देश की एक बड़ी आबादी से नफ़रत के लिए तैयार करती है ‘कश्मीर फ़ाइल्स’

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भारत में विभिन्न सामाजिक, राजनीतिक और साम्प्रदायिक मुद्दों पर फ़िल्में बनती रही हैं। इन फ़िल्मों में फ़िक्शन भी होता है और सच्ची घटनाएँ भी फ़िल्माई जाती हैं।

फ़िल्में और ड्रामे केवल मनोरंजन का साधन ही नहीं होते हैं बल्कि वे समाज की मौजूदा तस्वीर को भी प्रदर्शित करते हैं और भविष्य के लिए ट्रेंड सेट भी किया करते हैं।

युवाओं और बच्चों की लाइफ़ स्टाइल को बहुत हद तक फ़िल्मों व ड्रामों के माध्यम से प्रभावित किया जाता है।

हाल ही में रिलीज़ हुई विवेक अग्निहोत्री की फ़िल्म The Kashmir Files इस समय सुर्ख़ियों में है। कई तरह की चर्चाएँ इससे संबंधित सोशल मीडिया पर बिखरी हुई हैं। यह फ़िल्म 1990 में कश्मीर घाटी से कश्मीरी पंडितों के पलायन की कहानी पर आधारित है। कश्मीरी पंडितों पर हुए अत्याचार की सत्यता को उजागर करना इस फ़िल्म का मुख्य उद्देश्य बताया जा रहा है। हमारे देश के प्रधानमंत्री जी के अनुसार अब तक कश्मीरी पंडितों से सम्बंधित सच्चाई को साज़िशन बोतल के जिन्न की तरह फ़ाइलों में छुपा कर कहीं दफ़न कर दिया गया था, जिसे अब विवेक अग्निहोत्री नामक “अलादीन” ने फ़ाइलों से निकाल कर दुनिया के सामने रखा है। इस फ़िल्म को बीजेपी शासित प्रदेशों में टैक्स फ़्री किया गया है और वहीं कर्नाटक सरकार ने अपने विधायकों के लिए फिल्म के स्पेशल शो का भी इंतजाम किया।

किसी भावनात्मक मुद्दे पर या सत्य घटना पर बनने वाली यह पहली फ़िल्म नहीं है, और न कश्मीरी पंडितों के मुद्दे पर बनने वाली यह पहली फ़िल्म है, लेकिन इस फ़िल्म को ले कर पूरी बीजेपी लॉबी अपने अंडे-बच्चों समेत जिस उत्साह का प्रदर्शन कर रही है वह बेवजह नहीं है, वजह क्या है इस पर आगे चर्चा करेंगे।

कश्मीरी पंडितों के मुद्दे पर 2020 में विधु विनोद चोपड़ा के निर्देशन में “शिकारा” फ़िल्म आई थी, कहानी इसकी भी वही है जो The Kashmir Files की है, कश्मीरी पंडितों पर हुए अत्याचार, उनके क़त्ल और पलायन की कहानी को यह फ़िल्म पूरी तरह बयान करती है, इस फ़िल्म को देख कर आप कश्मीरी पंडितों की पीड़ा तो महसूस करेंगे लेकिन यह नहीं होगा कि आप पूरे कश्मीर से नफ़रत करने लग जाएँ, कश्मीर के सब बच्चों बूढ़ों महिलाओं और युवाओं में आप को अपना दुश्मन नज़र नहीं आएगा, बल्कि आप फ़िल्म के ज़रिए कश्मीरी पंडितों के दर्द से जुड़ कर उस पर मरहम लगाने का विचार करने लगेंगे।

इसी तरह 2002 के गुजरात दंगों में मुसलमानों के क़त्लेआम पर 2009 में “फ़िराक़” फ़िल्म आई थी जिसका निर्देशन नंदिता दास ने किया था। फ़िल्म के दृश्यों को देख कर आपके शरीर में झुरझुरी होने लगेगी, सांप्रदायिकता की आग में झुलसे तन-बदन-घर-आँगन-धड़कनों को तेज़ कर देंगे लेकिन गुजरात के हिंदुओं से नफ़रत या दुश्मनी पैदा नहीं होगी। ‘दंगें न हों, दंगों के ज़ख़्म भरे जाएँ’ – इन अहसासात के साथ आप “फ़िराक़” का THE END करेंगे ।

31 अक्टूबर 1984 को इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद देश के कई इलाक़ों में सिख विरोधी दंगें भड़काए गए, हज़ारों सिखों की हत्या की गई। 2016 में शिवाजी लोटन पाटिल के निर्देशन में “31 अक्टूबर” फ़िल्म आई जिसमें इस मुद्दे को फ़िल्माया गया। दिल्ली के दंगों में फँसे एक सिख परिवार को उसके हिन्दू दोस्त अपनी जान पर खेल कर दंगाईयों से बचा कर लेते हैं और अपने घर में शरण देते हैं ।

इसी तरह पिछले साल “ग्रहण” वेब सीरीज़ आई जिसका निर्देशन रंजन चंदेल ने किया, यह झारखंड के बोकारो में 1984 में हुए सिख विरोधी दंगों पर आधारित है, इसका यह डायलॉग देखिए “हमला करने वाला दंगाई होता है, हिन्दु या मुस्लिम नहीं।”

इन फ़िल्मों से किसी जाति, समुदाय, धर्म, क्षेत्र या नस्ल के ख़िलाफ़ किसी तरह का द्वेष, नकारात्मकता, विषाक्तता या शत्रुता का भाव पैदा नहीं होगा, बल्कि यह महसूस होगा कि इस तरह की घटनाएँ समाज को गहरे ज़ख़्म और असहनीय पीड़ा दे कर जाती हैं। वक़्ती जोश और नफ़रत के उफान का नतीजा पछतावे और शर्म के सिवा कुछ नहीं। लोगों के दरमियान दूरी ख़त्म हो, नफ़रतें न रहें, और एक दूसरे को दुश्मन समझने के बजाय दोस्त और भाई समझ कर मामलों को हल किया जाए।

The Kashmir Files में इनमें से कोई विशेषता नहीं है और इसी “विशेषता” से मंत्रमुग्ध हो कर इस फ़िल्म को बीजेपी शासित प्रदेशों में न सिर्फ़ टैक्स फ़्री किया बल्कि ख़ुद मोदी जी इसके “स्टार प्रचारक” की भूमिका निभाते हुए इसकी तारीफ़ों के पुल बाँधने लगते हैं ।

The Kashmir Files फ़िल्म को प्रचारित भले ही कश्मीरी पंडितों की पीड़ा को दिखाने के नाम पर किया जा रहा है, लेकिन वास्तविकता कुछ और है। इस फ़िल्म में कश्मीरी पंडितों की पीड़ा को केवल साधन बनाया गया है। “अन्य” उद्देश्यों” की पूर्ति के लिए पिछले आठ सालों में देश में जो घटनाएँ घटित हुईं, उन्हें बड़ी चतुराई के साथ फ़िल्म में इस तरह दिखाया गया है कि उन दृश्यों को देख कर यह लगे कि कश्मीरी पंडितों के साथ जो कुछ हुआ उसके लिए देश में मौजूद इस तरह के कारक ज़िम्मेदार हैं।

JNU को देशद्रोही गतिविधियों का अड्डा दिखाया गया, लेफ़्ट लिब्रल सेक्युलर और इस्लामिक विचारधाराओं को आतंकवाद के पनपने और शरण देने का जिम्मेदार दिखाया गया है। “हम देखेंगे”, “आज़ादी”, “हल्ला बोल” इत्यादि नारों और नज़्मों को देश के भारत के टुकड़े करने की साज़िश करने वाले बताए गए। यहाँ तक कि फ़िल्म देखने वाले को लगेगा कि कश्मीर को भारत से तोड़ने की साज़िश ही के लिए JNU की स्थापना की गई थी।

“कश्मीर फ़ाइल्स” कश्मीरी पंडितों के दर्द से आपको जोड़ने के बजाए आपको देश की एक बड़ी आबादी से नफ़रत करने के लिए तैयार करती है। फ़िल्म के दृश्यों को इस तरह फ़िल्माया गया है कि जिससे ख़ून उबाल मारे, और देखने वाला बदले की आग में झुलसने लगे कि अगर आज वह अपने दुश्मन को ललकारने के लिए खड़ा न हुआ तो कल पूरे देश में वही होगा जो कश्मीर में कश्मीरी पंडितों के साथ हुआ।

बीजेपी जैसी पार्टियों को यही सब सूट करता है ताकि देश का माहौल साम्प्रदायिक बना रहे, यहाँ की आब-ओ-हवा में नफ़रत घुली रहे, दिमाग़ों में हिंसा, हवस और घृणा के साँप रेंगते रहें और शक, भय व अजनबियत से भरी निगाहें राह चलते लोगों को आपस में घूरती रहें।

– मुत्तलिब मिर्ज़ा

1 COMMENT

  1. सतप्रतिसत वर्तमान स्थिति को दरसाया गया है।
    हमे और आपको सरकार से कोई उम्मीद नही करनी चाहिए
    बल्कि एक दूसरे समुदाय को यह समझना चाहिए कि इंसानियत से बढ़ कर कुछ नही
    जय हिंद जय भारत

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