[पुस्तक समीक्षा] हाउ फ़ासिज़्म वर्क्स – ‘अपनों’ और ‘ग़ैरों’ की राजनीति

फ़ासीवादियों की नज़र में ‘अपने’ पीड़ित और ‘ग़ैर’ उत्पीड़क होते हैं और ये उनको सताते हैं, उन्हें उनके अधिकारों से वंचित करते हैं। इसके अलावा ‘ग़ैरों’ के बारे यह विचार आम हो जाता है कि ये लोग आमतौर पर ग़ैर क़ानूनी गतिविधियों में शामिल होते हैं। देश और उसके क़ानून के प्रति वफ़ादार नहीं होते हैं। उनको पहले से ही अपराधी माना जाता है, जबकि ‘अपने’ देश के क़ानून के प्रति वफ़ादार और क़ुर्बानी देने वाले होते हैं।

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पुस्तक का नाम: हाउ फ़ासिज़्म वर्क्स – दि पॉलिटिक्स ऑफ़ ‘अस’ एण्ड ‘देम’

लेखक: जेसन स्टेनली

प्रकाशक: रैंडम हाउस

प्रकाशन वर्ष: 2018

भाषा: अंग्रेज़ी

पृष्ठ: 240

समीक्षक: ऊबैदुर्रहमान नौफ़ल

संयुक्त राज्य अमेरिका के संदर्भ में लिखी गई ‘हाउ फ़ासिज़्म वर्क्स’ (फ़ासीवाद कैसे काम करता है) एक महत्वपूर्ण पुस्तक है। लेखक ‘जेसन स्टेनली’ ने इसमें फ़ासीवाद के कुछ सिद्धांत और तरीक़े बताए हैं, जिनके माध्यम से विभिन्न देशों में सत्ता में आने वाली फ़ासीवादी सरकारों की नीति और मंशा को समझा जा सकता है।

लेखक के अनुसार बुनियादी तौर पर फ़ासीवादी ताक़तें लोगों को ‘हम’ (अपने) और ‘उन्हें’ (ग़ैर) में विभाजित करती हैं। ‘हम’ से मुराद उनका अपना समूह होता है, जो धर्म या नस्ल के आधार पर बनता है। उसी समूह की श्रेष्ठता और समृद्धि फ़ासीवाद का मुख्य नारा और उद्देश्य होता है, जबकि जो ‘अपनों’ से नस्लीय या धार्मिक रूप से अलग होते हैं, उनको ‘ग़ैर’ और कभी-कभी ‘दुश्मन’ माना जाता है। अपनों की परेशानियों और अभावों का ज़िम्मेदार भी ग़ैरों को समझा जाता है और इस आधार पर उनसे नफ़रत भी की जाती है।

किताब बताती है कि फ़ासीवाद में लोगों का विभाजन बहुत महत्वपूर्ण है। इसी विभाजन के आधार पर विचारधारा और नीतियां तैयार की जाती हैं और फ़ासीवादी ताक़तें व्यवहारिक रूप से इस विभाजन को और ज़्यादा मज़बूत करती रहती हैं। फ़ासीवादियों का एक काल्पनिक अतीत होता है, जो इतिहास में किसी समय मौजूद तो होता है, लेकिन इस अतीत को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर और स्वर्ण युग के रूप में पेश किया जाता है। उनके अनुसार, यह ‘काल्पनिक अतीत’ नस्लीय और सांस्कृतिक रूप से शुद्ध था, जिसमें एक नस्ल, एक संस्कृति और धर्म के लोग मिल जुलकर एक साथ रहते थे। पितृसत्ता और पुरोहितवाद भी उस दौर की मुख्य विशेषताएं थीं, लेकिन ‘ग़ैरों’ ने इस अतीत को नष्ट कर दिया और अब फिर से उसका पुनरुद्वार फ़ासीवादी ताक़तों का मुख्य उद्देश्य है।

इस ‘काल्पनिक अतीत’ को जनमानस तक पहुँचाने के लिए दुष्प्रचार किया जाता है। बेबुनियाद अफ़वाहें फैलाई जाती हैं, इतिहास को विकृत कर पेश किया जाता है। ऐसे में, समाज के विद्वान एवं बुद्धिजीवी जब उनके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाते हैं, उन्हें चुनौती देते हैं और उनके झूठ का पर्दाफ़ाश करते हैं, तो फ़ासीवादी ताक़तें उनकी दुश्मन बन जाती हैं। फ़ासीवादियों की अकादमिक जगत और विश्वविद्यालयों से दुश्मनी बहुत आम है, जिसे कई फ़ासीवादी देशों में देखा जा सकता है।

परिणामस्वरूप एक ऐसा वातावरण बनता है, जिसे लेखक वास्तविकता से दूर की स्थिति के रूप में वर्णित करता है, जिसमें फ़ेक न्यूज़ और और षड्यंत्र के सिद्धांत आम हो जाते हैं। फ़ासीवादी ताक़तें रंग, नस्ल, लिंग और धर्म के आधार पर इन्सानों बीच विभाजन में विश्वास करती हैं, और फिर यह विभाजन इतना गहरा हो जाता है कि ‘ग़ैरों’ की प्रगति और समृद्धि को ‘अपनों’ का अभाव समझा जाता है और बहुसंख्यक होने के बावजूद ‘अपनों’ के भीतर पीड़ित होने की भावना पैदा हो जाती है या पैदा की जाती है।

फ़ासीवादियों की नज़र में ‘अपने’ पीड़ित और ‘ग़ैर’ उत्पीड़क होते हैं और ये उनको सताते हैं, उन्हें उनके अधिकारों से वंचित करते हैं। इसके अलावा ‘ग़ैरों’ के बारे यह विचार आम हो जाता है कि ये लोग आमतौर पर ग़ैर क़ानूनी गतिविधियों में शामिल होते हैं। देश और उसके क़ानून के प्रति वफ़ादार नहीं होते हैं। उनको पहले से ही अपराधी माना जाता है, जबकि ‘अपने’ देश के क़ानून के प्रति वफ़ादार और क़ुर्बानी देने वाले होते हैं।

फ़ासीवाद में नस्लीय शुद्धता बहुत महत्वपूर्ण होती है। विशेष रूप से जिन फ़ासीवादी देशों में ‘अपने’ समूह का गठन नस्ल की बुनियाद पर होता है वहां सेक्सुअल ऐंग्ज़ायटी ज़्यादा देखने को मिलती है। फ़ासीवादी ताक़तें पितृसत्तात्मक विचारधारा मे विश्वास करती हैं और हर उस विचारधारा का विरोध करती हैं जो पुरुषों की पारंपरिक भूमिका को कम करती हैं, जबकि इनके अनुसार महिलाओं का मुख्य कार्य बच्चे पैदा करना और देश के लिए सैनिक और वर्कर तैयार करना होता है। ऐसे में महिलाओं के बहुत से अधिकार छिन जाते हैं और उनकी आज़ादी कम हो जाती है।

फ़ासीवादी ताक़तें गाँवों और गाँव के लोगों का ज़्यादा समर्थन करती हैं, क्योंकि उनके विचार में गाँव के लोग फ़ासीवादी विचारों के अधिक निकट होते हैं और पारंपरिक तरीक़ों और संस्कृति का पालन करते हैं। जबकि ये लोग शहरों से इसलिए चिढ़ते हैं, क्योंकि शहरों में, जहां विभिन्न संस्कृतियों और धर्मों के लोग एक साथ रहते हैं, पारंपरिक जीवन और संस्कृति धीरे-धीरे ख़त्म होती जाती है। यही वजह है कि दुनिया के ज़्यादतर देशों में, फ़ासीवादी ताक़तों को गाँवों से अधिक समर्थन और वोट मिलता है।

इस तरह फ़ासीवादी ताक़तें ‘अपनों’ को मेहनती और भरोसेमंद मानती हैं, जबकि ‘ग़ैरों’ को आलसी, ग़ैर भरोसेमंद और कामचोर। अतः ‘ग़ैरों’ के बारे में उनका विचार होता है कि यह लोग ‘अपने’ समूह के अधिकार को छीनते हैं और जनकल्याणकारी योजनाओं पर पलते हैं। फ़ासीवाद, फ़ासीवादी शक्तियों के तरीक़ों, सिद्धांतों और उद्देश्यों को समझने के लिए इस पुस्तक का अध्ययन उपयोगी होगा।

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