नफ़्स के साथ जिहाद का महीना है रमज़ान

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नफ़्स के साथ जिहाद का महीना है रमज़ान

डॉ. हसन रज़ा

रोज़ा वास्तव में अपने नफ़्स (आत्म) से जिहाद है। अपने नफ़्स को क़ाबू में रखने का आसमानी इलाज है। इसीलिए ये तमाम धर्मों में ये पाया जाता है। ये सिर्फ़ खाने-पीने पर क़ाबू पाने का नाम नहीं है बल्कि हर तरह की भूख को क़ाबू में रखना रोज़े के मक़सद में शामिल है।

ग़ौर कीजिए तो ये बड़ा जिहाद है। इंसान कई बार बाहरी लड़ाईयां लड़ लेता है लेकिन मामला जब ख़ुद अपनी ज़ात का हो तो अपने नफ़्स की शरारतों के आगे घुटने टेक देता है। रोज़ा इसका बहुत कारगर इलाज है। यही तक़वा (परहेज़गारी) की रूह है। इसीलिए क़ुरआन ने रोज़े का मक़सद ‘लअल्लकुम तत्तक़ून’ बताया है ताकि तुम्हारे अंदर तक़वा पैदा हो। इसीलिए जब भी रोज़ा रखा जाएगा, नफ़्स के साथ जिहाद होगा और ये सबसे बड़ा जिहाद कहलाएगा।

लेकिन रमज़ान के महीने में इस पहलू के साथ रोज़े का एक और पहलू उभर कर इसकी महत्ता में चार चांद लगा देता है। और वो पहलू है – क़ुरआन के अवतरित होने का जश्न। इसीलिए इस मौक़े पर हम रोज़े के ज़रिए एक बड़े जिहाद की तैयारी में भी व्यस्त हो जाते हैं वो है – जाहदहुम ब जिहादन कबीरा।

क़ुरआन में हिदायत दी गई कि कुफ़्र करने वालों के मुक़ाबले में क़ुरआन के साथ जिहाद करो। इसीलिए रमज़ान में ये दोनों बातें मिल जाती हैं और ये मिलकर रमज़ान के रोज़े की तासीर और बरकत को कुछ से कुछ कर देती हैं।

फिर ये रोज़ा एक साथ तरबियत और दावत, बाहरी और अंदरूनी पाकीज़गी, व्यक्ति और समाज के सुधार और व्यक्तित्व को रौशन करने के साथ चारों ओर अल्लाह की बड़ाई बयान करने का ज़रिया बन जाता है। यही रमज़ान के रोज़े की असल अहमियत है जिस की वजह से हिदायत दी गई कि “अगर‌ तुम रोज़े रखो, तो ये तुम्हारे लिए बेहतर है।”

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