद से ही सरकार बंटाधार करने में लगी हुई है। आज भी आपको मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में उनकी आबादी के अनुरूप स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी नहीं दिखेंगे। ऐसी स्थिति में पिछड़े और ग़रीब मुस्लिम बच्चों को शिक्षा देने की ज़िम्मेदारी ये मदरसे ही निभा रहे हैं।

देश की आज़ादी में मदरसों का योगदान

हिंदुस्तान की आज़ादी का इतिहास मदरसों का ज़िक्र किए बग़ैर पूरा ही नहीं हो सकता। कोई भी इतिहासकार इस योगदान को चाहकर भी नज़र अंदाज़ नहीं कर सकता है। हिंदुस्तान की आज़ादी में जो भूमिका मदरसों और उनसे शिक्षा हासिल कर निकले लोगों ने निभाई है, वो आज भी हज़ारों अख़बारों और किताबों के पन्नों में दर्ज है। यह ऐतिहासिक साक्ष्य अपने अंदर सरफ़रोशी, क़ुर्बानी, सच्चाई और बेबाकी के जज़्बे को समेटे हुए है। मदरसे से निकलने वाले उलेमाओं ने ना सिर्फ़ मुल्क की मुहब्बत के लिए आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा लिया बल्कि ज़रूरत महसूस होने पर अंग्रेज़ी सत्ता के ख़िलाफ़ लड़ाई में लोगों की भागीदारी बढ़ाने के लिए फ़तवे भी जारी किए। हिंदुस्तान के पहले शहीद पत्रकार मौलवी मुहम्मद बाक़र का नाम आज भी याद किया जाता है जिनका संबंध उर्दू पत्रकारिता से था। उन्होंने 1857 के दौरान अपने अख़बार “देहली अख़बार” के ज़रिए हिंदुस्तानियों के अंदर अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए जान फूंक दी थी। 1857 की क्रांति थमने के बाद सज़ा देकर उन्हें तोप से उड़ा दिया गया था। अंग्रेज़ इतिहासकार एडवर्ड टामसन ने ख़ुद लिखा है कि आज़ादी का बिगुल फूंकने वाले 80,000 से ज़्यादा उलेमाओं को 1857 से 1867 के बीच अंग्रेज़ी सरकार द्वारा फांसी पर लटकाया गया।

बीजेपी नेताओं का मदरसों पर आरोप और उनका सच?

आज के हिंदुस्तान में मदरसों पर ये आरोप कहीं भी नहीं टिकते कि वहां पर सिर्फ़ इस्लाम से जुड़ी शिक्षा दी जाती है और आतंकवाद के ककहरे सिखाए जाते हैं। मदरसों ने हर दौर में अम्न-ओ-अमान का पैग़ाम दिया है। आज सभी मदरसों में धार्मिक शिक्षा के साथ आधुनिक शिक्षा भी दी जाती है। धीरे-धीरे मदरसों ने वक़्त के हिसाब से अपने पाठ्यक्रम में बदलाव कर उनमें कई विषयों को जोड़ा है। जहां पर अब अरबी, उर्दू, अंग्रेज़ी, विज्ञान, राजनीतिक विज्ञान और इतिहास के साथ कम्प्यूटर की शिक्षा भी दी जाती है।

सत्ता के शिखर पर विराजमान लोगों द्वारा मदरसों को बंद करने की मांग ना सिर्फ़ देश के संविधान और भाईचारे के ख़िलाफ़ है बल्कि यह संविधान की आत्मा को भी ठेस पहुंचाती है जिसमें धर्मनिरपेक्षता की बात कही गई है। यह उन साज़िशों की ओर भी इशारा करती है जिसमें देश की एक बड़ी आबादी को शिक्षा से दूर रखने की कोशिश की जा रही है।

दरअसल,‌ आज देश में काम की बातों को छोड़कर हर उस बात पर चर्चा हो रही है जिससे देश का नुक़सान हो रहा है। जनहित के मुद्दे कहीं बहुत पीछे छूट चुके हैं। ज़रूरत इस बात की है कि जनहित के मुद्दों पर बात की जाए, जिनसे देश का विकास हो। रही बात मदरसों की तो मदरसों ने अतीत में भी देश के लिए अपना भरपूर योगदान दिया है और आगे भी जब ज़रूरत होगी, ये पहली पंक्ति में खड़े मिलेंगे। सत्ता के शिखर पर पहुंचे लोगों को विद्वेष में ऐसी विभाजनकारी बयानबाज़ी और द्वेषपूर्ण कार्रवाई से बचना चाहिए। सरकार का काम सिर्फ़ जनहित का सरोकार होना चाहिए ना कि विभेदीकरण वाली राजनीति से अपने स्वार्थों की सिद्धि। देश का विकास तभी संभव है जब सरकार सभी को साथ लेकर साथ चलेगी।

(लेखक पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी, हैदराबाद के छात्र हैं।)

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