[व्यंग्य] हम आज तक टमाटर की ग़ुलामी से बंधे हुए हैं!

देश फिर से 2014 में आज़ाद हो गया है मगर हम आज तक टमाटर की ग़ुलामी से बंधे हुए हैं! शर्म आनी चाहिए हमें कि हम आज तक इस मामले में आत्मनिर्भर नहीं हुए हैं, जबकि पिछले नौ साल से प्रधानमंत्री जी कह रहे हैं कि मेरी और मत देखो, आत्मनिर्भर बनो! हम शर्म तक के मामले में उनकी ओर देख रहे हैं कि पहले उन्हें किसी एक बात पर तो शर्म आए, तब हमें भी आने लगेगी!

लोकतंत्र में राजतंत्र के प्रतीकों का क्या काम?

जैसे ईंट-सीमेंट की बनी इमारत लोकतंत्र की संसद नहीं होती है वैसे ही राजतंत्र के किसी प्रतीक की जगह भी संसद में नहीं होती है। संसद में आप करते क्या हैं, कैसे करते हैं और जो करते हैं वह संविधानसम्मत है या नहीं, यही कसौटी है कि वह लोकतंत्र की संसद है या नहीं।

फ़ेक न्यूज़ : सियासत और साम्प्रदायिकता की ‘नई’ तकनीक – १

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मानव इतिहास के विभिन्न युगों में लोकतंत्र अथवा जनतंत्र की भिन्न-भिन्न व्याख्याएं की गई हैं। इसको सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों ही दृष्टिकोणों से परखा...

नफ़रत के ख़िलाफ़ असहयोग आंदोलन

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मीडिया की एजेंडा सेट करने की ताक़त की वजह से समाज में मीडिया की भूमिका बहुत अहम है। तब ऐसे में से नफ़रत की फ़सल बोने वाली मीडिया के साथ असहयोग करना मीडिया की स्वतंत्रता पर हमला तो क़तई नहीं है। आख़िरकार यह भी जनता के बीच से उठी आवाज़ है।

मौलाना आज़ाद के समावेशी विचारों पर बात करने की आवश्यकता है – प्रोफ़ेसर एस०...

अपने वक्तव्य में प्रोफ़ेसर हबीब ने कहा कि, “मौलाना आज़ाद केवल राजनीतिक व्यक्ति या एक इस्लामिक विद्वान नहीं थे बल्कि उसके अलावा भी बहुत कुछ थे जिस पर बात करने की आवश्यकता है। मौलाना आज़ाद एक उत्कृष्ट लेखक, वक्ता, संगीत प्रेमी, कला प्रेमी, साहित्यकार, स्वतंत्रता सेनानी के साथ-साथ भारत विभाजन के विरुद्ध सबसे प्रखर आवाज़ थे, जिनसे प्रभावित होकर लाखों मुसलमानों ने मुस्लिम लीग और विभाजन का विरोध किया था।”

रमज़ान में आत्मा और सांत्वना की तलाश

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क़ानून व्यवस्था और दंड व पुरस्कार का आधुनिक ढांचा मानव अनुभूति और आत्मा के गहरे स्तरों से जुड़ने में विफल रहा है। इसी गहरे स्तर पर मानव से न जुड़ पाने की वजह से हर प्रकार का भ्रष्टाचार व्याप्त है। अतः रमज़ान और रोज़ा मुख्य रूप से आत्म-शुद्धि करने के साथ-साथ शरीर पर आत्मा का और पशुवत प्रवृत्ति पर मानवीयता का प्रभुत्व विकसित करने के लिए आवश्यक है। यह एक स्वस्थ समाज के निर्माण का रोडमैप हो सकता है।

एनसीईआरटी द्वारा किताबों में हेरफेर का सिलसिला जारी, मौलाना आज़ाद का उल्लेख हटाया

एनसीईआरटी ने 11वीं कक्षा की राजनीति विज्ञान की किताब से प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी और देश के पहले शिक्षामंत्री मौलाना अबुल कलाम आज़ाद का उल्लेख हटा दिया है। इसके अलावा, जम्मू-कश्मीर के भारत में सशर्त विलय पर भी बड़े बदलाव किए गए हैं। दोहराव और अप्रासंगिक घटनाओं का तर्क देते हुए कोर्स से अब तक गुजरात दंगे, मुग़ल शासन, इमरजेंसी, शीतयुद्ध और नक्सली आंदोलन के कुछ हिस्सों को हटाया जा चुका है।

गीता प्रेस को ‘शांति’ पुरस्कार और ‘आल्ट-राईख’ की याद

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2018 में कारवाँ पत्रिका ने यह लेख प्रकाशित किया था। कैरोल शैफ़र ने लिखा था और इसके प्रकाशन तथा लिखे जाने की तैयारी में दसियों वर्ष की मेहनत है। यह आलेख मूलतः ‘आर्कटोस’ नामक प्रकाशन गृह पर है। इस प्रकाशन के संस्थापक ‘डेनियल फ़्रायबर्ग’ और अन्य सदस्यों की विचारधारा ने दक़ियानूसी और नफ़रत फैलाने वाली किताबों का जो कारोबार खड़ा किया है उसे पढ़ते हुए आप सकते में आ जाएँगे।

आज़ादी का मतलब क्या?

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आज़ादी का सबसे बड़ा हासिल तो यही है कि हमारे शासक हमारी मुट्ठी में हैं। लेकिन इस प्रत्यक्ष दिखने वाली सच्चाई की अपनी विडंबनाएं भी हैं। सत्ता लगातार जनता को बदल रही है। उसे अपने अधिकारों के प्रति सजग, समानता के मूल्य के प्रति सतर्क और सवाल पूछने वाले सचेत नागरिक नहीं चाहिए, उसे वैसे लोग चाहिए जिन्हें वह जनता का नाम देकर एक भीड़ में बदल सके और अपने पक्ष में इस्तेमाल कर सके।

क्यों निरर्थक है राष्ट्र बनाम धर्म की बहस?

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देश और धर्म एक दूसरे के विपरीत या पर्यायवाची नहीं हैं। देश गतिविधि के क्षेत्र का नाम है तो धर्म क्षेत्र में कार्य करने की प्रेरणा और विधि है। देश एक भौगोलिक पहचान है तो धर्म जीवन-शैली की पहचान है। एक चीज़ सीमांत है जबकि दूसरी वैश्विक है। तो दोनों में श्रेष्ठ कौन या पहले कौन, यह प्रश्न ग़लत है। इस तरह की बहसें केवल जनता को मूल मुद्दों से भटकाने और जनभावनाओं का दुरुपयोग करने का काम करती हैं। ऐसा माहौल बनाया जाता है कि लोग तीसरी दिशा में नहीं सोचते।