पुस्तक समीक्षा: कौन हैं भारत माता?

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पुस्तक: कौन हैं भारत माता? – इतिहास, संस्कृति और भारत की संकल्पना

लेखन व संपादन: पुरुषोत्तम अग्रवाल

प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन

भाषा: हिंदी

मूल संस्करण (अंग्रेज़ी) से हिंदी अनुवाद: पूजा श्रीवास्तव

पेपरबैक: 512 पृष्ठ

मूल्य: 499/-

ऐसे समय में जब राष्ट्र, राष्ट्रवाद और राष्ट्रप्रेम जैसे विषयों पर देश में चर्चा का बाज़ार गर्म है और आए दिन देश के स्वघोषित ठेकेदार ‘सच्चा देशभक्त’ होने के नए-नवेले मानदंड स्थापित कर रहे हैं, तब जवाहरलाल नेहरू के मानवनिष्ठ राष्ट्रवाद के विविध पहलुओं से अवगत कराता संकलन “कौन हैं भारत माता? : इतिहास, संस्कृति और भारत की संकल्पना” काफ़ी प्रासंगिक हो जाता है।

“कौन हैं भारत माता? : इतिहास, संस्कृति और भारत की संकल्पना” नेहरू की कालजयी पुस्तकों के अंशों, उनके लेखों, भाषणों, पत्रों व साक्षात्कारों का चयनित संग्रह है, जिसका संपादन विख्यात लेखक डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल ने स्वलिखित भूमिका व प्रस्तावना के साथ किया है।

डॉ. अग्रवाल ने इस संकलन के माध्यम से नेहरू के राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक दृष्टिकोण के वास्तविक स्वरूप को पाठकों के समक्ष समग्रता के साथ प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।

जैसा कि पुस्तक के शीर्षक से स्पष्ट है कि आधार सामग्री चयनित व संपादित करते समय डॉ. अग्रवाल का प्रयोजन जवाहरलाल नेहरू की भारत संकल्पना (आइडिया ऑफ़ इंडिया) से पाठक वर्ग को परिचित कराना है। स्वतंत्रता आंदोलन के समय राष्ट्र की अनेक संकल्पनाएं दी गईं, जिनमें एक तरफ़ धार्मिक पहचान पर आधारित संकीर्ण, सांप्रदायिक और उग्र-राष्ट्रवादी अवधारणा थी तो दूसरी ओर नेहरू द्वारा इसके उलट आधुनिक, समावेशी और मानवनिष्ठ भारत की संकल्पना दी गई। दादा धर्माधिकारी ने नेहरू के मानवतावादी भारतीय राष्ट्रवाद को ही मानवनिष्ठ राष्ट्रवाद की संज्ञा दी थी। नेहरू ने भारत-संकल्पना और भारत-माता के स्वरूप को परिभाषित करते हुए एक सभा में कहा था, “सारे मुल्क में फैले करोड़ों हिंदुस्तानी, भारत-माता दरअसल यही करोड़ों लोग हैं, इन्हीं की जय है भारत-माता की जय।” नेहरू इस मानवतावादी व समावेशी भारत संकल्पना के इकलौते समर्थक नहीं थे, बल्कि उनसे वैचारिक मतभेद रखने वाले भगत सिंह, अंबेडकर, गांधी, पटेल, आज़ाद, बोस आदि भी  इस संकल्पना पर एकमत थे। डॉ. अग्रवाल इस राष्ट्रवादी अवधारणा का औपनिवेशिक व्यवस्था की समाप्ति में भी अहम योगदान मानते हैं।

नेहरू के ख़िलाफ़ संस्थागत दुष्प्रचार क्यों? अपनी मृत्यु के दशकों बाद भी नेहरू भारतीय राजनीति में जीवित हैं, परंतु अपनी नीतियों और विकासकार्य के लिए नहीं बल्कि देश में जहां कुछ ग़लत हो उसका ठीकरा आख़िर में नेहरू के सर फोड़ा जाता है। क्या वास्तव में सारी परेशानियों की जड़ नेहरू हैं या ये उनकी छवि को धूमिल करने के उद्देश्य से चलाए जा रहे संस्थागत दुष्प्रचार का परिणाम है? इसी प्रश्न का उत्तर देते हुए डॉ. अग्रवाल कहते हैं, “हिंदुत्व के पैरोकार भली-भांति जानते हैं कि बिना नेहरू की यादों और छवि को मिटाए, बिना नेहरू के विराट व्यक्तित्व का क़द गिराए, बिना भारतीय जनता के दिमाग़ पर से नेहरू के छाप को हटाए वे अपने हिंदुत्व प्रोजेक्ट में कामयाब नहीं हो सकेंगे।”

नेहरू संकीर्ण और सांप्रदायिक राष्ट्रवाद के घोर विरोधी थे। राष्ट्रवाद का मुखौटा पहने हिंदुत्ववादियों की पोल खोलते हुए अपनी आत्मकथा में वे लिखते हैं, “मुस्लिम संगठनों का सांप्रदायिक रूप हर एक पर ज़ाहिर है, सबको दिखता है। हिंदू महासभा की सांप्रदायिकता इतनी स्पष्ट नहीं दिखती क्योंकि वह राष्ट्रवाद का चोगा ओढ़े रहती है।” नेहरू के सांप्रदायिकता-विरोधी विचार भारत को एक लोकतांत्रिक देश से एक अधिनायकवादी व बहुसंख्यकवाद ग्रस्त देश बनाने का सपने रखने वाले हिंदुत्ववादियों को अपनी राह का रोड़ा नज़र आते थे, जिसके कारण उनके द्वारा ‘नेहरु से नफ़रत करो’ प्रोजेक्ट चलाया गया। नेहरु सियासी और सांप्रदायिक हिंदुत्व के हर संस्करण के ख़िलाफ़ थे, इसी वजह से वह उग्र-राष्ट्रवादियों के निशाने पर रहे और आज भी बने हुए हैं। वर्तमान में सोशल मीडिया को फ़ेक-न्यूज़ उत्पादित और प्रसारित करने की मशीनरी के रूप में प्रयोग किया जा रहा है। व्हाट्सएप और फ़ेसबुक पर नेहरु की नीतियों और चरित्र को लेकर जो भ्रांतियां फैलाई जा रही हैं, जो चिंताजनक होने के साथ हास्यास्पद भी हैं।

इस किताब के ज़रिए डॉ. अग्रवाल ने नेहरू पर लगे आधारहीन आक्षेपों का तर्कपूर्ण खंडन तथ्यों के साथ किया है। हिंदुत्ववादी विचारक अक्सर नेहरू पर भारतीय धर्म-संस्कृति-परंपरा विरोधी, आधुनिक पश्चिमी सभ्यता के पुजारी और ‘अपर्याप्त भारतीय’ होने का आरोप मढ़ते रहते हैं, जिसे लेखक बेबुनियाद क़रार देते हुए एक स्थान पर कहते हैं, “हिंदुत्ववादियों के विपरीत नेहरू भारतीय संस्कृति और परंपरा की एक सच्ची और परिपक्व समझदारी भरी सोच से परिपक्व थे।” अपने कथन के समर्थन में उन्होंने भारतीय-संस्कृति की झलक प्रस्तुत करती नेहरू की पुस्तकों ‘द डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’, ‘विश्व इतिहास की एक झलक’, इंदिरा को लिखे पत्रों तथा अन्य लेखों से अंश संदर्भ रूप में दिए हैं।

नेहरू राष्ट्र की संकल्पना के समान ही सांस्कृतिक अवधारणा में विविधता को महत्व देते हैं, एक स्थान पर वे लिखते हैं, “मेरे हिसाब से दुनिया में कोई भी संस्कृति ऐसी नहीं है जो पूर्णतः मौलिक, पवित्र-पावन और दूसरी संस्कृति से प्रभावित न हो। ठीक इसी तरह कोई यह भी नहीं कह सकता कि वो सौ फ़ीसदी एक ख़ास नस्ल या जाति का प्रतिनिधि है क्योंकि सैकड़ों-हज़ारों सालों में बहुत बदलाव और समन्वय हुआ है।” नेहरू की आधुनिकता और पश्चिम के अंधानुकरण के अंतर को रेखांकित करते हुए डॉ. अग्रवाल लिखते हैं, “यूरोपीय आधुनिकता को ही एकमात्र आधुनिकता माना जाता रहा है, किसी भी ग़ैर-यूरोपीय समाज के आधुनिक हो जाने का पैमाना यही माना और मनवाया जाता रहा कि वह अपनी ख़ुद की परंपरा और सांस्कृतिक अनुभवों के अधिकांश को ख़ारिज कर दे और जल्दी से जल्दी पश्चिम की कार्बन कॉपी बन जाए।” नेहरू के लिए परंपरावादी होने का अर्थ जड़ होना नहीं था और न ही आधुनिक होने का मतलब पश्चिम का अंधानुकरण करना ही था।

संकलन के दूसरे भाग में नेहरू के समकालीन व उस युग के देशी-विदेशी लेखकों के संस्मरण और विचारमूलक लेख शमिल किए गए हैं। इनमें नेहरू से वैचारिक साम्य रखने वाले बुद्धिजीवियों के साथ-साथ उनके वैचारिक विरोधियों के नेहरू के विषय में लिखे गए लेख भी संगृहीत हैं, जिससे नेहरू का निष्पक्ष होकर तटस्थ व समग्र मूल्यांकन किया जा सकता है।

नेहरू के प्रासंगिक लेखों और उनके विषय में लिखे गए महत्वपूर्ण लेखों को एक पुस्तक का रूप देने के लिए संपादक डॉ. अग्रवाल की निःसंदेह सराहना की जानी चाहिए। नेहरू के विषय में जागृत जिज्ञासाओं को शांत करने में डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल का यह संकलन निश्चित तौर पर उपयोगी है। पुस्तक के माध्यम से पाठक वर्ग नेहरू की भारत-संकल्पना के राजनितिक और सांस्कृतिक पहलू के साथ-साथ इसके समाजिक व आर्थिक दृष्टिकोण से भी परिचित हो सकेंगे। लेखक ने नेहरू के सिद्धांतों और उनके वैचारिक आधार पर ध्यान अधिक केंद्रित किया है, इन अवधारणाओं और संकल्पनाओं को ज़मीनी हक़ीक़त बनाने में नेहरू कितना सफ़ल हुए हैं इस पर अपेक्षाकृत कम ही चर्चा की गई है है। यद्यपि कुछ प्रसंगों में हृदय-पक्ष की प्रबलता है लेकिन भावुकता के कारण डॉ. अग्रवाल नेहरू को आलोचना से सर्वथा मुक्त नहीं रखते हैं, जो संकलन की एक प्रमुख विशेषता है। नेहरू के प्रशंसकों के लिए तो सभी सामग्री डॉ. अग्रवाल ने कुशल संकलन व चयन से उपलब्ध करा दी है, साथ ही उनके आलोचकों को भी आकर्षित करने में वे सफ़ल हुए हैं।

समीक्षा: कुलसूम शमीम

(लेखिका अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में अध्ययनरत् हैं।)

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